हिल रहा है देश कुत्सा के जिन आघातों से! दिनकर आज कविता सुनाते तो क्या होता

खरी-खरी            Mar 04, 2017


पुण्य प्रसून बाजपेयी।
आजादी और देशद्रोह। लेकिन आजाद होने के बाद किससे देशद्रोह? ये सवाल उठेगा जरुर क्योंकि, जो छात्र सड़क पर आजादी के नारे लगा रहे हैं, वे देश से नहीं करप्ट सिस्टम और करप्ट राजनीतिक व्यवस्था से आजादी चाहते हैं। जो आजादी के शब्द में देशद्रोह की महक देख रहे हैं, वह सरकार के खिलाफ आजादी के नारे को बगावती तेवर मान रहे हैं। तो क्या वाकई देश में देशद्रोह को नये तरीके से परिभाषित करने की जरुरत आन पड़ी है? क्योंकि सच तो यही है कि सैडीशन लॉ यानि देशद्रोह कानून एक उपनिवेशीय कानून है जो ब्रितानी राज ने बनाया था। लेकिन भारतीय संविधान में उसे अपना लिया गया था और भारतीय कानून संहिता के अनुच्छेद 124 A में देशद्रोह की परिभाषा दी गई है । जिसमें लिखा है कि अगर कोई भी व्यक्ति सरकार-विरोधी सामग्री लिखता है या बोलता है या फिर ऐसी सामग्री का समर्थन भी करता है तो उसे आजीवन कारावास या तीन साल की सज़ा हो सकती है।

तो जब तक दुनिया में ब्रिटेन ने राज किया देशद्रोह कानून को अपनी संविधान से जोड़े रखा, लेकिन कभी किसी ब्रिटिश नागरिक को ब्रिटेन ने देशद्रोही नहीं करार दिया। 2010 में ब्रिटेन ने साफ किया कि देशद्रोह कानून सिर्फ गैर ब्रिटिश नागरिकों के लिये है। अमेरिका में भी देशद्रोह कानून गैर अमेरिकी नागरिकों पर ही लगाया जाता है। लेकिन आजादी के बाद भी भारतीय संविधान में देशद्रोह कानून को जगह मिलीऔर अपने ही देश के नागरिकों के खिलाफ देशद्रोह कानून लगाया जा सकता है ये भारत में कोई सवाल नहीं है बल्कि सवाल ये है कि क्या कश्मीर की आजादी के नारे को देशद्रोह माना जाये? क्या बस्तर की आजादी के नारे को देशद्रोह माना जाये? क्योंकि देशद्रोह कानून तो सिर्फ इतना ही कहता है कि सरकार कि खिलाफ कुछ भी लिखना-बोलना देशद्रोह है।

तो देशद्रोह की जो व्याख्या अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाते हुये की क्या वही परिभाषा आजादी के बाद लोकतंत्र तले चुनी हुई सरकार भी परिभाषित कर सकती है? क्योंकि इस दायरे में तो तमाम राजनीतिक दलों के सरकार विरोधी स्वर आ सकते हैं। लेखक-कवि-पत्रकारों का लेखन आ सकता है। यानी संविधान ही आम नागरिक को एक तरफ अभिव्यक्ति की आजादी देता है और दूसरी तरफ सरकार विरोध को विद्रोह या कहे राजद्रोह करार देता है। तो फिर नया सवाल ये भी है कि क्या संविधान की शपथ लने के बाद कोई मंत्री इस तरह के वक्तव्य दे सकता है? जैसा गृह राज्यमंत्री रिजीजू या हरियाणा के एक मंत्री ने दिया कि देश से बाहर निकाल देना चाहिये।

