राकेश दुबे।
त्रिपुरा और अन्य दो राज्यों के नतीजों ने भाजपा को पूर्वोत्तर में उस मुकाम पर पहुंचा दिया जिसके लिए वो वर्षों से जद्दोजहद कर रही थी। एक बार फिर भारतीय लोकतंत्र में जो यह नया घटा है उसके दूरगामी परिणामों पर चिन्तन शुरू हो गया है। क्या वामपंथ शून्य की ओर जा रहा है? क्यों कांग्रेस बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पा रही है? जैसे सवाल उठने लगे हैं,इनका उठाना लाजिमी भी है।
इस सारे घटनाक्रम का विश्लेषण करें, तो अभी एक बात साफ़ दिखती है, भाजपा में लोगों का भरोसा कायम है साथ ही यह भी, कि क्या यह भरोसा राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक में दोहराया जायेगा?
चार साल पहले केंद्र में काबिज होते समय विपक्षियों को अनुमान था कि लंबे-चौड़े चुनावी वायदों और मतदाताओं की अपार उम्मीदों का बोझ उनकी छवि पर बहुत जल्द प्रतिकूल असर डालेगा,ऐसा पंजाब में हुआ भी। मगर अब के नतीजे कहते हैं भाजपा संभल गई। भारत में ऐसे वाकये पहले भी हुए हैं। 1984 में 404 सीटें जीतने और 1971 में 352 सीटों पर कांग्रेस में जैसा माहौल था उससे कुछ कम पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के चुनावों ने बनाया है। कांग्रेस ने तत्समय जो गलतियाँ की थीं उस गलती से भाजपा को बचना चाहिए।
अब यह साफ़ लगने लगा है कि नरेंद्र मोदी ठहराव के खिलाफ हैं, अब वे अपनी छवि को नया रूप देने में जुटे हैं। इसकी बानगी फिर देखने को मिली। भाजपा मुख्यालय में जीत के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह को उन्होंने संबोधित करना शुरू ही किया था कि पास की मस्जिद में अजान शुरू हो गई। उन्होंने कहा कि अजान खत्म होने तक दो मिनट के लिए मौन रहते हैं। उस समय वे टी.वी. पर ‘लाइव’ थे। मोदी जानते हैं कि उनके मुंह से निकली यह बात यकीनन दूर तलक जाएगी।
यह एक त्वरित प्रतिकिया थी। ऐसे कई छोटे-बड़े कारक इस जीत में छिपे हैं जिनमें दो प्रमुख हैं। पहला संघ के कार्यकर्ताओं का जमीनी काम दूसरा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की अगुआई में पेशेवरों के एक दल का समर्पण। इस दल का काम साल के 365 दिन जनरुचि के मुद्दों को तलाशना और उनकी बारीकी से समीक्षा करते रहना है। इन्ही आधारों पर चुनावी रणनीति तय हुई थी।
अमित शाह प्रत्याशियों के चयन में भी बेमुरव्वत हैं। वे समझ गये हैं कि अगर हार का ठीकरा उनके सिर फूटना है,तो फिर जीत के लिए उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक निर्णय करने का हक है। जिसका अमित शाह ने खुल कर इस्तेमाल किया।
अब सवाल ऐसा क्या था जो कांग्रेस में नहीं था ? वह थी कार्यकर्ताओं की कमी। भाजपा ने इस पर भी जबरदस्त काम किया, संघ ने उसे सहयोगी तैयार करके दिए। कांग्रेस तो राहुल गाँधी को अध्यक्ष बनाने में और यह जताने में लगी रही कि दुनिया का सर्वश्रेष्ठ नेतृत्व उसके पास है। इसके विपरीत भाजपा ने एक वोटर लिस्ट में जितने पन्ने होते हैं, उनमें से हरेक में दर्ज मतदाताओं को साधने के लिए एक ‘पन्ना प्रमुख’ बनाया।
जो लोग त्रिपुरा के चुनावी फैसलों से अचंभित हैं, वहां हर साठ वोटर पर एक ‘पन्ना प्रमुख’ था। इसके अलावा विपक्ष की संभावित रणनीति, हर नई चाल की काट और किसी भी अप्रत्याशित हमले से निपटने के लिए अलग टीमें थी।
अभी मोदी,शाह संघ में खासा सामंजस्य बना हुआ है। पूर्वोत्तर की सफलता में संघ की बरसों की मेहनत का खासा योगदान है। कर्नाटक में भी संघ ने महीनों पहले से अपने कार्यकर्ता झोंक रखे हैं। यह मोदी-शाह की जोड़ी को मिलने वाला ऐसा लाभ है, जिसकी काट विपक्ष के पास नहीं। इसीलिए आज देश में 29 पूर्ण राज्यों में से 20 राज्यों में भाजपा की अगुआई वाले एनडीए की हुकूमत है।
कांग्रेस की अगुआई वाला यूपीए सिर्फ तीन राज्यों में सत्ता में है। इससे भाजपा आत्म मुग्ध होकर ऊँघने नहीं लगना चाहिए। उसे यह भी याद रखना चाहिए कि तमाम राज्यों में भाजपा और उसके गठबंधन की सरकारें कैडर पर नहीं बल्कि दल-बदलुओं पर टिकी हैं। पूर्वोत्तर भी इसका अपवाद नहीं है।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी इस बार ‘स्टार’ हो गये। उनकी सभाओं में जिस तरह से भीड़ जुटी, वह आश्चर्यजनक है। यह ठीक है कि सीमावर्ती राज्य में नाथ संप्रदाय के लोग बहुत बड़ी तादाद में हैं पर योगी अन्य राज्यों में भी हिंदुत्व के पोस्टर ब्वॉय के तौर पर उभर रहे हैं, इसके बावजूद राजस्थान और मध्यप्रदेश के लिए भाजपा को किसी और को तलाशना, तराशना होगा, कांग्रेस में तो राहुल गाँधी हैं ही न।
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