Breaking News

नरेटिव गढ़ने से बाहुबल नहीं आ जाता बल्कि बुद्धि इस्तीफा देकर चली जाती है

खरी-खरी            May 04, 2022


रंगनाथ सिंह।

कुछ साल पहले तक हम जैसे लोगों को यह नहीं पता था कि परशुराम जयंती भी होती है। पिछले साल कुछ मित्रों की परशुराम से जुड़ी पोस्ट देखकर रामचरितमानस का वह प्रसंग याद आ गया जिसपर मैंने लिखा।

मैंने अपनी तरफ से परशुराम की कोई व्याख्या नहीं की थी। बाबा तुलसी की स्टोरीलाइन पर ही चला।

मैंने उस लेख में मानस वाचकों की परिपाटी को निभाने का प्रयास करते हुए राम कथा के धनुष ध्वंस प्रसंग को आज के ढंग में कहने का प्रयास भर किया था।

उस पोस्ट का एकमात्र उद्देश्य मनोरंजन था लेकिन उसपर आई प्रतिक्रियाओं को देखने के बाद अफसोस होने लगा कि मुझे परशुराम को लेकर नए नए उभरे पोलिटिकल नरेटिव का ध्यान रखना चाहिए था।

कुछ लोग उस पोस्ट पर परशुराम का कलियुगी अवतार बनकर फरसा चमकाने लगे जैसा असली परशुराम ने रामचरिमानस में राम और लक्ष्मण के सामने किया था। जो लोग खुद को परशुराम भक्त मानते हैं कम से कम उन्हें परशुराम की गलतियों से सबक लेना चाहिए। फरसा उठा लेने से कोई राम नहीं हो जाता!

परशुराम को उत्तर भारतीय शास्त्र और लोक दोनों ने हाशिए पर पहुँचा दिया। केवल क्षत्रियों ने नहीं, ब्राह्मणों ने भी उनसे किनारा कर लिया।

भारतीय वांग्मय विशाल है। उसमें बहुत से चरित्र बहुत तरीके से आते हैं। रचनाकार अपनी रुचि और बुद्धि के अनुरूप उन्हें लेकर रचनाएँ करते रहे हैं, हमने भी की।

हमारी भारतीय मानसिकता किसी के इष्टदेव की अवमानना से रोकती है। मैंने कई बार लिखा है कि धार्मिक ग्नन्थों और उनके प्रमुख लोगों की आलोचना करते समय हमें ध्यान रखना चाहिए कि वह आलोचना ही लगे, गाली न लगे। गालीगलौज असभ्यता है।

आलोचना मानव सभ्यता के बौद्धिक विकास का पहिया है। यह बात न समझने वालों को किसी बौद्धिक बहस में नहीं पड़ना चाहिए।

ऐसे भी लोग हैं जिनकी भावनाएँ आलोचना से आहत होने लगती हैं। ऐसे सभी भाइयों से कहना है कि हमारी भावनाएँ भी आपकी मूर्खताओं से आहत होती हैं। यदि आप अपने ईष्ट को दाऊद इब्राहिम टाइप दूसरों को डराने के काम में आने वाला माफिया डान बनाकर पेश करेंगे तो जवाब से आपको बहुत तकलीफ होगी।

हिंसा के गिने-चुने सच्चे-झूठे नरेटिव गढ़ने से बाहुबल नहीं आ जाता बल्कि बुद्धि इस्तीफा देकर चली जाती है। शिक्षा, संस्कृति और संस्कार भारतीय ब्राह्मणों की शक्ति रही है, फरसा नहीं।
ब्राह्मण का वैदिक अर्थ था- ब्रह्म को जानने वाला।

ब्रह्मा को जानना क्या होता है, मुझे नहीं पता लेकिन इतना पता है कि ब्राह्मण कौन है यह बहस भारतीय बौद्धिक जगत में लम्बे समय तक चली। उस बहस पर फिर कभी बात होगी, आज इतना ही कहना चाहूँगा कि नतीजा यह हुआ कि भारतीय शास्त्र और लोक से ब्रह्मा ही हाशिए पर चले गए। परशुराम का भी बाद में उनके जैसा ही हाल हुआ।