मंत्री कानून बनाता है, कानून का पालन सिस्टम से करवाता है। लेकिन जब मंत्री ही नेता की तरह वक्तव्य देने लगे तो मान लिजिये देशद्रोह कानून को परखा जाना जरुरी है। याद कीजिये अंग्रेजों ने भी देशद्रोह कानून का इस्तेमाल महात्मा गांधी के खिलाफ किया था। 10 मार्च 1922 को ब्रिटिश अदालत ने महात्मा गांधी के खिलाफ देशद्रोह का इल्जाम लगाते हुये 6 बरस कैद की सजा दी थी और देशद्रोह की वजह महात्मा गांधी का आजादी को लेकर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ असहयोग आंदोलन शुरु करना था। लेकिन फरवरी 1922 को चौरी चौरा कांड ने आंदोलन को हिसंक बना दिया तो महात्मा गांधी ने ना सिर्फ असहयोग आंदोलन वापस लिया बल्कि चौरी—चौरा की जिम्मेदारी लेते हुये खुद ही अदालत से गुहार लगायी कि उन्हें सबसे सबसे कड़ी सजा दी जाये।

तो क्या मौजूदा वक्त में आजादी के नारे तले राजद्रोह का सवाल उठाया जा सकता है? या फिर जिस लड़की ने बरस भर पहले प्लेकार्ड के जरीये अपने शहीद पिता के साये में युद्द का मूक विरोध किया। युद्द के इस मूक विरोध के तरीके को बरस भर बाद किसी दूसरी घटना से जोड़कर क्या देशद्रोह की व्याख्या तले गुलमेहर को भी लाया जा सकता है? या जेएनयू की दीवारों पर लगे इन पोस्टरों को देखकर कहा जा सकता है कि ये देशद्रोही छात्रों का अड्डा है? यानी एक तरफ देश की सबसे बेहतरीन यूनिवर्सिटी का तमगा जेएनयू के नाम, दूसरी तरफ दुनियाभर के आजाद ख्याल के साथ जुडने पर देशद्रोह। फिर याद कीजिये बिहार के एक गरीब परिवार से निकल कर जेएनयू में आजादी के नारे लगाता कन्हैया कुमार और उस आवाज के आसरे मौजूदा वक्त में खामोश राजनीति या मूकदर्शक बने लेखक-पत्रकार-कवि-समाजसेवी या सभ्रांत नागरिको में जागता विरोध के स्वर का मतलब है क्या?

तो क्या मौजूदा वक्त में सड़क से उठते सवाल ही परेशानी का सबब हैं? क्योंकि प्रदानमंत्री मोदी ने जिस अंदाज में सत्ता से ही जनता के सवाल ये कहकर उठाये हैं कि उनसे पहले की तमाम राजनीतिक सत्ता ने देश को लूटा ही है। तो ये आवाज लूटियन्स की दिल्ली तक के लिये इतनी अलग है कि झटके में देश में राजनीतिक शून्यता आ गई है। या कहें प्रदानमंत्री मोदी के सामानांतर कोई नेता खड़ा दिखता नहीं। ऐसे में तीन सवाल है, क्या पहला छात्र संघर्ष विपक्ष की राजनीति को सहला रहा है? दूसरा क्या छात्र संघर्ष से सडक की राजनीति संसद की बहस पर भारी है? तीसरा छात्र संघर्ष कहीं राजनीतिक विकल्प की शक्ल ना लेंले इससे घबराहट भी है। तो क्या आजादी और देशद्रोह की बहस पहली बार देश की संसदीय राजनीति को ही आईना दिखाने को तैयार है? या फिर चुनावी राजनीति ने हर पालिटिकल पार्टी को सियासी तौर पर इतना बंधक बना लिया है कि राजनीतिक विफलता के साये में आजादी और देशद्रोह पर भी बहस कराने की तैयारी है।

ऐसे में याद कीजिये दिनकर की कविता की चंद लाईन, हिल रहा है देश कुत्सा के जिन आघातों से / वे नाद तुम्हें ही नहीं सुनाई पडते हैं? निर्माण के प्रहरियों! तुम्हे ही चोरों के काले चेहरे क्या नहीं दिखाई पड़ते हैं? तो राष्ट्रकवि दिनकर ने नेहरु की सत्ता को लेकर लिखा था। कल्पना कीजिये नेहरु के कहने पर बकायदा राज्यसभा में रेशमी नगर नाम की इस कविता का पाठ दिनकर ने किया।

