हेमंत कुमार झा।
रेलवे कई तरह के तकनीकी पदों पर अब स्थायी नियुक्ति नहीं करेगा, आउटसोर्सिंग से नियुक्ति होगी या जो निजी ट्रेन या निजी स्टेशन होंगे, उनके मालिक जानेंगे कि वे इस तरह के काम कैसे करवाएंगे।
वे अपनी कंपनी में भी इन्हें नियुक्त कर सकते हैं या किसी अन्य कंपनी से आउटसोर्सिंग पर लाएंगे। इन तकनीकी कामगारों की सेवा शर्तें क्या होंगी, उनका पारिश्रमिक क्या होगा, यह कर्मचारी और कंपनी के बीच का मामला होगा।
इतना तो मान ही लेना चाहिए कि रेलवे इस ग्रेड के अपने स्थायी कर्मचारियों को जो वेतन और सुविधाएं देता रहा है, निजी कंपनियां उससे बहुत ही कम पर आउटसोर्स हुए कर्मचारियों से काम लेंगी। सेवा सुरक्षा और अन्य सुविधाएं तो भूल ही जाइए।
जैसे, एक खबर में कहीं देखा कि लखनऊ रेल मंडल में इसी तरह की नियुक्ति प्रक्रिया के तहत जो तकनीकी पदों पर नियुक्तियां होने वाली हैं, उनमें एसी मैकेनिक, जो ट्रेन के साथ चलेगा, उसके लिए कोई बर्थ तय नहीं किया गया है। वह लगातार खड़ा रहेगा और थक जाने पर कहीं पर भी थोड़ी देर बैठ कर सुस्ताने का जुगाड़ खुद लगाएगा। उसके लिए रेलवे स्टेशनों पर भी कोई तय व्यवस्था नहीं रहेगी, जहां वह आराम कर सके या कपड़े आदि बदल सके। वहां भी वह खुद ही कुछ जुगाड़ लगाएगा या फिर, आराम नहीं करेगा, कपड़े आदि नहीं बदलेगा।
रेलवे के कर्मचारी बेहतर बताएंगे कि अभी तक ऐसे कर्मचारियों के लिए कैसी व्यवस्था काम करती रही है। लेकिन, निजी कंपनियां इन निचले तबके के कामगारों की सुविधा पर अपना खर्च क्यों बढ़ाएं?
तकनीकी शिक्षा में डिप्लोमा होल्डर और आईटीआई किए लोगों के लिए रेलवे एक बड़ा सेवा प्रदाता रहा है। स्थायी नियुक्ति, सेवा सुरक्षा, काम की बेहतर परिस्थितियां, बेहतर वेतन इस तरह की डिग्री प्राप्त नौजवानों को रेलवे की ओर आकर्षित करता रहा है।
आगे भी ऐसे कर्मचारियों की भर्ती बड़े पैमाने पर होती रहेगी, बल्कि इन भर्तियों की संख्या और बढ़ेंगी, क्योंकि एसी ट्रेनों और एसी बोगियों की संख्या दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है। दूर दराज के इलाकों में भी रेलवे के इलेक्ट्रिफिकेशन का काम चल रहा है तो उधर भी ऐसे लोगों की जरूरत बढ़ती जाएगी।
जाहिर है, तकनीकी कामगारों को रोजगार तो मिलेगा, लेकिन सुरक्षा और सुविधा के मामले में ऐसे रोजगार की गुणवत्ता वह नहीं होगी जो होनी ही चाहिए।
अमेरिका में हाल में ही एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए वहां के चर्चित राजनीतिक नेता बर्नी सैंडर्स ने आरोप लगाया कि निजी कंपनियां निचली पायदान के अपने कर्मचारियों को इतना कम वेतन देती हैं कि उसमें उनका गुजारा चलना मुश्किल होता है और अपने जीवन यापन के लिए वे बहुत हद तक सरकार की कल्याणकारी योजनाओं पर निर्भर रहते हैं। इन योजनाओं को चलाने के लिए मध्यम वर्ग से बड़े पैमाने पर टैक्स लिया जाता है।