परिधि पर पड़े हुए ऐसे अनगिनत देवता भारत में हैं जिनकी किसी न किसी शास्त्र में बड़ी महिमा बतायी गयी होगी लेकिन जमीनी हकीकत उनके खिलाफ दिखती है।

शनि देवता को ही ले लें। जब मेरा रेलवे स्टेशन पर बहुत आना जाना होने लगा तब पता चलने लगा कि कुछ लोग उनकी प्रतिमा से जीवनयापन करते हैं। वरना उससे पहले केवल शनि शिग्नापुर को ही जानता था।

परशुरामवादी उनकी जयंती के नाम पर जो तस्वीर शेयर कर रहे हैं उसे जानबूझकर एग्रेसिव लुक दिया गया है। एंग्री हनुमान की तरह। वह तस्वीर चित्र कम, धमकी ज्यादा लगती है।

लेकिन यह भी ध्यान रहे कि कई बार धमकी गीदड़भभकी भर होती है। एग्रेसन का रिटर्न एग्रेसन ही होता है, इसलिए उससे बचना चाहिए। दुनिया परशुराम काल से बहुत आगे बढ़ चुकी है।

कल कुछ लोगों ने परशुराम के मास मर्डरर होने का मुद्दा भी उठाया। पौराणिक कथाओं को उनके फेस-वैल्यू पर लेना नासमझी है। ज्यादातर पौराणिक कथाएँ अपने मूल चरित्र में बोध कथाएँ होती हैं।

भक्तों के लिए परशुराम भगवान हैं। बौद्धिकों के लिए वह एक प्रतीक और बिम्ब हैं। प्रतीकों और बिम्बों की व्याख्या और विखण्डन भारतीय दण्ड संहिता की धारा नम्बर एक्सवाईजेड के तहत नहीं होती।

जिस तरह कुछ लोग परशुराम का प्रयोग ब्राह्मणों को हिंसक बनाने में करना चाहते हैं वैसे ही कुछ लोग परशुराम का प्रयोग एंटी-ब्राह्मण हिंसक लामबन्दी के लिए करना चाहते हैं।

कभी-कभी लगता है कि ऐसे लोग ब्राह्मणों के खिलाफ वैसा ही जनमानस तैयार करने में लगे हैं जैसा जर्मनी में यहूदियों के खिलाफ नाजियों ने किया। बड़ा फर्क यह है कि भारत के सत्ता-प्रतिष्ठानों पर ब्राह्मणों का अतुलनीय कब्जा है इसलिए वो अब तक सुरक्षित हैं।

यह सच है कि भारत की कुछ जातियों का जातिगत दायित्व हिंसा रहा है और आज भी वो मारपीट-हिंसा को अपना जातीय कर्तव्य समझती हैं लेकिन ऐसी सभी जातियों की लामबन्दी करनी भी हो तो उन्हें चीन और पाकिस्तान की सीमा पर भेजना चाहिए। उन्हें ब्राह्मण-विरोधी हिंसक गोल के रूप में बदलने का प्रयास हर तरह से निंदनीय है।

कल यह भी देखा कि कई लोग परशुराम द्वारा हैहयवंशियों की हत्या की पौराणिक कथा को फेसवैल्यू पर लेते हुए नाहक ही उसे डिफेंड करने में लगे थे। ऐसे चतुर लोग 'वध' और 'हत्या' के बीच फर्क समझाने में ही अपना ब्राह्मणत्व धन्य कर रहे हैं!

ऐसे कुबुद्धि तर्क दे रहे हैं कि जिनको मारा गया वो सब 'आततायी' थे! आततायी थे तो गाय को लेकर रार होने से पहले क्यों नहीं हैहयवंशियों को मार दिया!

