संजय द्विवेदी।
समूची मानवता के लिए खतरा बन चुके खूंखार आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट के प्रति भारतीय युवाओं का आकर्षण निश्चित ही खतरनाक है। कश्मीर से लेकर केरल और अब गुजरात में दो संदिग्धों की गिरफ्तारी चिंतनीय है ही। आखिर आईएस के विचारों में ऐसा क्या है कि भारतीय मुस्लिम युवा अपनी मातृभूमि को छोड़कर, परिवार और परिजनों को छोड़कर एक ऐसी दुनिया में दाखिल होना चाहता है, जहां से लौटने का रास्ता बंद है। इंटरनेट के प्रसार और संचार माध्यमों की तीव्रता ने जो दुनिया रची है, उसमें यह संकट और गहरा हो रहा है। हमारे नौजवान अगर गुमराही के रास्ते पर चलकर अपनी जिंदगी को जहन्नुम बनाने पर आमादा हैं तो देश के बुद्धिजीवियों, राजनेताओं, अफसरों, धर्मगुरूओं को जरूर इस विषय पर सोचना चाहिए। सही मायने में यह वैश्विक आतंकवाद की वह नर्सरी है जिसमें मजहब के नाम पर बरगलाकर युवाओं को इसका शिकार बनाया जा रहा है।
गुजरात की घटना हमारे लिए एक चेतावनी की तरह है जिसमें इन संदिग्धों के तार सीधे बाहर से जुड़े हुए हैं और एक संदिग्ध की पत्नी भी उसे ऐसे कामों के लिए प्रेरित करती नजर आती है। हमें देखना होगा कि आखिर हम कौन सी शिक्षा दे रहे हैं और कैसा समाज बना रहे हैं। एक आरोपी के पिता का यह कहना साधारण नहीं है कि “मेरे लिए तो जहर पीने की नौबत है।” जो नौजवान बहकावे में आकर ऐसे कदम उठाते हैं उनके माता-पिता और परिवार पर क्या गुजरती है, यह अनुभव किया जा सकता है। पंथिक भावनाओं में आकर एक बार उठा कदम पूरी जिंदगी की बरबादी का सबब बन जाता है। हमें ऐसे कठिन समय में अपने नौजवानों को बचाने के लिए कड़े और परिणाम केंद्रित कदम उठाने होगें।
जहरीली शिक्षा पर लगे रोकः यह कहना बहुत आसान है कि कोई मजहब आतंक नहीं सिखाता। किंतु मजहब के व्याख्याकार कौन लोग हैं, इस पर ध्यान देने की जरूरत है। मजहबी शिक्षा के नाम पर खुले मदरसों में क्या पढ़ाया जा रहा है इसे देखने की जरूरत है। वहां शिक्षा दे रहे लोग सिर्फ शिक्षा दे रहे हैं या शिक्षा के नाम पर कुछ और कर रहे हैं, इसे देखना जरूरी है। पूरी दुनिया में आतंक का कहर बरपा रहे संगठनों से हमारे देश के युवाओं का क्या रिश्ता हो सकता है? वे कौन से कारण हैं जिनके कारण हमारी नई पीढ़ी उन आतंकी संगठनों के प्रति आकर्षित हो रही है? एक पराई जमीन पर चल रही जंग में हमारे नौजवान आखिर क्यों कूदना चाहते हैं? क्यों हमारे नौजवान अपनी जमीन और अपने वतन को छोड़कर सीरिया की राह पकड़ रहे हैं?
