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गांधीवादी चिंतक, बहुविधा लेखक सादगी पसंद आयकर आयुक्त आर के पालीवाल

खास खबर, वीथिका            May 01, 2019


 ममता यादव।

जब आयकर आयुक्त का जिक्र होता है तो दिमाग में छवि आती है एक सख्त रिजर्व अधिकारी की जो रौबदार हो काम से काम रखता हो। मगर जब नाम बोला या लिखा जाता है आयकर आयुक्त राकेश कुमार पालीवाल या आर.के. पालीवाल तो सहज ही दिमाग में छवि उभरती है एक सादगी पसंद अधिकारी की जो गांधीवादी हैं, समाजसेवी हैं, लेखक हैं। इतना ही नहीं वे कहानीकार, व्यंग्यकार, कवि, नाट्य लेखक और गांधीवादी चिंतक भी हैं।

अब तक श्री पालीवाल की 12 किताबें विभिन्न विधाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। इनका लेखन सामाजिक जीवन और परिवेश के आसपास से प्रेरित होता है और पढ़ने पर यथार्थ का अनुभव कराता है। गांधी को बहुत हद तक जीने वाले श्री पालीवाल गांधी से जुड़े लोगों के गांधीवादी कार्य और के लेखन पर उनसे विस्तार से चर्चा की मल्हार मीडिया ने

खुद अनपढ़ मगर 300 गांवों में खोलने वाले स्कूल कॉलेज स्वामी कल्याण देव

उत्तर प्रदेश के गांव बरला में एक किसान परिवार में जनमे श्री पालीवाल ने लेक्चरर से लेकर आयकर आयुक्त तक का सफर तय किया। गांधी से प्रभावित वे अपने पारिवारिक परिवेश के कारण ही ही हुए। वे बताते हैं कि हमारे परिवार की कई पीढ़ियों का संबंध उत्तर भारत के समाज सेवी स्वामी कल्याण देव जो विवेकानंद के शिष्य थे तथा गांधीजी के समकक्ष और सहयोगी थे। मदनमोहन मालवीय से उनकी प्रगाढ़ मित्रता थी जिन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की।

स्वामी कल्याण देव को लगा कि बीएचयू तो बन गया। लेकिन गांव के बच्चों के लिए तो प्राईमरी स्कूल भी नहीं है। तो उन्होंने सोचा कि हम गांव में शिक्षा समाजसेवा का काम करेंगे। इन्होंने उत्तरभारत में 300 गांव में स्कूल कॉलेज खोले।

श्री पालीवाल बताते हैं कि इनमें प्राईमरी स्कूल से डिग्री कॉलेज यहां तक कि एक गांव में आयुर्वेदिक कॉलेज भी खोला।

ऐसे समाज सेवी का मुझे सानिध्य मिला जिन्होंने अपने एक जीवन में 300 गांव का कल्याण किया जबकि वे खुद अनपढ़ थे। उनकी औपचारिक शिक्षा शून्य थी वे कभी स्कूल नहीं गए।

मैं ऐसे लोगों को स्वामी कल्याणदेव का उदाहरण देता हूं जो विभिन्न पदों या दूसरे क्षेत्रों में रहते हुए भी ये कहते हैं कि मैं क्या कर सकता हूं। उनके साथ मुझे मौका मिला रहने का।

स्वामी कल्याणदेव का काम अब स्वामी ओमानंद सम्हाल रहे हैं उनको भी यही धुन सवार है। वे गांव के लिए काम कर रहे हैं। उनका काम शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। उस समय के गांधीवादियों से आत्मीयता हुई जब दिल्ली—बंबई में रहना हुआ।

स्वामी कल्याण देव कहते थे कि खराब लोगों की प्रवृति होती है कि वो मतलब की जगह खोजते रहते हैं। लेकिन अच्छे लोगों की एक खराब आदत होती है कि वे अपने एकांत में रहते हैं। वे आपसे मिलने नहीं आएंगे क्योंकि उन्हें आपसे कोई काम नहीं होगा। हमें कोशिश करनी चाहिए कि अच्छे लोगों को खोजें।