कुछ लोग तो इतने आत्मविश्वास के संग यह दावा कर रहे हैं जैसे उनके पास परशुराम द्वारा की गयी हर हत्या का सीसीटीवी फुटेज हो! उनको यह भी नहीं पता कि 'हत्या' जैसा शब्द कब वजूद में आया, भारतीय पुराणों में उसका प्रयोग हुआ भी है या नहीं!

यह कुछ वैसा ही नरेटिव नहीं हुआ कि विश्वनाथ मन्दिर में ब्राह्मणों ने बहुत कदाचार फैला रखा था, औरंगजेब को खबर मिली उनसे धर्म की आड़ में ऐसा कुकृत्य देखा न गया और उन्होंने हुकूम दिया कि पूरा विश्वनाथ मन्दिर गिराकर मस्जिद बना दो!

परशुराम की चर्चित कथा क्या कहती है? उनके पिता के पास एक गाय थी। उनके पड़ोसी को वह गाय पसन्द आ गयी। उसने गाय छीनने का प्रयास किया।

इस प्रयास में उसने उनके पिता की हत्या कर दी। परशुराम ने पिता के हत्यारे की हत्या करते हुए गाय दोबारा वापस हासिल कर ली। यहाँ तक बात कबायली समाज की मानसिकता के अनुरूप है।

खून का बदला खून आज भी कई कबायली समाज में इंसाफ माना जाता है। यहाँ तक बात रहती तो शायद परशुराम भारतीय लोकमानस से बहिष्कृत नहीं होते। उन्होंने एक खून का बदला लेने के लिए 21 बार सामूहिक खून किया!

पुराण कथा को मान लें तो उन्होंने उनके पिता की हत्या करने वाले हैहयवंशियों को 21 बार धरती से समाप्त कर दिया था। कॉमन सेंस का इस्तेमाल करने वाले किसी भी व्यक्ति को यह समझ में आएगा कि यदि एक बार किसी का वंश समाप्त हो जाए तो उसे दोबारा समाप्त नहीं किया जा सकता।

किसी चीज को एक बार समाप्त करने के बाद उसे 21 बार समाप्त केवल कोई गल्प लेखक कर सकता है, वैज्ञानिक नहीं। इस अतिश्योक्ति को अगर लॉजिकल ढंग से समझा जाए तो लगता है कि सम्भव है कि उन्होंने अपने पिता जमदग्नि को मारने वाले कार्तवीर्य के साथ 21 और लोगों को मार दिया होगा।

कॉमन सेंस रखने वाला कोई भी व्यक्ति यह समझेगा कि एक आदमी अकेले फरसे से 21 या उससे ज्यादा लोगों को एक साथ नहीं मार सकता!

यह कोई हॉलीवुड फिल्म नहीं है और न सामने वाले खेत में खड़े बिजूके हैं जिसे आप खुट कटे बिना काटकर चले जाएँगे। जो भी हुआ हो, यह प्रसंग काफी हिंसक रहा होगा।

परशुराम प्रसंग को समझते समय हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उस जमाने में गाय सबसे बड़ा धन थी। वैदिक काल में गाय के लिए कई बार लड़ाई हुई है।

राजा यज्ञ कराने के लिए गोदान करते थे। कुछ लोग सोमरस खरीदने के लिए भी बदले में गाय देते थे।

उस समय के साहित्य से लगता है कि गाय की वही स्थिति थी जो हमारे समय में जमीन की है। तब जमीन बहुत खाली रही होगी। जितनी चाहे उतनी पर खूँटा गाड़ दो। गाय कम रही होंगी और जीवन का मुख्य आधार रही होंगी। गाय यूँ ही नहीं भारतीय चेतना में बसी हुई है।

वर्ण से जाति में रूपांतरित होने के बाद भारतीय समाज में एक पूरी जाति बन गयी जिसका काम गोपालन था।

भारतीय सभ्यता में गाय का महत्व इस बात से समझना चाहिए कि हमारे यहाँ एक प्रमुख भगवान ही गोपाल हैं। गाय और गोपी के बिना कोई कृष्ण कथा पूरी हो सकती है क्या!

