राजीव यादव।
ये धर्म है, शब्द है या फिर संस्कृति। जो भी हो, इनसे मेरा वास्ता तकरीबन दस साल का है। अजान के बारे में पहली बार अप्रैल 2008 में तब मालूम चला जब मड़ियाहूं के मरहूम मौलाना खालिद मुजाहिद की आतंकवाद के नाम पर की गई गिरफ्तारी के बाद देर शाम के एक प्रोग्राम के दौरान एकाएक माइक बंद करने को कहा गया। तो मालूम चला की मस्जिद से वक्त-वक्त पर निकलने वाली आवाज अजान के वक्त तेज आवाज नहीं करनी चाहिए। यहीं पहली बार खालिद के चचा जहीर आलम फलाही ने फजर-मगरिब जैसे शब्दों से भी परिचय कराया।
19 सितंबर 2008 को जब बाटला हाउस में फर्जी मुठभेड़ हुई, रमजान चल रहा था। उसको लेकर जो इमोशनल सेंटीमेंट संजरपुर, सरायमीर समेत पूरे आजमगढ़ में दिखा। उससे मालूम चला कि यह धार्मिकता के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण है। कितना महत्वपूर्ण है, इस बात के बारे में 2013 में खालिद मुजाहिद की मौत के बाद के धरने के दौरान रमजान पड़ जाने के दौरान मालूम चला।
खैर सितंबर 2008 में चांद मुबारक का पहला मैसेज सिमी के अध्यक्ष शाहिद बदर फलाही ने भेजा जो कुछ इस तरह का था कि जब हमारे घर के चिरागों को बुझा दिया गया तो कैसे हम ईद की खुशियां मनाएं... चांद मुबारक हो। कुछ इसी तरह का था। जिसको मैंने एक सामान्य मैसेज की तरह लिया यानी कोई त्योहार के मैसेज के बतौर भी नहीं और जब दूसरे दिन इस मैसेज बारे में एक स्थानीय हिन्दी दैनिक में सनसनी खेज खबर पढ़ा कि सिमी का अध्यक्ष मैसेज भेज रहा है तो इसका मतलब समझ में आया कि कैसे किसी त्योहार पर भेजे जाने वाले मैसेज को अपराध के बतौर मीडिया प्रचारित करती है।
ठीक इसी दौरान अलविदा जुमा और ईद के दिन काली पट्टी बांधकर नमाज पढ़ने की बात तारिक भाई ने बताई। पहले तो मुझे यह समझ में नहीं आया और जब आया तो यह कि इंसाफ के लिए ये विरोध का एक तरीका है। उसी वक्त एक और विरोध का तरीका मीडिया द्वारा आजमगढ़ को बदनाम करने के खिलाफ निकाला गया कि अफवाह फैलाने वाले पत्रकारों से अपील है कि यहां न आएं लिखे बैनर लगाए जाएं।
ईद के दिन विरोध के इस तरीके को देखने के लिए सोचा कि संजरपुर पहुचूंगा क्योंकि वहीं एक गांव था जहां के मुस्लिम समुदाय के लोगों से परिचय था पर जब पहुंचा तब तक देर हो गई थी क्योंकि यह नहीं मालूम था कि इतनी सुबह ही नमाज हो जाती है। खैर तारिक भाई, मसीहुद्दीन साहब, गुलाम अंबिया भाई, सालिम दाउदी साहब आदि को काली पट्टी बांधे देखा।
आज जब देश में फिर से भारत और भारत के बाहर मुसलमान काली पट्टी बांधकर नमाज पढ़ रहा है या पढ़ने जा रहा है तो इस बात पर गौर करना होगा कि एक खास विचार धारा कैसे किसी समुदाय को इतना मजबूर कर दे रही है कि उसे अपने त्योहार को मनाने के दौरान भी काली पट्टी बांधकर विरोध करना पड़ रहा है। इसे सिर्फ भीड़ तंत्र कह देना काफी न होगा। जो इसे भीड़तंत्र कह रहे हैं दरअसल वो ऐसा कहकर जाने अनजाने में बाटला हाउस जैसी घटनाओं के पुलिस के गुनाहों और तत्कालीन सरकार के गुनाहों को छुपाना चाहते हैं।