मैंने नियम बना लिया कि जिस भी शहर में रहूं अच्छे लोगों की जानकारी इकट्ठा करूं। जिसके बारे में सब अच्छा ही बोलें उनसे जुड़ना। समाजसेवा में भी ऐसा ही है कुछ लोग बिना फंड के काम करते हैं उन्हें फर्क नहीं पड़ता फंड आये या नहीं वे श्रमदान से भी समाजसेवा करते हैं।

इसी प्रकार अनुपम मिश्र मेरी करीबी आत्मीयता रही। जब भी हम मिलते थे घंटों चर्चा करते थे। बंबई में अनुपम मिश्र जी ही ने कुछ गांधीवादी मित्रों से मुलाकात करवाई।

गांधी परीक्षा वाले सोमैया काका
बंबई में गाधीवादी तुलसीदास सोमैया जो कि अब 80 वर्ष से उपर के हो गए हैं, अद्भुत काम कर रहे हैं। महात्मा गांधी की विश्व की सबसे बड़ी वेबसाईट mkgandhi.org को ये चलाते हैं जिसमें इन्हें गांधी का वर्धा आश्रम और जलगांव का गांधी ट्रस्ट भी मदद करता है लेकिन पूरी जिम्मेदारी इस वेबसाईट की वे सम्हालते हैं। ये महात्मा गांधी का इतना बड़ा वेबसाईट है कि इस पर करोड़ों जेनुइन विजिटर्स हैं।

श्री सोमैया ने बताया कि 129 देशों यानि पांचों महाद्वीपों के लोग इस वेबसाईट को विजिट करते हैं। ऐसा लगता है पूरा विश्व आज गांधी की तरफ देख रहा है।

सोमैया जी महाराष्ट्र की जेलों में घूमते थे और गांधी की आत्मकथा कैदियों को नि:शुल्क बांटते थे और फिर जितनी किताबों की जरूरत होती थी उतनी किताबें उपलब्ध कराते थे। फिर एक महीने बाद कैदियों की परीक्षा लेते थे ये देखने कि कैदियों ने कितना और कैसी मेहनत से गांधी की आत्मकथा को पढ़ा।

सोमैया जी का ये कार्यक्रम इतना सफल हुआ कि जेल अधिकारियों ने उनसे कहा कि हमारा स्टाफ भी ये परीक्षा देना चाहता है। आज महाराष्ट्र की जेलों में पूरा स्टाफ, कैदी गांधी परीक्षा दे रहे हैं। धीरे—धीरे स्कूल—कॉलेजों में भी गांधी परीक्षा देने में छात्रों ने रूचि दिखाई और परीक्षा दे रहे हैं उन्हें भी सर्टिफिकेट भी दिया जाता है। आज सोमैया जी को मुंबई में गांधी परीक्षा वाले काका के नाम से जाना जाता है।

 

गांधी की किताब की ताकत खूंखार अपराधी को दिलाया सम्मान

गांधी परीक्षा वाले काका के प्रयास से महाराष्ट्र के कई खूंखार अपराधी आज गांधीसेवा का काम कर रहे हैं। एक समय में खूंखार अपराधी रहा लक्ष्मण गोले अपराध की दुनिया से बाहर आया। इसके उपर लगभग 20 संगीन मुकदमे थे। उस समय मीडिया में लक्ष्मण गोले बड़ी खबर हुआ करता था। चूंकि वह अपराधी बड़ा था तो कोई गवाही देने तैयार नहीं होता था और वह छूट जाता था।

