राहुल सांकृतयन।
12वीं फेल, ग्रेजुएशन फेल और पोस्ट ग्रेजुएशन के संघर्षों की कहानी पर बनी फिल्में कहीं न कहीं हमारे बच्चों के सुसाइड की जिम्मेदार हैं.
गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में यह फिल्में, अभिभावकों द्वारा बच्चों को परेशान करने का जरिया है. कि देखो... उसको कुछ नहीं मिला और तुमको ये मिल रहा वो मिल रहा है... तुम कहां... वो कहां...! सीखो कुछ सीखो...!
जिस फिल्म को देखकर दुनिया भावुक है और संघर्षों के नए दास्तां लिखे जा रहे हैं, उसके बारे में सबसे बेसिक सवाल यह है कि अगर फिल्म में इतनी ही ईमानदारी है तो क्यों नहीं उस विधायक का नाम ले लिया गया जिसके स्कूल में चीटिंग होती थी?
क्रिएटिविटी के नाम पर आकर्षक और सुविधाभोगी छूट लेने वाले निर्देशक और कलाकार अगर वास्तव में समाज के लिए, समाज के किसी हिस्से की फिल्म बना रहे हैं तो वो अधूरा सच क्यों दिखाते हैं?
ऐसी फिल्में समाज के लिए आईना नहीं बोझ हैं. हो सकता है आप इसे स्वीपिंग रिमार्क मान लें लेकिन मेरी नजर में यही अंतिम सत्य है.
संघर्ष सबके जीवन में होता है. हर एक सेकेंड करोड़ों कमा रहे आदमी के जीवन का भी अपना संघर्ष है कि उसे उस चोटी से नीचे नहीं आना है जहां वह पहुंच गया है.
संघर्ष उस व्यक्ति के जीवन में भी है जो अभी पहाड़ के सबसे निचले या मध्यम पायदान पर भी नहीं है.
Comments