गोपी के बिना हो भी सकती है लेकिन बाल-कृष्ण मक्खन चोर थे इसे लोकमानस से हटाना सम्भव है क्या?

इतने सारे देवी-देवता थे, किसी और ने बचपन में मक्खन क्यों नहीं चुराया! सोचने वालों को इसपर सोचना चाहिए।

कुल मिलाकर यह सीन बन रहा है कि अब हर देवी-देवता हिंसक बनाया जा सकता है जबकि भारतीय साहित्य एवं सभ्यता इस बात पर बहुत साफ रही है कि हिंसा केवल और केवल आत्मरक्षा या अपने वाजिब अधिकारों की रक्षा के लिए ही जायज है, अन्यथा नाजायज है।

राम ने रावण का वंश खत्म करने की सौगन्ध नहीं खायी थी। रामायण हो या महाभारत, दोनों में युद्ध टालने के कई प्रयासों के बाद ही युद्ध हुआ और तब हुआ जब रावण या दुर्योधन जैसे अड़ गए कि पत्नी चाहिए तो युद्ध ही करना होगा, पाँच गाँव भी चाहिए तो युद्ध ही करना होगा।

परशुराम ने केवल कार्तवीर्य को मारा होता तो शायद भारतीय लोकमानस उनसे दूरी नहीं बनाता। अपने हिंसक इतिहास पर गौरवान्वित होने वाली दूसरे सभ्यताएँ हैं लेकिन भारत और चीन ने कभी हिंसा को गौरव का विषय नहीं माना। भारत और चीन के विचारकों ने हिंसा को केवल अवश्यम्भावी स्थिति में ही स्वीकारा है।

भारतीय मनीषा ने कभी राजसत्ता को जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि नहीं माना। ब्रह्म-ज्ञान या बोधि या कैवल्य प्राप्त करना भारतीय मनीषा की सर्वोच्च कामना रही है।

जितने भारतीय राजाओं ने राजपाट त्यागकर आत्म-ज्ञान प्राप्त करने की राह चुनी, उतने ज्ञात इतिहास के किसी और सभ्यता में राज मार्ग छोड़ ज्ञान मार्ग पर चले हों तो मुझे भी बताएँ।

अनगिनत आक्रमणकारियों की बर्बरता के बाद भी जो जिन हनुमान ने क्रोध को चेहरे पर धारण नहीं किया बल्कि हृदय में सीता-राम को धारण किए रहे, आज उन्हें एंग्री हनुमान बनाने वाले भारतीय सभ्यता के दुश्मन हैं।

ऐसे लोग भारतीय आत्मा को म्यूटेट करना चाहते हैं। ऐसे कुबुद्धि जन भूल जाते हैं कि दूसरों जैसा बनने के बाद हम अपने जैसे नहीं रह जाते।

बेहतर बनना बेहतर है, बदतर बनना नहीं। हिंसा की अति मरने वाले और मारने वाले, दोनों का नाश कर देती है। महाभारत का यही सन्देश है। इसलिए भारतीय समाज उसे घर में नहीं रखता ताकि घर-घर में महाभारत न होने लगे।

परशुराम को महाभारत का कारण न बनने दें, यदि वो आपके पूजनीय हैं तो हमारे लिए सम्माननीय हुए।

उनको हिसंक रूप देकर, उनके लिए हिंसक तर्क-वितर्क करके, धमकी, गालीगलौज देकर, आप अपना, उनका और भारतीय संस्कृति तीनों का नुकसान कर रहे हैं,आज इतना ही। शेष, फिर कभी।

भूपेंद्र सिंह की वॉल से

 



इस खबर को शेयर करें


Comments