राकेश दुबे।
जी ! पूरे भारत में लोकसभा के लिए चुनाव चल रहे हैंं जिस लोकसभा के लिए चुनाव प्रक्रिया चल रही है, उसमें कितना लोक [पब्लिक] शेष रहता है ? यह सवाल इस समय पूछने का हक हर भारतीय को है।
यदि इस सवाल का जवाब पिछली लोकसभा को देखकर खोजे तो यह तथ्य सामने आता है कि ब्रिटेन के हाउस आफ कामन्स की भांति संविधान सभा ने लोकसभा की कल्पना करते जिस सदन की रचना की थी, वो अब सामान्य भारतीय की जगह करोडपतियों का सदन हो गया है। ये करोड़पति भारत के गरीबों की योजना बनाने के उपक्रम में लगे हैं।
किसी भी राजनीतिक दल से चुनकर आये सांसद के नामजदगी के समय जमा जानकारी को उठा लें। निष्कर्ष यही निकलेगा “ गरीबों की पैरोकारी, उनके द्वारा जिन्होंने गरीबी देखी तक नहीं।”
परिवारवाद और अन्य अनेक कारणों से अब सांसदों की जो खेप संसद में पहुंच रही है, उसे न तो गरीबी का भान है और न राष्ट्र की चिंता।
वो तो परिवारवाद या अन्य किसी बैसाखी से सांसद होकर ए टी एम् [आल टाइम मनी ]बना हुआ है जिसका लक्ष्य पैसे बनाना है। उस लोक [पब्लिक ] से वो अब ५ साल बाद मिलेगा, जिसने उसे चुन कर लोकसभा में भेजा है।
उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार देश के ५२१ सांसदों में से ८३ प्रतिशत अर्थात ४३० सांसद करोड़पति हैं।
इस सूची में सबसे उपर भाजपा है जिसके ८५ प्रतिशत सांसद करोड़पति हैं। २६७ में से २२७ कांग्रेस के सांसदों के आंकड़े जिन्हें अपुष्ट[ सही जानकारी का अभाव] कहा जाता है ४५ में से २९ सांसद इसी श्रेणी में आते हैं। अब जरा दलों के आधार पर गौर करें।
तेलुगुदेशम के १०० प्रतिशत,शिरोमणि अकाली दल के भी १०० प्रतिशत,वाई एस आर सी पी, राष्ट्रीय जनता दल,जनता दल [सेक्युलर ], जनतादल [यूनाईटेड] के सभी सांसद १०० प्रतिशत करोडपति हैं।
शिव सेना के ९४ प्रतिशत,टीआर एस के ९० प्रतिशत.एन सीपी के ८६ प्रतिशत,समाजवादी पार्टी के ८६ प्रतिशत,भाजपा के ८५ प्रतिशत,लोक जन शक्ति पार्टी के ८३ प्रतिशत, कांग्रेस के ८२ प्रतिशत, ए आई डी एम् के ७८ प्रतिशत, आप पार्टी के ७५ प्रतिशत. बी जे डी के ७२ प्रतिशत,सांसद करोड़पति है।
इनमें से कई की घोषित सम्पत्ति ५० करोड़ या उससे अधिक है। इनमे २ बार या उससे अधिक चुनकर आने वाले, परिवारवाद की बैसाखी पर चढकर संसद में पहुंचने वाले अधिक है जिन्होंने अभी गरीबी देखी ही नहीं है।
इन दिनों पार्टी का टिकट पाने के लिए कुछ भी करने की होड़ लगी है। टिकट न मिलने वाले, टिकट बेचने के आरोप भी लगा रहे हैं, ये आरोप हर चुनाव में लगते हैं। इस ओर किसी का ध्यान नहीं है। संसद और विधानसभा के माध्यम जनता का प्रतिनिधित्व आसानी से पैसा बनाने की मशीन बन गया है। बिना कुछ करे धरे सम्पत्ति दिन दूनी रात चौगुनी बढती है।
राजनीतिक दल गिरोह बनते जा रहे हैं,जिनमें पिस कर प्रजातंत्र अपना स्वरुप खो रहा है। ऐसी करोड़पति लोकसभा और विधानसभा से लोकन्याय की उम्मीद करना कोई समझदारी नहीं है। फिर लोक क्या करे ? अभी तो मतदान करे और देखें कि उम्मीदवारों के गुण-अवगुण समान है, तो “नोटा” [इनमें से कोई नहीं ] करे।
लोकसभा से नदारद लोक की स्थापना पुन: तभी ही हो सकती है, जब आपको अपने मत की कीमत और उसका परिणाम पता हो।
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