उसने जज को चिट्ठी लिखकर कहा कि जो गुनाह मैंने किए हैं मैं उनको स्वीकार करना चाहता हूं। उसे बताया गया कि तुम्हारे खिलाफ तो कोई गवाह है ही नहीं तो लक्ष्मण ने कहा कि मैं खुद अपने खिलाफ गवाह हूं और गांधी की आत्मकथा पढ़ने के बाद मुझे ये लगता है कि अब मैं सच ही बोलूंगा भले ही मुझे फांसी की सजा हो आजीवन कारावास की सजा हो। उसे सजा हुई। जज ने मिनिमम सजा दी। उसने सजा पूरी की और सजा के दौरान ही उसने अनेक कैदियों की जिंदगी बदल दी।

आज लक्ष्मण गोले महाराष्ट्र की जेलों में मुख्य अतिथी के रूप में जाते हैं। एमबीए, एलएलबी, कॉलेजों में इन्हें विजिटिंग प्रोफेसर्स के रूप में बुलाया जाता है जबकि ये खुद 7 वीं तक पढ़े हैं। ये गांधी की किताब की ताकत है कि एक अपराधी को सम्मानित व्यक्ति बना देती है।

गांधी के समय की परिस्थितियां और आज की परिस्थितियां
समस्यायें तब भी खूब जटिल थीं आज भी हैं उनके स्वरूप थोड़े बदले हैं। मैं इसको ऐसे सोचता हूं कि आज गांधी होते तो किसी समस्या का क्या समाधान सोचते या करते? वो नहीं हैं पर हम उस दिशा में तो सोच सकते हैं कि गांधी किस तरह चीजों को जोड़ते। उनका एक विजन था। इस तरह के जो लोग होते हैं जिन्हें हम विभूति कहते हैं वो सिर्फ अपने समय का नहीं अपने से आगे के समय का भी सोचते हैं। चाहे आप बुद्ध को देख लें या महावीर को। उस समय के लोग उन्हें इतना नहीं मानते थे जितना आज मानते हैं।

अपनी हत्या से एक हफ्ता पहले गांधी ने एक इंटरव्यू दिया था। तब इंटरव्यू लेने वाले पत्रकार ने भी ऐसा ही सवाल पूछा था कि बापू अब तो देश आजाद हो गया तो समस्यायें खत्म हो गईं, आजादी की लड़ाई का काम तो खत्म हो गया अब आप क्या करेंगे?

गांधीजी ने जो उत्तर दिया वह आज भी महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा देखो मेरी दृष्टि से देश केवल एक चौथाई आजाद हुआ है। पत्रकार ने प्रतिप्रश्न किया कैसे? अंग्रेज तो चले गए अब हम एक संप्रभु राष्ट्र हैं। गांधीजी ने कहा ये केवल राजनीतिक आजादी मिली है कि अब हम किसी के गुलाम नहीं हैं। अभी तीन आजादियां और हमारे देश के लोगों को मिलनी चाहिए। सामाजिक आजादी, आर्थिक आजादी और आध्यात्मिक आजादी।

सामाजिक आजादी: छूआछूत, जातपात जब तक खत्म नहीं होगी तब तक एक बड़ा वर्ग तो आजाद ही नहीं होगा। इसके लिए हमें रचनात्मक आंदोलन की जरूरत है।

आर्थिक आजादी: एक तरफ बेहिसाब संपत्ति वाले राजे—रजवाड़े हैं तो दूसरी तरफ लोगों के पास तन ढंकने के लिए चींथड़ा नहीं है। वो आर्थिक आजादी जरूरी है जिसमें लोगों के पास उतना तो हो जिसको आज हम बेसिक मिनिमम कहते हैं।

आध्यात्मिक आजादी: जो जिस धर्म का हो उसे उसका पालन करने की आजादी हो। आपसी भाईचारा हो। वो समस्यायें तब थीं आज भी हैं पर उतनी विकट नहीं हैं। कुछ निहित स्वार्थी भले ही भड़काते रहें लेकिन यूथ बहुत सारी चीजों में आगे निकल गए हैं। वह इस चीज को नहीं मानता।