हमने नहीं देखा पर ऐसा कहना है की ठीक ऐसे ही बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद भी काली पट्टी बांधकर नमाज अदा की गई और आज भी हर 6 दिसंबर को फैजाबाद में काली पट्टी बांधकर नमाज अदा की जाती है। दो दशकों बाद भी फैजाबाद की गलियों में मुस्लिम दुकानें विरोध में बंद रहती हैं।
2013 में खालिद मुजाहिद की हत्या के बाद चल रहे धरने के दौरान बाराबंकी के मरहूम सूफी उबैदुर्ररहमान ने कहा कि आज जिस हुकूमत की नाइंसाफियों के खिलाफ दुआ मांग रहे हैं, ऐसी ही दुआएं कभी इसकी इंसाफ पसंन्दी के लिए भी मांगी गईं। उस साल भी ईद के दिन काली पट्टी बांधकर नमाज अदा की गई थी।
माना कि इस्लाम के बारे में मुझे बहुत कुछ उस वक्त मालूम नहीं था या अब भी नहीं है। ठीक उसी तरह जिस तरह से हिंदू धर्म के बारे में नहीं है। जरुरत के मुताबिक जानने की कोशिश रहती है पर कभी रुचि भी नहीं रही। और जहां तक धर्म के प्रति सम्मान का सवाल है तो मुझे नहीं लगता है कि इसके लिए कोई विशेष किसी बच्चे की परवरिश की जरुरत होती है। यह एक काॅमन सेंस है।
पर पिछले दिनों जब अयोध्या गया था तो वहां बंद मुस्लिम दुकानों के बगल में खुली हिंदू समुदाय के लोगों के दुकानों को देखा तो लगा कि क्या सुख-दुख बांटने वाली बात अपने-अपने धर्मों के लोगों तक ही सीमित है।
हिंसा को किसी परिवार या समाज की परवरिश से जोड़ देने की एक राजनीति है। जिसे हमारे यहां किसी जाति या नस्ल के रुप में देखा जाता है। जबकि निचले स्तर की जिन जातियों द्वारा मुस्लिम समुदाय पर हमले की बात होती है वह उन जातियों का नहीं बल्कि राज्य का हमला होता है। उसे साफ तौर पर स्टेट वर्सेज मुस्लिम कहा जा सकता है। इसको 2008 के दौरान पूर्वी उत्तर प्रदेश में वर्तमान मुख्यमंत्री तत्कालीन गोरखपुर भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ की आतंकवाद के खिलाफ हिन्दू चेतना रैलियों में देखा जा सकता है।
यह वही दौर था जब एक तरफ योगी आदित्यनाथ आजमगढ़ को आतंकवाद का गढ़ बता रहे थे और उसी दरम्यान आतंकी घटनाओं से जोड़कर आजमगढ़ के मुस्लिम समुदाय के लड़कों को उठाया जा रहा था। इसे महज इत्तेफाक न समझा जाए कि उसी आजमगढ़ में 7 सितंबर 2008 को आतंकवाद के खिलाफ हिन्दू चेतना रैली होती है और 19 सितंबर को संजरपुर आजमगढ़ के लड़कों का बाटला हाउस में एनकाउंटर। यानि एक तरफ योगी आतंकवाद के खिलाफ हिंदुओं में ‘चेतना’ का विस्तार कर रहे थे और ठीक उसी वक्त राज्य आतंकवाद के नाम पर आजमगढ़ के लोगों का फर्जी एनकाउंटर कर उस चेतना को एडेªस कर रहा था कि तुम्हारा दुश्मन किसी सीमा पर नहीं बल्कि तुम्हारे गांव-कस्बे का है। अब यह मत कह दीजिएगा कि उस वक्त भाजपा की सरकार नहीं थी यही तो इस पूरे विचार प्रक्रिया की जीत है कि यह मुस्लिम विरोध के नाम पर हर दौर में फलती-फूलती है।
इसी तरह अखलाक को मारने वाला ‘भीड़तंत्र’ ठीक बिहार चुनावों के वक्त उस घटना को अंजाम देता है और 2014 उपचुनावों के वक्त लव जेहाद का मुद्दा पश्चिमी यूपी में उठता है।
