रजनीश जैन।
कमीशनखोरी को क्या उपमा दी है सागर के प्रथम नागरिक ने। हम चाहते हैं व्यवस्थाऐं चलती रहें, हमें कछू नइ चइये। कुआ को पानी कुअई में जाए।'
बुंदेलखंड के मुहावरों को समझिए। प्राथमिक स्कूलों की क्लास में हम काले पत्थर की स्लेट पर खड़िया की पेंसिल से लिखते थे। हर बार जब स्लेट हमारी गूदागादी से भर जाती थी। इसके पहले कि शिक्षक अगला कुछ बोलें हमें अपनी स्लेट पानी साफ कर लेना होती थी। तब हम बच्चे स्लेट पर अपनी किताब या बुश्शर्ट के कोनों से हवा करके यही मुहावरा गाते थे 'कुआ को पानी कुअई में जाऐ...तला को पानी तलई में जाऐ... नदी को पानी नदिया में जाऐ...' यह स्लेट सूखने तक कहना होता था। बिना यह उचारे भी गीली स्लेट सूख सकती थी लेकिन इस एकलगान से समय का पता नहीं चलता था और एक तरह की दार्शनिक सीख मिलती थी कि प्रकृति महान है वह अपना दिया हुआ सब वापस ले लेती है।
दिलीप सिंह जू देव के ऐतिहासिक रहस्योद्घाटन ' पैसा खुदा तो नहीं लेकिन खुदा से बढ़के भी नहीं ' के बाद सागर के प्रथम नागरिक के कथित मुखारबिंद से निकले कुए के पानी वाले संवाद ने नये शब्द संस्कार दिऐ हैं।...मैं कल से ही उन परस्थितियों के बाबत चिंतनरत हूँ कि कैसे एक नवोदित नेता को दो ढाई साल में ही राजनीति के सत्य से साक्षात्कार हो गया।
राजनीति एक इंतजामिया का नाम है, यह एक सिलसिला है जो उल्टे पिरामिड की तरह है। सबसे नीचे नागरिक है जिससे विकास की लालीपाप दिखाकर टैक्स, कमीशन और घूस बटोरना ही शासन है। शासन राजनीति से बनता है । यह दोनों चीजें ईश्वर की तरह कण कण में व्याप्त हैं। कचरे और पाखाने से लगा कर हवा, पानी भी उनका है। वे आपकी अंटी ढीली करा ही लेंगे। खुद बदनामी सहेंगे लेकिन कुआ का पानी कुआ में ही भेजेंगे।
यह कुआ बहुत गहरा है जो कभी नहीं भरता। सागर से वाया भोपाल दिल्ली जितनी गहराई है इसकी। जनता से इकट्ठा किया गया पानी दिल्ली से इसी मार्ग से उड़ेला जाता है। आप फर्जी बिलिंग, मैन्यूप्लेशन वगैरह की गूदागादी अपनी काली स्लेट पर निरंतर करिऐ। फिर उसमें से थोड़ा सा पानी मीडिया नामक डिस्टिल्ड वाटर पर खर्च करिऐ। राजनीति और सरकार की स्लेटें इसी निर्मल जल से उजली दिखती हैं।
बीच—बीच में उचारिऐ कि निगम का पानी सतपुड़ा, विंध्याचल और पर्यावास भवन जाऐ, इन भवनों का पानी वल्लभ भवन जाऐ, वल्लभ भवन का पानी प्रदेश पार्टी कार्यालय जाऐ और इसी क्रम में नार्थ एवेन्यू, साऊथ एवेन्यू होता हुआ राष्ट्रीय कार्यालय तक जाए। यही क्रम है कुए से समुद्र तक का।जाँचें, आयोग और कमेटियां सब इसी व्यवस्था का अंग हैं। ये छोटे छोटे झरने और पोखरें हैं जिनमें जुगाली करती जाँच एजेंसियों की भैंसे पड़ी रहती हैं। राजनीति ही तय करती है कुआ किसके हवाले किया जाऐ। लेकिन यदि इस भ्रम में हों कि कुआ और उसका पानी आपके लिऐ है तो इसे बनाऐ रखिऐ,क्योंकि हम इसी लायक हैं कि रूपया देकर नालियों के बीच पड़े पाइपों से आ रहा दूषित जल पिऐं। हम अमीबाईसिस के आदी हो चुके हैं।
लेखक मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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