एक समस्या जो सबसे बड़ी उस समय से ज्यादा आज विकट है वह है प्रकृति और पर्यावरण नष्ट हो रहा है। गांधी अगर आज होते तो उनका सबसे बड़ा ध्यान पर्यावरण की तरफ होता। वे उस समय भी पर्यावरण को लेकर चिंतित थे। तब प्रकृति का उतना नाश नहीं हुआ था। आज पेड़ लगाने की कोई बात नहीं करता सड़कें चौड़ी चाहिए मगर पेड़ कितने कट रहे इस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा। अपने आसपास के पेड़ लोग कटवा देते हैं। खाना—पीना सही नहीं है। गांधी होते तो इस दिशा में जरूर रचनात्मक काम करते। हम मनुष्य होकर तीन समय जहर खा रहे हैं। ऐसा आहार खाकर तो सोच स्वस्थ हो ही नहीं सकती। आयुर्वेद भी कहता है जैसा आहार वैसा विचार। संभवत: अगली किताब ऐसे ही विषय पर हो सकती है।

लोक खुद जिम्मेदार नहीं तो शिकायत क्यों?
सोशल मीडिया को हमने ही खराब किया है। हम ब्यूरोक्रेसी, राजनीतिज्ञों को, मीडिया को गाली देकर अपने आप में खुश हो सकते हैं। लोकतंत्र में सबसे बड़ा तो लोक है। अगर लोक ही अपनी भूमिका सही ढंग से नहीं निभा रहा तो उस लोक को क्या अधिकार है? आधी आबादी अगर अपना वोट ही नहीं डाल रही है तो उसे क्या हक है ये कहने का कि राजनीति खराब है, ब्यूरोक्रेसी खराब है? आप अपना काम नहीं कर रहे हैं।

यहां गांधी प्रासंगिक हैं जनता के लिए। हम हमारे नागरिक कर्तव्य हम भूल गये हैं। कहीं भी थूकना कचरा फेंकना पड़ोसी की दीवार के पास। लोग कहते हैं ये सरकार की जिम्मेदार है पर हमारे नागरिक कर्तव्य जिम्मेदारी क्या हैं यह हम भूल गए। गांधी जड़ों की बात करते हैं, वे कहते हैं अपनी आवश्यकताएं कम करें। हम अपने उपर कोई प्रतिबंध नहीं चाहते। कर्तव्य हमने बहुत पीछे छोड़ दिया पर अधिकार जरूरत से ज्यादा चाहते हैं।

उस समय महिलाओं ने अपने मंगलसूत्र तक तिलक फंड में, कस्तूतबा फंड में दे दिए देशभक्ति के लिए। कई लोगों ने भूदान आंदोलन में 50 लाख एकड़ जमीन दे दी। उस समय जनता में जागरूकता का स्तर अद्भुत था। त्याग के लिए हर आदमी तैयार था। गरीब से गरीब आदमी भी कुछ न कुछ देने की स्थिति में रहता था।

आज हम देखते हैं तो लगता है हमें क्या मिलेगा? जनता इसके लिए वोट करे कि हमें किसी ने कुछ दिया है। अब लोग लालच में वोट दे देते हैं, जो जनता खुद अपने आपको बेच रही है अपने स्वार्थ के लिए फिर आप कैसे कह सकते हैं कि गलती किसकी है। डेमोक्रेसी के बारे में कहा जाता है, यू गेट व्हाट यू डिजर्व। अगर हमने गलत प्रतिनिधी चुना है तो ये हमारी गलती है।

गांधी के युग में उनके जाने के बाद विनोबा के समय में भी ये जागृति थी। अपनी पीढ़ी में नई पीढ़ी में मैं ये कमी देखता हूं। जरूरत है कि कुछ लोग जो घर परिवार से उपर उठकर किसी भी रूप में समाज को जगाने का काम करें।