मुजफ्फरनगर, गुजरात जैसी सांप्रदायिक हिंसाओं के बाद जहां इस बात को कहा जाता है कि राज्य का सीधा हमला मुसलमानों खिलाफ है। वहीं लगातार मोहसिन शेख के कत्ल से शुरु होकर जो सिलसिला दादरी के अखलाक, झारखंड के मजलूम अंसारी, मिनहाज अंसारी, अलवर के पहलू खान, कामरेड जफर से होता हुआ फरीदाबाद के जुनैद और बंगाल के समीरुद्दीन, नासिर और नासिरुल तक आ पहुंचा है उसे भीड़तंत्र का हमला कहकर आप राज्य को बरी करने की कोशिश कर रहे हैं। जहां अब तक यही हमला हाशिमपुरा-मलियाना से लेकर जगह-जगह पीएसी-पुलिस-अर्धसैनिक बलों के जरिए राज्य करता था वही काम अब मेजारिटी पार्लियामेंटेरियन जीत के बाद उसका नागरिक कर रहा है। यानि राज्य ने अपने चरित्र को अपने नागरिक के चरित्र में रुपान्तरित कर दिया है।
बीती राम नवमी में लखनऊ में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का आना और उस राम लीला में आतंकवाद के रुप में रावण को दिखाना और पिछले दिनों राम नवमी के जुलसों के दौरान यूपी-बिहार के विभिन्न कस्बों-शहरों में मुस्लिम विरोधी हिंसा का होना एक हिंसक थाॅट प्रासेस का हिस्सा है। इसपर अपने आप को सेक्युलर कहने वाली पार्टियां भी चुप्पी मार जाती हैं। क्योंकि यह इस हिंसक प्रक्रिया को हिंदू धर्म से जोड़कर की जा रही है। इसे बड़ी आसानी से कहकर बचा जा सकता है कि यह तो एक धार्मिक आयोजन है पर सवाल है, इस धार्मिक आयोजन में आतंकवाद कहां से आ गया।
अपने खूनी विचारों से लैश इस हिंसक भीड़ के सामने आगे मुसलमान की आतंकवादी के रुप में छवि बनाई गई और उस आतंकी छवि को रावण से जोड़कर उसके खिलाफ युद्ध, हमले करने के लिए उसे तैयार किया गया। जबकि देखा जाए तो रावण इस्लामिक थाॅट प्रासेस का हिस्सा नहीं है। और मनुवाद विरोधी अनेक विचार इस बात की तस्दीक करते हैं कि मूल निवासियों को इस देश की व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर रखने वाली यह विचारधारा रावण को राक्षस के रुप में परिभाषित करती है। और वो इस बात को भी कहती है कि यह आदिवासी, दलितों, पिछड़ो, महिलाओं को इस व्यस्था में बद से बदतर स्थित में रखने का थाॅट प्रासेस है।
अब ऐसे में जब रावण हिंदू थाॅट प्रासेस का हिस्सा हैं तो आखिर किस राजनीति ने उसका इस्लामीकरण कर दिया? यह व्यवस्था मुसलमान को आतंकी के रुप में देखने की कोशिश करती है जिसकी तस्दीक सुप्रीम कोर्ट तक ने यह कहकर किया कि माई नेम इज खान बट आई एम नाॅट टेररिस्ट।
तो ऐसे में जब राम नवमी में रावण को आतंकवाद के रुप से स्थापित किया जाएगा तो इस विचार को आत्मसात कर चुकी भीड़ उसे समाज में खोजेगी भी और ऐसे में आतंकवाद का जो चेहरा मुस्लिम पहचान के साथ जोड़ा गया है उसको खींच-खींचकर मारेगी। क्यों कि उन्हें लैश किया गया है कि ये दाढ़ी-टोपी वाले मुसलमान देशद्रोही हैं, ये गाय खाते हैं, पाकिस्तान से मोहब्बत करते हैं। इसे सीखने के लिए किसी आरएसएस के कैंप की टेªनिंग की जरुरत नहीं है और जब बिहार के नवादा में कोई पुलिस या फिर झारखंड में पुलिस घर से खींचकर मार देती है तो उसका हौसला और बुलंद होता है।