हम इसका विश्वेषण करें तो हमें कड़वी सच्चाईयां नजर आएगीं। भारत के सभी बड़े उलेमा और मुस्लिम धर्मगुरुओं ने आईएस की हरकतों को इस्लाम विरोधी बताकर खारिज किया है। आखिर क्या कारण है कि भारत के युवा मुस्लिम धर्मगुरूओं और उलेमा की राय न सुनकर आईएस के बहकावे में आ रहे हैं? यही नहीं कश्मीर में शुक्रवार को हो रहे प्रदर्शनों में आईएस का झंडा लहराने की प्रेरणा क्या है? ऐसे अनेक कठिन सवाल हैं,जिनके उत्तर हमें तलाशने होगें।
अपने बच्चों को बचाना पहली जिम्मेदारीः आतंकवाद की इस फैलती विषबेल से अपने बच्चों को बचाना हमारी पहली जिम्मेदारी है। हमारे बच्चे अपनी मातृभूमि से प्रेम करें, अपने भारतीय बंधु-बांधवों से प्रेम करें, हिंसा-अनाचार और आतंकी विचारों से दूर रहें, आज यही हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। हूरों के ख्वाब में वे आज की अपनी सुंदर जिंदगी को स्याह न करें, यह बात उन्हें समझाने की जरूरत है। हमारे परिवार, विद्यालय और शिक्षक इस काम में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। पंथ की सीमाएं उन्हें बतानी होगीं। जीवन कितना अनमोल है, यह भी बताना होगा। धर्म की उन शिक्षाओं को सामने लाना होगा जिससे विश्व मानवता को सूकून मिले। भाईचारा बढ़े और खून खराबा रोका जा सके।
आज हम आतंकवाद के लिए पश्चिमी देशों और अमरीका को दोष देते नहीं बैठे रह सकते। क्योंकि आतंकवाद के खिलाफ हमारी जंग भले ही भोथरी हो, अमरीका और पश्चिमी देश अपने तरीके से आतंकवाद के खिलाफ लड़ रहे हैं और सफल भी हैं। खासकर अमरीका और ब्रिटेन में आतंकी हमलों के बाद उन्होंने जो भी शैली अपनाई हो,वहां हमले नहीं हुए। दूसरी बात भारतीय राजनीति में विभाजनकारी और देशतोड़क शक्तियों का प्रभुत्व है, यहां देशहित से ऊपर वोट की राजनीति है। ऐसे में देश की एकजुटता प्रकट नहीं होती। एकजुटता प्रकट न होने से देश का मनोबल टूटता है और ‘एक राष्ट्र’ के रूप में हम नहीं दिखते।
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ है विश्वशांति का मंत्रः भारत के अलावा दुनिया में पैदा हुए सभी पंथ विस्तारवादी हैं। धर्मान्तरण उनकी एक अनिवार्य बुराई है, जिससे तनाव खड़ा होता है। विवाद होते हैं। दुनिया के तमाम इलाकों में मची मारकाट इसी विस्तारवादी सोच का नतीजा है। स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझना और अपने विचार को शेष पर लादने की सोच ने सारे संकट रचे हैं। दूसरों को स्वीकारना अगर दुनिया को आता तो हमारी पृथ्वी इतनी अशांत न होती। इसके विपरीत भारत विविधता और बहुलता को साधने वाला देश है। भारतीय भूमि पर उपजे सभी पंथ विविधताओं को आदर देने वाले हैं और वसुधैव कुटुम्बकम् हमारा ध्येय मंत्र है। हमारी सोच में सभी पंथ प्रभु तक पहुंचने का मार्ग है, हम ही श्रेष्ठ हैं- हम ऐसा दावा नहीं करते। दुनिया के सब विचारों, सभी पंथों और नवाचारों का स्वागत करने का भाव भारतीय भूमि में ही निहित है। इसे भले ही भारत और सनातन धर्म की कमजोरी कहकर निरूपित किया जाए, किंतु शांति का मार्ग यही है। हमने सदियों से इसलिए विविध विचारों, पंथों, मतों को संवाद के अवसर दिए। फलने-फूलने के अवसर दिए, क्योंकि शास्त्रार्थ हमारी परंपरा का हिस्सा है। शास्त्रार्थ इस बात का प्रतीक है कि सत्य की खोज जारी है, ज्ञान की खोज जारी है। “हमने सत्य को पा लिया” ऐसा कहने वाली परंपराएं शास्त्रार्थ नहीं कर सकतीं, क्योंकि वे विचारों में ही जड़वादी हैं। उनमें नवाचार संभव नहीं है, संवाद संभव नहीं हैं। अपनी आत्ममुग्धता में वे अंधेरे रचती हैं और अपने लोगों के लिए अंधकार भरा जीवन। वहां उजास कहां है, उम्मीद कहां हैं?
दुनिया के तमाम हिस्सों में अगर हिंसा, आतंकवाद और खून के दरिया बह रहे हैं, तो उन्हें अपने विचारों पर एक बार पुर्नविचार करना ही चाहिए। आखिर सारे पंथ, मजहब और विचारधाराएं अगर एक बेहतर दुनिया के लिए ही बने हैं तो इतनी अशांति क्यों है भाई? भारत जैसा देश जो इस संकट में दुनिया को रास्ता दिखा सकता है, के नौजवान भी अगर भटकाव के शिकार होकर बंदूकें हाथ में लेकर मानवता की हत्या करते दिखेगें तो हमें मानना होगा कि भारतीयता कमजोर हो रही है। हमारा राष्ट्रवाद शिथिल पड़ रहा है। हमारा दार्शनिक आधार दरक रहा है। अन्यथा कोई कारण नहीं कि भारत जो विश्व मानवता के सामने एक वैकल्पिक दर्शन का वाहक है, उसके नौजवान किसी जहरीली हवा के शिकार होकर अपने ही देश के जीवन मूल्यों की बलि देते दिखें। इस संकटपूर्ण समय में हमें अपने बच्चों को संभालना है। उन्हें भारत बोध कराना है। मानवता के मूल्यों की प्रसारक धरती से, फिर से शांति का संदेश देना है। पूरी दुनिया आपकी तरफ उम्मीदों से देख रही है। कृपया आतंक की आंधी में शामिल होकर अपनी माटी को कलंकित मत कीजिए।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
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