अब सवाल है कि मौजूदा वक्त में कोई कवि इस तरह लिखेगा तो क्या होगा? सोशल मीडिया से लेकर टीवी स्क्रीन पर ही नहीं बल्कि सरकार भी उसे देशद्रोह तो करार दे ही देगी और लोकतंत्र के मंदिर यानी संसद का अपमान इसे माना जायेगा। तो क्या मौजूदा मामला सिर्फ सहिष्णुता या असहिष्णुता का है? या फिर एक ऐसी राजनीतिक शून्यता का जिसमें सत्ता का इशारा भर किसी को लाभ पहुंचाकर देशभक्ति का तमगा दे देता है या देशद्रोह करार देकर एक ऐसे चक्रव्यूह में उलझा देता है जहां गुरमेहर सरीखी लडकी को दिल्ली छोड़नी पड़ती है। उसकी मां से लेकर दादा तक की आंखों में खौफ के आसू रेंगते हैं कि कहीं कुछ गलत उनकी बेटी के साथ ना हो जाये। तो क्या देशद्रोह को लेकर जो आवाज हरियाणा के मंत्री तक उठा रहे हैं वह संविधान से अनजान है? या फिर सुप्रीम कोर्ट के फैसले तक की जानकारी उन्हें नहीं है। या फिर सोशल मीडिया को भी राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना हर नेता-मंत्री सीख गया है।

बरस भर पहले ही तो सुप्रीम कोर्ट ने देशद्रोह की साफ व्याख्या की, "देशद्रोह की धाराएं तभी लगाई जा सकती हैं जब किसी अभियुक्त ने हिंसा करने के लिए लोगों को उकसाया हो या फिर जनजीवन प्रभावित करने की कोशिश की हो।" सुप्रीम कोर्ट ने 1962 के केदारनाथ बनाम बिहार सरकार के मामले का हवाला दिया है और बकायदा कहा कि 'सेडिशन' यानी देशद्रोह के मामले की सुनवाई करने वाले निचली अदालतों के जजों और मजिस्ट्रेटों के साथ साथ पुलिस अधिकारियों को भी संविधान पीठ के फैसले के बारे में जानकारी रहनी चाहिए। तो फिर जेएनयू या डीयू के नारों के अक्स में ही सुप्रीम कोर्ट की देशद्रोह की व्याख्या कहां फिट बैठती है और ये सवाल क्यों उठा कि देशद्रोह को लेकर नये कानून की बात सरकार सोचे।

यानी मोदी सरकार के कैबिनेट स्तर के मंत्री वैंकया नायडू जब ये जानते हैं कि कानून मंत्रालय और गृह मंत्रालय को ही इसपर काम करना है और संयोग से दोनों ही मंत्री आज पूर्वी यूपी के चुनाव प्रचार में व्यस्त हैं। फिर इस सवाल को उठाने का मतलब है क्या? यानी कानून बनाने वाले मंत्री सिस्टम को ठीक से चलाने की जिम्मेदारी लिये मंत्री की रुचि छात्रों के बयान और सोशल मीडिया के हंगामे तले देशभक्ति या देशद्रोह के दायरे में क्यों सिमट रही है? क्या ये सिर्फ जनता से जुड़े मुद्दों से ध्यान हटाने के लिये है? वोटों का ध्रुवीकरण कर चुनाव पर असर डालने के लिये है। छात्रों के आसरे अपनी उपयोगिता बनाये रखने के लिये है। जो भी हो लेकिन राजनीतिक अंधेरा ही कैसे देश के लिये उजाला है। इसका खुला नजारा फिलहाल आजादी के नारे तले देशद्रोह करार दिये जाने की आवाज का है।



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