पुण्य प्रसून बाजपेयी।
जनता को अपनी बात बिना डर और खुल कर कहनी होगी कि वह लोकतंत्र के साथ है या तानाशाही के। चुनाव तो एक आयाम है। जनता का संघर्ष तो महंगाई, करप्शन और तानाशाही की हवा के खिलाफ है।{जेपी,28 फरवरी 1977}।
इमरजेन्सी इसलिये लगायी क्योंकि छात्र कक्षा अटैंड नहीं कर रहे थे, मजदूर काम नहीं कर रहे थे,पुलिस और सेना प्रशासनिक आदेश नहीं मान रहे थे, विरोधियों का समाजवाद में भरोसा नहीं है, हमने देश को अराजकता से बचाया।
{इंदिरा गांधी 28 फरवरी 1977 } ।
तो ठीक 40 बरस पहले इमरजेन्सी को लेकर जो इंदिरा गांधी की सोच थी और इमरजेन्सी के खिलाफ राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेडने वाले जेपी जो कह रह रहे थे उसमें तय जनता को ही करना था। क्योंकि चुनाव की मुनादी हो चुकी थी और जेपी का रिकॉर्डेड भाषण चंडीगढ की चुनावी रैली के लिये सुनाया गया। और इंदिरा गांधी फूलपुर में चुनावी रैली को संबोधित कर रही थी। तो क्या मौजूदा वक्त में सियासत तीन सौ साठ डिग्री में घूम कर वही पहुंच गई है जहा से एक वक्त इमरजेन्सी का विरोध करते हुये सत्ता तक पहुंची बीजेपी और इमरजेन्सी लगाने वाली सत्ता के बाहर खडे होकर हालात के सामने बेबस खड़ी कांग्रेस।
इन हालातों में छात्र संघर्ष पर टिकती सियासत की धार । तो क्या चालीस बरस पहले जिस तरह इमरजेन्सी के बाद के चुनाव में इमरजेन्सी की परिभाषा अपने अपने तरीके से जेपी और इंदिरा गांधी गढ़ रहे थे। ठीक उसी तर्ज पर मौजूदा सियासत भी छात्रो के संघर्ष को सियासी बिसात पर गढ़ रही है।क्योंकि जो छात्र संघर्ष कर रहे है । मौजूदा हालतो में जो सवाल उठा रहे हैं। वह सवाल ना तो 40 बरस पहले थे। ना ही मौजूदा वक्त में संघर्ष करते छात्रों में किसी छात्र की उम्र 40 बरस की होगी तो क्या चुनाव के दौर की जरुरत अब छात्र संघर्ष के जरीये उठते सवालो के आईने में सबसे धारदार हो चले हैं क्योंकि राजनीतिक चुनाव अपनी धार खो रहे हैं। जनता से सरोकार नेताओं के बच नहीं रहे है लेकिन सबसे बडा वोट बैक छात्र ही है।
आलम ये है कि 42 करोड़ वोटर 18 से 35 बरस के बीच का है, 9 करोड़ युवा वोटर कालेज में हैं, 12 करोड युवा रजिस्टर्ड बेरोजगार हैं, यानी छात्रों की ताकत देश की सियासत को पलटने की ताकत रखती है। लेकिन सियासत सियासी बिसात बुनने में माहिर है तो फिर छात्र संघर्ष के इस या उस पार का नजरिया ही नेता बदल रहे हैं।
यानी सियासी टकराव की बिसात पर कोई ये बोलने को तैयार नहीं है कि आखिर पुलिस प्रशासन । कानून या कहे अदालत देशद्रोह या देश भक्ति की व्याख्या क्यो नहीं कर रही है। अगर व्याख्या है तो फिर खिलाफ जाने वालों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं होती । और छात्रो के नाम पर सारी सियासत सड़क पर ही क्यों हो रही है? यहां से बहुतेरे सवाल निकल सकते हैं, लेकिन जरा इसे समझें कि आने वाले दौर में हम कौन सा भारत बच्चों के लिये छोड़कर जायेंगे। क्योंकि जो छात्र सडक पर संघर्ष करते हुये नजर आ रहे हैं, यही वह छात्र हैं जिनमें से कई आने वाले वक्त में देश की राजनीति करते नजर आयेंगे। कोई आईसा तो कोई एवीबीपी और कोई एनएसयूआई से निकल कर कांग्रेस बीजेपी या वाम राजनीति करते करते संसद में भी नजर आ सकते हैं। ठीक वैसे ही जैसे जेपी आंदोलन से निकले राजनेता ही आज केन्द्र से लेकर कई राज्यों में बैठे हैं।
