जहां घर-घर हर-हर मोदी हुआ था वहां क्यों इतना पसीना बहाना पड़ा?

खरी-खरी            Mar 07, 2017


हरिशंकर व्यास।
तो वाराणसी में प्रचार खत्म हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनके कोई दर्जन मंत्री, दर्जनों सांसद, असंख्य भाजपा-संघ नेता, पदाधिकारी अपने-अपने ठिकाने लौट गए हैं या लौट रहे हैं। एक शहर और उसकी तीन विधानसभा सीटों को ले कर पिछले तीन दिनों में दिल्ली की सत्ता, हिंदु जन-मन के जननायक नरेंद्र मोदी की साख में जो कुछ हुआ है उसका कोर सवाल यह है कि सब आखिर हुआ क्यों? क्यों नरेंद्र मोदी को तीन दिन वाराणसी मथना पड़ा? क्यों उन्हें गलियों में घूमने की जरूरत हुई? भला जो काशी मई 2014 के हिंदू जनादेश की केंद्रबिंदु थी, जहां घर-घर हर, हर मोदी हुआ था वहां नरेंद्र मोदी, उनकी सरकार को क्यों इतना पसीना बहाना पड़ा?

जाहिर है नरेंद्र मोदी वजह जानते है! इस वजह को काशी के लोगों ने और खास कर हिंदुओं ने, पंडितों-ब्राह्मणों ने अपने-अपने हिसाब से बूझा हुआ होगा। काशी के लोगों ने नरेंद्र मोदी को नए अंदाज में समझा है तो मोदी ने भी काशी के मौजूदा मूड को बूझा है। तभी दोनों तरफ यह जिद्द बनी लगती है कि वे अपनी ताकत बता कर मानेंगे। अपन ने आज भी यह बूझने, समझने की कोशिश की कि नरेंद्र मोदी ने जब इतना दम लगाया है तो हवा बदली या नहीं? नरेंद्र मोदी, अमित शाह ने हर वह संभव कोशिश की है जिससे घर-घर बात धरे कि नरेंद्र मोदी का मतलब बनारस है। आस्थावान हिंदू है। यदि बनारस के पंडित, हिंदू ने नरेंद्र मोदी को आर्शीवाद नहीं दिया तो हिंदु मुंह दिखाने लायक नहीं रहंेगे!

हां, इसी बात को पैंठाने के लिए चार से छह मार्च के तीन दिनों में नरेंद्र मोदी- अमित शाह ने बनारस को मथा है। एक मायने में मोदी-अमित शाह 11 मार्च को काशी के नगरवासियों को गलत साबित करेंगे। मतलब काशी भले माने बैठी हो कि भाजपा के उम्मीदवार हार रहे हैं फंसे हुए हंै पर अंततः 11 मार्च को वे जीतंेगे। और यह बनारस के लिए भी चमत्कार होगा तो यूपी और देश के लिए भी। यों मीडिया, सार्वजनिक विमर्श, सट्टा बाजार सब मैनेज है। सबका एक ही लबोलुआब है कि भाजपा जीत रही है। नरेंद्र मोदी की आंधी पुख्ता है मगर इस सबके बावजूद नरेंद्र मोदी को तीन दिन वाराणसी में रोड शौ करना पड़ा या सत्ता-संगठन को पूरा दम लगाना पड़ा तो वह इस हकीकत को भी बताता है कि जमीन पर स्थिति कुछ और है। तभी उसे मन माफिक बनाने की आखिर तक हर संभव कोशिश हुई। तमाम मायावी अस्त्र चले गए।