और वो भी खुद को सीमा पर तैनात किसी सिपाही से कम नहीं समझती क्योंकि वह जिसको मार रही होती है उसके समुदाय पर विभाजन से लेकर देश के खिलाफ युद्ध के आरोप हर दिन लगते रहते हैं। इसीलिए किसी अखलाक या पहलू खान की हत्या के बाद उनपर भी मुकदमें दर्ज किए जाते हैं। ऐसा कर राज्य यह जस्टीफाई करने की कोशिश करता है कि भीड़ का हमला करने का इंटेशन सही था क्योंकि वह गाय काटते थे। ऐसे झूठे आरोप लगाकर वह जहां अपने को सेक्युलर कहने वाली पार्टियों को चुप करा देता है वहीं गाय को माता मानने वाली बहुसंख्यक आवाम की भावनाओं को भी संन्तुष्ट करता है।
इस पूरी प्रक्रिया को तैयार किया गया। आखिर 1980 में मुरादाबाद ईदगाह गोली कांड, हाशिमपुरा, मलियाना या ऐसे न जाने कितने सांप्रदायिक हिंसा की रिपोर्टों को क्यों आखिर राज्य दबाए हुए है या फिर हाशिमपुरा जनसंहार के दोषी पुलिस वालों को क्यों बरी कर देता है। दरअसल ऐसा करके वह लगातार उसकी भयावहता को हर कीमत पर बनाए रखना चाहता है। चाहे उसकी विश्वसनियता पर क्यों न सवाल उठ जाएं।
इसीलिए आप जांच लीजिए कि कितने लोगों को आज तक आतंकवाद के नाम पर छूटने के बाद राज्य मुआवजा दिया है। और तो और छूटने के बाद मीडिया के जरिए सूबूतों के आभाव में बरी होने की बात करता है। आखिर भारतीय राज्य को यह क्यों नहीं कभी लगा की वह एक बार माफी मांगे की उसने गलत किया वह इसलिए माफी नहीं मागेंगा क्यों कि ऐसा करके वह एक समुदाय के खिलाफ चल रहे षडयंत्र को कम कर देगा।
दरअसल मुस्लिम समुदाय पर हो रहे हमलों के बारे में अगर यह कहा जाए कि यह भीड़ ऐसा अनजाने में कर रही है तो यह गलत होगा। क्योंकि इस भीड़ को यह मालूम है कि कब वह अजान देता है, कब वह रोजा रखता है, कब वह बकरीद में कुर्बानी करता है और इसको वो ताक लगाए सही वक्त का इंतजार करके हमले करती है। जैसा की दादरी में अखलाक मामले में देखा जा सकता है। जहां उस भीड़ में शामिल हत्यारोपी अखलाक के बच्चों के साथ पढ़े-लिखे होने के बावजूद उनके पिता की हत्या कर देते हैं। इस पर रुक कर एक बार सोचिए कि क्या आप अपने उस दोस्त जिसके साथ पढ़े-लिखे हो उसके पिता की हत्या कर सकते हैं।
खैर हमें नहीं समझना की पूजा-पाठ, अजान-रोजा क्या होता है हमें सिर्फ इस बात का जवाब चाहिए कि बुलंदशहर के गुलाम मोहम्मद जिनके गांव के पूरे मुसलमान भाग रहे थे पर वे नहीं भागे क्यों कि उन्हें भरोसा था कि उन्हें कोई नहीं मारेगा आखिर उन्हें क्यों मार दिया गया।
ईद की खरीदारी करके लौट रहे बल्लभगढ़ के जुनैद के हत्यारोपी ने कहा है कि वो नशे में था उसके दोस्त ने कहा कि उनको मारों क्योंकि वो गाय खाते हैं और वे जुनैद और उसके भाईयों पर हमलावर हो गए। क्या मोहसिन शेख के हत्यारोपियों को जमानत देने वाला माननीय न्यायालय जुनैद के हत्यारोपीयों को भी यह कह कर जमानत दे देगा या बरी कर देगा कि उसे किसी और ने भड़काया था। इस ‘किसी और’ के द्वारा अंजाम दी जा रही घटनाओं के बारे में केन्द्रिय गृह सचिव राजीव महर्षि कहते हैं कि मीडिया बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रही है। दरअसल यह ‘कोई और’ कोई व्यक्ति नहीं बल्कि खुद राज्य है।
लेखक से संपर्क: 9452800752
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