यानी...कर्मचारी जी तोड़ मेहनत करें निजी कंपनियों के लिए और उनके जीवन यापन के लिए टैक्स पेयर्स के पैसे खर्च हों।
सैंडर्स ने बताया कि वालमार्ट और अमेजन जैसी वैश्विक कंपनियां भी इस लिस्ट में शुमार हैं जो निचली पायदान के अपने कर्मचारियों को इतना भी वेतन नहीं देती कि वे अपना और अपने परिवार की न्यूनतम जरूरतों को पूरा करते हुए सम्मानजनक जीवन जी सकें।
भारत भी तेजी से उसी रास्ते पर बढ़ता जा रहा है। किसी मॉल में जाइए। सर..सर करता मॉल का जो कर्मचारी आपकी और मुखातिब होगा, उसकी माली हालत पर जरा गौर करिए।
कितने घंटे की ड्यूटी है उसकी, कितना वेतन है उसका, वेतन के अलावा और क्या सुविधाएं उसे मिल रही हैं...?
ऐसे लाखों कर्मचारियों का परिवार मुफ्त राशन वाली योजनाओं का हिस्सा है। मुफ्त राशन, मुफ्त सिलेंडर आदि योजनाओं का खर्च नागरिकों के टैक्स से पूरा होता है।
मतलब, मॉल का मालिक किसी नौजवान से हाड़तोड़ मेहनत करवाएगा, उसे न्यूनतम छुट्टियां देगा, उसके कल्याण की न्यूनतम शर्तों को भी पूरा नहीं करेगा...और उसका परिवार टैक्स पेयर्स के पैसे से मुफ्त की योजनाओं का लाभार्थी बनेगा।
सरकारें इन योजनाओं का श्रेय लेंगी और वोटों की फसल काटेंगीं।
यानी, सुविचारित तरीके से ऐसी आर्थिक संस्कृति विकसित की जा रही है जिसमें कामगारों का शोषण तो होगा ही, टैक्स पेयर्स के पैसों का भी दुरुपयोग होगा और दोनों हाथों से माल बटोरेंगी निजी कंपनियां।
अब, यह संस्कृति रेलवे में भी आने लगी है, निजीकरण से प्लेटफार्म चकमक बनेंगे, तकनीकी सुविधाओं से लैस ट्रेनों की संख्या बढ़ेगी, ग्राहक सेवा की गुणवत्ता बढ़ाई जाएगी...और...इस ऊपरी चमक-दमक की तलहटी के अंधेरों में कामगारों का भयानक शोषण होगा।
नागरिकों के टैक्स से अस्पतालों और स्कूलों की दशा सुधारने के बदले उन शोषणग्रस्त कर्मचारियों के परिवारों को सरकारी कल्याणकारी योजनाओं के तहत जोड़ा जाएगा जो अपना समय और अपना खून पसीना निजी कंपनियों के लिए लगाएंगे।
भारत में विशाल निर्धन तबके की आर्थिक स्थिति में सुधार का कोई अपेक्षित निष्कर्ष नजर नहीं आ रहा लेकिन बड़े कंपनी मालिकों की संपत्ति में दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ोत्तरी हो रही है।
इस रहस्य का एक जवाब यह भी है कि टैक्स पेयर्स के पैसों से चल रही गरीब कल्याण योजनाओं के लाभार्थी परिवारों के नौनिहाल अपना श्रम और अपना पसीना उन कंपनी मालिकों की संपत्ति को बढ़ाने के लिए बहा रहे हैं।
अच्छा है, अग्निवीर योजना के तहत अब कंपनियों को सुरक्षा गार्डों के लिए "सेना से चार वर्षों में रिटायर" प्रशिक्षित युवक मिलेंगे।