पत्रकारिता का भी दायित्व है कि आप भी तो सकारात्मकता की खबरें प्रकाशित करें। ऐसा तो है नहीं कि समाज में अच्छे काम नहीं हो रहे। कई लोग अच्छा काम कर रहे हैं। मगर उनके बारे में नहीं छापा जाता। जितना स्पेस बॉलीवुड के ग्लैमर को मिलता है उतना सामाजिक सरोकार से जुड़े लोगों या उनके कामों को नहीं मिल पाता।

हमारे उपर है कहां असहयोग करना है कहां नहीं
गांधी अगर होते तो यही कहते कि जो चैनल या अखबार अच्छा नहीं दिखा रहे या नहीं छाप रहे उन्हें बंद करो असहयोग करो।

गांधीजी ने तय किया था कि वे सजातीय शादियों में नहीं जाएंगे, यह गांधी जी का असहयोग था। जहां वर—वधु अलग—अलग जाति के होते थे वे जरूर जाते थे। हमें किसको सहयोग करना है किसको असहयोग यह हमारे उपर है। यह सामाजिक, राष्ट्रीय, अंतराष्ट्रीय स्तर पर किया जा सकता है।

गांधी पर आक्षेप हैं तो उत्तर यहां मिलेंगे
अगर निहित स्वार्थों के लिए कोई वर्ग किसी भी महापुरूष की छवि खराब करने की कोशिश करता है तो हमारा यह प्रयास होना चाहिए कि हम जिस भी क्षेत्र में हैं अगर हम समाज के शुभचिंतक हैं तो उन्हें सही बात बताने का प्रयास करें।

कस्तूरबा और गांधी की चार्जशीट में उन सब आक्षेपों के उत्तर दिए गए हैं जो समय—समय पर गांधी पर खड़े किए जाते हैं। आरोप रंगीन हो सकता है मगर सच का कोई रंग नहीं होता। सच सनसनी नहीं हो सकता। सच पारदर्शी, सरल, सहज होता है। उत्तर हम तभी दे पाएंगे जब सच को जानेंगे। इसके लिए हमें अध्ययन करना होगा क्योंकि गांधी जी तो हैं नहीं। टॉलस्टाय लुई फिशर को पढ़ें। अविश्वास की एक सीमा है। आप उन पर उनके सहयोगियों, मित्रों पर विश्वास नहीं कर सकते। पर उन पर तो विश्वास कर सकते हैं जो इस देश के नहीं हैं। गांधी का से तो उनका तो कोई लेना देना नहीं रहा होगा।

पहली किताब।
पहली कविता तब छपी जब मैं बीएससी प्रथम वर्ष में था। बीचे—बीच में ऐसे दौर आए कि जब लिखना पढ़ना कम ज्यादा होता रहा। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी और पीएचडी करने के दौरान व्यस्तता ज्यादा हो गई। जब ये तय हो गया कि जिंदगी भारतीय राजस्व सेवा में ही गुजारनी है तो छूटे हुये सिरे को फिर से पकड़ा।

सबसे पहला व्यंग्य कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ जा बैल मुझे बख्श। इसके बाद ये सिलसिला चलता रहा। हर तीन—चार साल में एक——एक किताब जुड़ती चली गई और अब तक 12 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। रिटायरमेंट के बाद मैं लेखन पूरा समय दे पाउंगा ऐसा मुझे लगता है।

प्रकाशित किताबें:—
जा बैल मुझे बख्श
बदनाम आदमी तथा अन्य कहानियां
गांधी जीवन और विचार
शंभुनाथ का तिलिस्म
बांसपुर की उत्तरकथा
देवदारों के बीच
कस्तूरबा और गांधी की चार्जशीट
मिस यूनिवर्स व्यंग्य संग्रह
बेटा व्हीआईपी बन व्यंग्य संग्रह
बाईसवीं सदी का गांव कहानी संग्रह
अंग्रेज कोठी
आयकर एक परिचय

मल्हार मीडिया से उम्मीद सकारात्मक खबरों को पर्याप्त स्पेस मिलेगा।

साथ में आशीष पटैरिया और आकाश।

 


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