पर यह नरेंद्र मोदी-अमित शाह बनाम उनके विरोधियों के बीच फर्क भी है। इस बात को जरा बारीकि से समझा जाए। अखिलेश यादव-राहुल गांधी, मायावती सबको अहसास है कि बनारस शहर और जिले में भाजपा फंसी हुई है। पर इन्होने काशी को उसके हाल पर छोड़े रखा। बनारस की लड़ाई की गंभीरता को नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने जिस बारीकी से समझा और उस अनुसार फिर तीन दिन जिस तरह काशी में अपने को झौंका वैसा कुछ संकल्प अखिलेश–राहुल गांधी नहीं बनाया। अखिलेश यादव और राहुल गांधी ने शनिवार को महज एक पूर्व निर्धारित रोड शौ किया और अगले दो दिन बनारस को उसके हाल पर छोड़ा। मगर नरेंद्र मोदी ने सबकुछ छोड़ वाराणसी पर फोकस बनाया। डेरा जमाया। तीन रोड शौ कर डाले। देश का प्रधानमंत्री काशी की गली-गली घूमा। बाहर का कोई व्यक्ति कल्पना नहीं कर सकता है कि नरेंद्र मोदी के शो, इवेंट के लिए बतौर संगठन प्रमुख अमित शाह ने कितने भारी संगठनात्मक, मीडिया प्रबंध किए। कार्यकर्ताओं, समर्थकों को एक-एक कर शहर से, अगल-बगल के जिलों से जैसे मोबलाइज किया वह इस बात का प्रमाणा है कि चुनाव लड़ना याकि इलेक्शनरिंग यदि सीखनी है तो भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह से सीखे।

ठीक विपरित अखिलेश यादव – राहुल गांधी को उनके प्रबंधकों ने समझाया कि प्रधानमंत्री बनारस में ही डेरा डाल बैठे हैं। माहौल बदल डाल रहे हंै तो आप लोग भी एक दिन और बनारस को दंे। एक और रोड शो करें या साझा प्रेस कांफ्रेस ही करें। लेकिन इन्होंने दूसरे जिलों, चुनाव क्षेत्रों की आखिरी दिन की जनसभाओं की चिंता की। ये वाराणसी की लड़ाई को प्रतिष्ठा का मुद्दा नहीं बना सके?

सो वाराणसी के माहौल में चार मार्च के अखिलेश-राहुल के सुपर रोड शौ के बाद के दो दिन नरेंद्र मोदी और भाजपा टीम के अपने थे। इन दो दिनों में भाजपा ने हर वह संभव कोशिश की जिससे काशी के लोगों में यह बात धर जाए कि नरेंद्र मोदी के जादू का जवाब नहीं है।

सो बनारस के अखाड़े पर नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने गणित, कैमेस्ट्री, जादू तीनों की मायावी व्यूहरचना पसारी है। विपक्ष याकि अखिलेश यादव- राहुल गांधी एक रोड शो कर सबकुछ जनता के सुपुर्द कर गए। सो बनारस में लड़ाई पक्ष-विपक्ष की नहीं है बल्कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह के मायावी मोहपाश बनाम जनता की समझदारी के बीच की है। 11 मार्च को देखने वाली बात यह होगी कि जनता के मन में पकी हुई बात नतीजों में फलीभूत होगी या जनता को मोहमाया में, हिंदू मर्द नेता के करिश्में में बांधने के आखिरी दिनों के टोटके गुल खिलाएंगे?

मेरी पुरानी थीसिस है कि चुनाव नतीजे लोगों के धीरे-धीरे पके मन से बने होते हैं। रोड शो, जनसभाएं और शौर चुनाव के उत्सव की खानापूर्ति वाली रस्मे है। रस्म और टोटकों से न हवा बनती है और न जनादेश आता है। इसलिए बनारस हो या उसके इर्दगिर्द का पूर्वांचल या पूरा उत्तरप्रदेश उसमें नतीजे लोगों के धीरे-धीरे पके मन से निकले हुए होंगे। और जब धीरे-धीरे पके होने का मामला होता है तो गाजियाबाद, मेरठ में पहले राउंड में जो था वह बनारस में न हो यह कैसे हो सकता है? तभी अपने लिए लाख टके का सवाल यही बना है कि पहले राउंड में जाट का मन जैसा पका हुआ था वैसा यदि बनारस के ब्राह्यण का भी पका हुआ है तो क्या कोई अंतरधारा तो नहीं है? मतलब काशी में भी वही खटका है जो मेरठ में था।

नया इंडिया से साभार


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