उनमें राजनाथ, जेटली , सुषमा स्वराज, रविशंकर, नीतीश कुमार, लालू यादव इत्यादि। तो इनके सामने इमरजेन्सी की यादे हैं। तब जेपी का साथ था और इंदिरा गांधी के खिलाफ संघर्ष था। लेकिन जरा कल्पना कीजिये मौजूदा छात्रों के लिये जो चेहरे छात्र संघर्ष के प्रतीक हो सकते हैं। उनके पास कौन सा संघर्ष होगा । लेकिन सच तो यही है कि अभी जो छात्र संघर्ष करते हुये दिखायी दे रहे हैं, वह स्कूल में पढ़ाई कर कालेज पहुंचने वाली पीढ़ी के लिये राजनीतिक आदर्श होंगे। तो देश सियासी तौर पर किन हाथों में कल होगा उससे पहले जरा ये समझ लें कि मौजूदा वक्त में सियासत के लिये ही कैसे शिक्षा से खिलवाड भी हो रहा है और शिक्षा की तरफ ध्यान भी नहीं दिया जा रहा है।
मसलन, राजस्थान सरकार किताबो में हल्दीघाटी की लड़ाई का विजेता महाराणा प्रताप को बताने पर आमादा है। तो पश्चिम बंगाल सरकार ने सातवीं क्लास की किताब का नाम रामधेनु से हटाकर रंगोधेनु करवा दिया। यानी सेकुलरवाद के तहत किताब का नाम राम का धनुष नही अब इंद्रधनुष होगा। वहीं मध्यप्रदेश सरकार ने स्कूली बच्चों की किताब में मोदी की जीवनी का चेप्टर जोड़ दिया। तो क्या शिक्षा तले इतिहास बनाने की जगह इतिहास बदलने की सोच हावी हो चली है? लेकिन इससे इतर याद किजिये किस तरह की शिक्षा दी जा रही है और शिक्षक खुद कितना जानते हैं।
उदाहरणत: बिहार में एजुकेशन सिस्टम से निकला बोर्ड का टापर ऐसा कि विषय का नाम नहीं बोल सकता और देश में ऐसे टीचर की भरमार है जिन्हें एबीसीडी भी ढंग से पता नही है। लेकिन सवाल चंद तस्वीरों का नहीं उस ढहते एजुकेशन सिस्टम का है,जिसका राजनीतिक सत्ता अपने लिए इस्तेमाल करती है। मुनाफा कमाती है लेकिन बच्चों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है,क्योंकि न तो बुनियादी ढांचा है और न पढ़ाने की इच्छाशक्ति। असर इसी का है कि तीसरी कक्षा के 75 फीसदी बच्चे, पांचवीं के 50 फीसदी बच्चे और आठवीं के 25 फीसदी बच्चे दूसरी क्लास की किताबों को भी ठीक से नहीं पढ़ सकते.। और दिल्ली के सरकारी स्कूलों पर एक एक सर्वे के मुताबिक छठी क्लास तक के 74 फीसदी बच्चे ठीक से हिन्दी नहीं पढ़ सकते। तो जिस राजनीतिक सत्ता को बदहाल शिक्षा को सुधारना चाहिए था-उसके एजेंडे में क्या है, ये इस बात से समझा जा सकता है कि किसी के लिये 17000 से ज्यादा सरस्वती शिशु मंदिर आदर्श हैं। किसी के लिये 35000 से ज्यादा मदरसों की शिक्षा ही महत्वपूर्ण है।
सवाल उठता है कि बदलते देश में शिक्षा है कहां इसका सच इस हकीकत से भी जाना जा सकता है कि। 60 फीसदी छात्र उच्च सिक्षा के लिये देश के बाहर चले जाते हैं और 89 फिसदी भारत में उच्च सिक्षा की कोई व्यवस्था ही नहीं है। जहां शिक्षा की व्यवस्था है वहां सडक पर छात्र विचारों की स्वतंत्रता के पैमाने को मापने से जुझ रहा है। ऐसे में सवाल यह कि क्या किसी जहन में कभी आ जाता है कि डीयू में पढने वाले ढाई लाख छात्रो में से आधे छात्र किसान परिवार से ही आते है। या पिर जेएनयू के 8 हजार छात्रो में से तीन हार छात्र किसान परिवार से ही आते हैं और किसान परिवारों से आने के बावजूद वह कौन से हालात हैं, जहां किसानी के मुद्दे छात्रो को परेशान नहीं करते?
शिक्षा का राजनीतिकरण अभिव्यक्ति के सवाल से होते हुये देशभक्ति या देशद्रोह में इस कदर खो जाता है कि हर घंटे किसान की मौत सवाल बन कर छात्रों को परेशान नहीं करती। तो क्या छात्र भी अब सियासी दलों के छात्र संगठन से जुड़कर उसी सियासी चक्रव्यूह में फंस चुके हैं, जहां राजनीति सत्ता सिस्टम को ही हड़पकर खुद को सिस्टम मानते हुये देश मानने में तब्दील हो रही है और कैंपस दर कैंपस छात्रों को समझ नहीं आ रहा है कि वह सियासी ताकत बनने की चाहत में एक ऐसा हिन्दुस्तान गढ़ रहे हैं, जहां भक्ति ही देश कहलायेगी और सत्ता ही देश होगी।
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