महेंद्र के सिंह।
पद्मिनी वैसे भी ऐतिहासिक चरित्र नहीं है, पद्मावत में की गयी जायसी की सिर्फ एक सुन्दर कल्पना है। मैं वैसे भंसाली को एक भोंडा और सतही कलाकार मानता हूँ पर जब एक काल्पनिक चरित्र का मामला है तो कोई भी स्वतंत्र है उसे लेकर कैसी भी उड़ान भरे। जैसे जेम्स बांड 007 को लेकर मौलिक रूप से सिर्फ 7 या 8 उपन्यास ही लिखे गए थे , पर बाद में कितने सारी कथाएं जोड़ ली गयीं और उन पर फिल्मे भी बनी। और यही नहीं, जेम्स बांड के चरित्र का spoof बनाते हुए बाद में Austin Powers श्रृंखला की 3 फ़िल्में भी बनायी गयीं जो बेहद लोकप्रिय हुईं, पर अगर उन्हें कोई भारतीय संस्कारों वाला व्यक्ति देखेगा तो बेहद अश्लील और भोंडा पायेगा, हास्यप्रद तो बिलकुल भी नहीं। पर ठीक है, अगर कोई चरित्र काल्पनिक है, किसी की धार्मिक आस्था से नहीं जुड़ा है तो कलाकारों को इतनी स्वतंत्रता तो मिलनी चाहिए कि वे अपनी रचनात्मकता का इस्तेमाल करते हुए उसमे कुछ अन्य प्रयोग कर सकें।
वैसे अच्छा होगा अगर आप बता सकें कि भारत के किस विश्वविद्यालय में इतिहास की कक्षा में पद्मिनी के बार में पढ़ाया जाता है या फिर किसी सर्वमान्य टेक्स्ट बुक का ही नाम बता दें। किसी के नाम पर बने हुए महल और किले और दन्त कथाएं उसके ऐतिहासिक होने के का सबूत नहीं होती हैं. जो लोग अयोध्या गए हैं वे जानते होंगे कि वहां सीता की रसोई बनी हुई हैं, दशरथ और लक्ष्मण का महल बना हुआ है तो क्या वे चरित्र ऐतिहासिक हो गए? अगर वे चरित्र ऐतिहासिक हो गए तो सुप्रीम कोर्ट में जहाँ कम से कम 90% हिन्दू न्यायाधीश हैं, और जाहिर हैं देश में लगभग इतने ही काबिल हिन्दू वकील होंगे को बाबरी मस्जिद को राम जन्मभूमि सिद्ध करने में इतना वक़्त क्यों लग रहा है?
देश में 51 शक्तिपीठें हैं - एक मेरे भी घर के पास है उत्तर प्रदेश में - देवी पाटन। इन सब शक्तिपीठों में कामाख्या मंदिर सबसे प्रसिद्ध है - तो क्या वे सब स्थान ऐतिहासिक हो गए? इतिहास में उतनी दूर भी न जाएँ, जो लोग 40 साल के ऊपर के होंगे वे जानते होंगे कि कैसे 80 के दशक में अचानक से एक नयी देवी का भारत में जन्म हो गया - नाम था संतोषी माता। उनके नाम पर न सिर्फ लोग व्रत रहने लगे बल्कि जगह-जगह पर मंदिर बन गए, पर इतिहास छोड़िये संतोषी माता का जिक्र तो किसी पुराण, वेद, स्मृति में भी नहीं है, अब संतोषी माता के मंदिर बने हैं तो क्या उन मंदिरों के होने से संतोषी माता की ऐतिहासिकता तो छोड़िये पौराणिकता भी सिद्ध हो गयी?
अरे सीधे-सीधे कहिये कि मामला भावना का है, इतिहास का हवाला मत दीजिये। इतिहास की एक प्रक्रिया है, तर्क पद्धति है, और हिंदुत्ववादी इतिहासकार जैसे रामशरण शर्मा भी पद्मिनी को फिक्शन मानते हैं। और अगर यह लिखा हुआ यह इतिहास इतना कष्टदायी लगता है और चुभता है तो यही मौका है बचे हुए २ सालों में नोट-बंदी करने के बजाय मोदी जी से कहकर अंग्रेजों के बनाये सारे गज़ेटियर, अल बरुनी से लेकर अब तक संग्रहीत किये गए हस्त-लिखित इतिहास को सामूहिक रूप से जलवा कर समाप्त कर दिया जाय। और अमर चित्र कथा में वर्णित कहानियों को ही इतिहास कह कर उस पर गर्व किया जाय - सिनेमा हाल में राष्ट्रगान गाकर देशभक्ति साबित करने वालों के लिए अमर चित्र कथाएं ही इतिहास हैं।
पता नहीं क्यों आजकल मॉडर्न हिन्दूवादियों के तर्क इस्लामिक अतिवादियों से प्रेरित होने लगे हैं कि इस्लामिक अतिवादी जाहिल हैं और क्रूर हैं तो हम भी वैसे ही बनेंगे। ऐसा क्या इस्लामिक अतिवादियों ने हासिल कर लिया कि हम भी वैसे ही बनना चाहते हैं ? आखिर उनकी तरफ देखने में क्या हर्ज़ है जो आधुनिक कला, साहित्य, संगीत, और विज्ञान को आज भी फलने फूलने दे रहे रहे हैं। Christians जो कभी आज के इस्लाम की तरह ही आततायी थे पर वे सभ्य होने की प्रक्रिया में हैं, काफी हद तक हुए भी हैं - उनके यहाँ देखें वे कैसे अपने मिथकों पर सभ्य तरीके से विमर्श करते हैं। आधुनिक फिल्मो के संसार में ऐसी कहानियों/इतिहास के घालमेल वाले चरित्रों पर ढेर सारी फिल्मे बनी हैं जिन्हें एक अलग genre के नाम से ही जाना जाता है - "Historical Fiction"। इसमें स्पार्टाकस से लेकर, Gladiator और Da Vinci Code जैसी फिल्मे भी शामिल हैं जिसमें जीसस क्राइस्ट के एक गुप्त विवाह से लेकर एक बेटी के बाप तक बनने का जिक्र है, उन सब फिल्मों को लेकर बहस जरूर हुई पर किसी ने किसी को थप्पड़ नहीं मारा। टाइटैनिक जैसी फिल्म जो सिर्फ 100 साल पुरानी एक सच घटना पर आधारित है उसमे भी मुख्य अभिनेत्री का करैक्टर फिक्शनल है, ऐसी कोई महिला उस जहाज में थी ही नहीं, पर किसी ने किसी को थप्पड़ नहीं मारा। पर हाँ अब हम चूँकि बामियान के बुद्ध तोड़ने वालो और सीरिया में पामाइरा के अवशेष तोड़ने वालों से मुकाबला करने लगे हैं तो फिर थप्पड़ ही क्या किसी फिल्मकार को गोली भी मार दें तो क्या, शायद यह सब देशभक्ति की श्रेणी में ही आता होगा।
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