राकेश दुबे।
सबरीमला पर आया फैसला और उसके बाद की गतिविधयों के कुछ राजनीतिक निहितार्थ भी है हिंदुत्ववादियों के लिए यह केरल फतह भी है क्योंकि केरल ही एक आखिरी किला है। तमिलनाडु में दोनों प्रमुख दल द्रमुक या एआईडीएमके,भाजपा के साथ गठबंधन कर सकते हैं।
केवल केरल ही ऐसा राज्य है जहां दोनों प्रतिद्वंद्वी गठबंधन माकपा का एलडीएफ और कांग्रेस का यूडीएफ, भाजपा से समान दूरी बरतते हैं।संघ वहां अपने पांव जमाने के लिए संघर्ष कर रहा है और उसके कार्यकर्ता वाम कार्यकर्ताओं के खूनी संघर्ष को भी झेल रहे हैं।
प्रश्न यह है क्या वे इसके बल पर अपना आधार बना सकेंगे?अभी संघ और उसके अनुषंगी संगठन सबरीमला विरोध के लिए केवल केरल नहीं बल्कि समूचे क्षेत्र से महिला कामगारों को जुटा रहे हैं।
राजनीति और लोकतांत्रिक प्रतिस्पर्धा को केवल वाम और उससे अधिक वाम तक सीमित तो नहीं रखा जा सकता।
सबरीमला एक सबक है कि कैसे ताकतवर संस्थानों के हस्तक्षेप से अनचाहे परिणाम सामने आ सकते हैं। आस्था के मामलों पर कानून और संविधान के सिद्घांतों का यूँ लागू किया जाना कितना तार्किक है, यह एक कठिन प्रश्न है।
भारतीय समाज में असंख्य आस्थाएं, विश्वास और रिवाज सहअस्तित्व में हैं। किसी प्रयोजन [राजनीतिक/गैर राजनीतिक] को सिद्ध करने के लिए यहां किसी पेड़ या चट्टान पर भगवा रंग या थोड़ा सा चूना पोत वहां पूजा अर्चना शुरू हो सकती हैं।
यही बात पुरानी परित्यक्त कब्रों पर लागू होती है। क्या अदालतें इनसे जुड़े मसलों की भी सुनवाई करेंगी? क्या कोई ईसाई महिला सर्वोच्च न्यायालय से कह सकती है कि वह कैथलिक मत में महिलाओं को समान अधिकार और पादरी बनने का हक दिलाए? क्या ईसाई पादरियों के चयन के लिए यूपीएससी जैसी संस्था बनाई जा सकती है?
क्या एक हिंदू महिला न्यायाधीशों से कह सकती है कि वह संघ को आदेश दे कि महिलाओं को संस्था में उच्च पदों पर आसीन किया जाए? आरएसएस प्रमुख के पद पर किसी महिला को देखना बहुत प्रीतिकर होगा। कौन जाने किसी दिन ऐसा हो भी जाए, लेकिन यह किसी अदालत के आदेश पर नहीं होगा।
हम भारतीय आस्था जैसे मामलों में दखल नहीं देते। बहुत से बिलों को लेकर बहुत बहस होती है और अभी भी बहुत से विवादित मुद्दे शेष हैं। वैसे धर्मिक आस्था व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मसला है। आप किसी महिला को अपने प्रिय देवता की पूजा करने से केवल इसलिए नहीं रोक सकते कि उसकी उम्र क्या है ? न्यायालय तो समानता के नाम पर फैसला दे देते हैं।
अदालतों के लागू न होने वाले निर्णयों को लेकर शोधपत्र या सार्वजनिक बहस की जरूरत है| जैसे दोपहिया वाहन पर चलने वाली महिलाओं के लिए हेलमेट अनिवार्य करने का आदेश अदालत बार-बार देती रही है। सिखों के विरोध की बात कहकर इसे भी नकार दिया गया।
हालांकि तमाम समझदार सिख महिलाएं हेलमेट पहन रही हैं और कोई भीड़ उनको नहीं रोक रही, उनको इसके लिए किसी अदालती आदेश की जरूरत नहीं। इस मामले में वे रूढ़ीवादी रोकटोक की चिंता भी नहीं करतीं। बड़ी संख्या में महिलाएं हेलमेट को अपना रही हैं,वह भी बिना किसी अनिवार्यता के।
राजनेताओं के पास अक्सर बचने की गली होती है,वे परिणाम को तब तक टालते हैं, जब तक वह उनके मतलब को सिद्ध न करता है। अदालत ने तो एक बेहतर दुनिया बनाने के क्रम में फैसला दिया है, वहां भाजपा को मुद्दा मिल गया है। यह मुद्दा राजनीतिक के साथ नैतिक और आध्यात्मिक भी है। सम्पूर्ण समाज को विचार करना होगा कि वह किसके साथ है।
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