उनके प्रशिक्षण पर ख़र्च सरकार का होगा, जो प्रकारांतर से टैक्स पेयर्स देंगे।
बच्चों की कॉपी-पेंसिल पर भी जीएसटी यूं ही नहीं लगाई जा रही।
सरकारी खर्च पर प्रशिक्षित लेकिन भरी जवानी में रिटायर ये अग्निवीर निजी सुरक्षा एजेंसियों की नौकरी में जाएंगे और वे इनसे लाभ कमाएंगी, या अडानी के एयरपोर्ट्स और रेलवे स्टेशनों पर सरकारी प्रशिक्षण प्राप्त ये जवान सुरक्षा का काम देखेंगे।
और इनका वेतन...? यह सरकार का टेंशन नहीं। जानें रिटायर अग्निवीर और जानें कंपनी मालिक।
बाकी, गरीबों के लिए मुफ्त की सरकारी योजनाएं तो हैं ही। इन अग्निवीरों का परिवार उन पर आश्रित होगा और टैक्स का बोझ बढ़ता ही जाएगा, बढ़ता ही जाएगा।
हमारे देश की आर्थिक संस्कृति और कार्य संस्कृति दिन ब दिन कामगार विरोधी बनती जा रही है।
पीढ़ियों के संघर्षों से हासिल अधिकार छीने जा रहे हैं और देश की युवा आबादी की तीन चौथाई इस अमानवीय बनती संस्कृति की शोषण प्रक्रिया में पिसने के लिए अभिशप्त होती जा रही है।
इसकी सबसे निरीह शिकार हैं निचले दर्जे की कामगार महिलाएं, जिनके लिए मातृत्व भी एक अभिशाप बन जाता है क्योंकि उन कामगार महिलाओं को न मातृत्व अवकाश मिलता है, न इतना पारिश्रमिक, कि वे उचित पोषण प्राप्त कर सकें।
पता नहीं, स्वतंत्रता दिवस के अपने भाषण में प्रधानमंत्री जब महिलाओं की गरिमा पर बोल रहे थे तो उनके दिमाग में इस कोटि की महिलाओं से जुड़े मामले थे या नहीं।
भाषण झाड़ना बहुत आसान है और माननीय मोदी जी इसमें निपुण हैं। वे अपने भाषणों में दो करोड़ नौकरियां प्रतिवर्ष तो शुरू से ही दे रहे हैं, किसानों की आमदनी भी दुगुनी कर रहे हैं।
लेकिन, हो यही रहा है कि अनाप-शनाप टैक्स बढ़ा कर किसान सम्मान योजना के नाम पर किसानों को छह हजार रुपए सालाना दे कर खुद की पीठ थपथपा रहे हैं और अंध समर्थकों से तालियां पिटवा रहे हैं।
इस नई सदी का अगर सबसे जरूरी सवाल कोई है तो क्या है?
वह सवाल है, भारत के विशाल कामगार वर्ग और भविष्य के कामगारों में शामिल होने वाले युवा वर्ग की चेतना इतनी सुप्त कैसे हो गई?
वे इस कार्य संस्कृति और आर्थिक व्यवस्था में अपने हित और अहित के बारे में सोचने के नाकाबिल कैसे हो गए? उनके संगठन मृतप्राय क्यों हो गए?
इन सवालों से युवा वर्ग चेतना के स्तरों पर जुड़े नहीं, इसके लिए कारपोरेट संपोषित सत्ता-संरचना तमाम दुष्चक्र रचती है।
जाहिर है, इसमें वह सफल भी है। तभी तो, भारत दुनिया में सबसे अधिक बेरोजगार युवाओं का देश है, इतना कम वेतन पाने वाले कामगारों का देश है...और...ऐसा देश भी है जिसके अरबपतियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है।
लेखक पटना यूनिवर्सिटी में एसोशिएट प्रोफेसर हैं।
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