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राजनीतिक दल भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हैं, नागरिकों से अपेक्षा ईमानदारी की

खरी-खरी, राजनीति            Aug 28, 2022


राकेश दुबे।

गजब की बात है, देश में ईमानदारी को लेकर जो सामूहिक सोच होनी चाहिए थी, वह लगातार कम हो रही है और शायद यही वजह है कि सीबीआई या प्रवर्तन निदेशालय की उचित  कार्रवाई को भी राजनीति का हथियार बताया जाने लगता है।

मूलत: इसके पीछे राजनीति के खेल है और कोई भी राजनीतिक दल वो सब करता था, करता है और न जाने कब तक करता रहेगा जो उसे नहीं करना चाहिए।

 राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के इस खेल में आकंठ डूबे हैं और नागरिकों से अपेक्षा करते हैं कि वे ईमानदार बने रहें।

 देश में शायद ही कोई चुनाव हो, जिसका मुद्दा भ्रष्टाचार का खात्मा न रहा हो, लेकिन भ्रष्टाचार खत्म होने का नाम नहीं ले रहा बल्कि बढ़ता ही  जा रहा है। 

देश का दुर्भाग्य है  कि हर  शीर्ष नेतृत्व भ्रष्टाचार पर  लगाम की बात करता है ,इसके पीछे  राजनीति छिपी होती है ।

बड़े राजनीतिक दल अपने लेखे-जोखे में पारदर्शी नहीं है,  सीबीआई या प्रवर्तन निदेशालय की निष्पक्षता संदेहास्पद है, सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी अभी तक यथावत है सीबीआई पालतु तोता है। इन संस्थाओं का स्वरूप ऐसा क्यों है ? यह एक बड़ा सवाल है ?

हाल ही में केंद्रीय जांच ब्यूरो की कार्रवाई को भी राजनीति से ही जोड़कर देखा जा रहा है। चाहे नेशनल हेराल्ड वाला मामला हो।

 या शराब नीति लागू करने में हुई अनियमितताओं की जांच के सिलसिले में दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के घर और दफ्तर पर सीबीआई की छापेमारी हो।

या फिर बिहार में महागठबंधन की सरकार के विश्वासमत हासिल करने के ठीक पहले राष्ट्रीय जनता दल से जुड़े नेताओं के घरों और कार्यालयों पर छापेमारी हो।

बिहार के उपमुख्यमंत्री ने तो  यहां तक कह दिया कि छापेमारी से भाजपा की केंद्र सरकार जनता दल यू और राष्ट्रीय जनता दल के विधायकों को डराने की कोशिश कर रही है ताकि विधायक टूट जाएं।

कुछ ऐसी ही स्थिति दिल्ली में मनीष सिसोदिया के घर हुई छापेमारी को लेकर भी हुई। दिल्ली की नई शराब नीति के मामले में आरोप है कि इसमें न सिर्फ नियमों की अनदेखी की गई, बल्कि राजस्व का करीब तीन हजार करोड़ रुपये का नुकसान हुआ।

आरोप है कि सरकार ने अपने लोगों को फायदा पहुंचाया।

आप पार्टी इस साल के अंत तक होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों में गंभीरता से लड़ने की तैयारी में है।

भाजपा चूंकि इन राज्यों में सत्ता में है, इसलिए विरोधी आरोप लगा रहे हैं कि भाजपा की केंद्र सरकार के निशाने पर इसीलिए केजरीवाल हैं। हालांकि भाजपा इससे इनकार कर रही है।

चाहे कांग्रेस के प्रदर्शन रहे हों या अरविंद केजरीवाल का बयान हो या फिर मनीष सिसोदिया या बिहार के तेजस्वी का, इन नेताओं ने सीबीआई छापे को लेकर दिए अपने बयानों के जरिए अपने वोटरों को भरोसा दिलाने की कोशिश की।

भरोसा यह कि उन्होंने कोई भ्रष्टाचार नहीं किया है।  

वोटर इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं देता कि राजनीति में आने के पहले जिन नेताजी का कबमुश्किल घर खर्च चल पा रहा था, चुनाव जीतने या सत्ता में आने के बाद उन्होंने कौन सा कारोबार कर लिया कि उनकी संपत्ति इतनी हो गई कि सात पीढ़ियां भी मौज कर सकें?

 जनता को इन सवालों से जूझना चाहिए, दुर्भाग्य देश में लोकतांत्रिक राजनीति को जिस तरह विकसित किया गया  है, उसमें मतदाता जातियों में बंट गए।

उन्हें अपनी जातियों के नेताओं में कोई दाग नजर नहीं आता, बल्कि उस पर पड़ने वाले भ्रष्टाचार के छींटे विपक्षी दल या सत्ता पक्ष की कारगुजारी लगने लगती है।

पूर्व वित्त और गृहमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम के खिलाफ जब सीबीआई ने कार्रवाई की थी तो उसे भी राजनीति से ही प्रेरित बताया गया था।

कुछ महीने पहले जब महाराष्ट्र के महाविकास अघाड़ी के नेताओं नवाब मलिक और अनिल देशमुख के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय ने कार्रवाई की तो उसे भी राजनीति से प्रेरित बताया गया।

लेकिन सवाल यह है कि जब राजनीति से प्रेरित ही ये सारी कार्रवाइयां हैं तो अदालतों से इन नेताओं को राहत क्यों नहीं मिल रही है?

देश में ईमानदारी को लेकर जो सामूहिक सोच बननी चाहिए थी, वह लगातार कम हो रही है और शायद यही वजह है कि सीबीआई या प्रवर्तन निदेशालय की वाजिब कार्रवाई को राजनीति का हथियार बताया जाने लगता है।

इसका चुनावी फायदा भी उठाया जाता है। इसी वजह से भ्रष्टाचार की कहानियां और उनके खिलाफ होने वाली जांचें अक्सर बेअसर रह जाती हैं।



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