पंकज शुक्ला।
मध्यप्रदेश में नई सरकार है और मुख्यमंत्री कमलनाथ सहित सभी मंत्री कांग्रेस के वचन पत्र में किए गए वादों को पूरा करने में जुटे हैं। चुनावी वादों में तो आमतौर पर लोकप्रिय घोषणाएं ही की जाती हैं मगर सरकार बनने के बाद एक रोडमैप पर काम करने की जरूरत होती है जो प्रदेश के भविष्य को आकार देता है।
कृषि जैसे कुछ बुनियादी विभागों के लिए यह बात अधिक गंभीरता से लागू होती है। मप्र में कांग्रेस की सरकार बनते ही मुख्यमंत्री कमलनाथ ने शपथ लेने के दो घंटे के अंदर किसानों के कर्ज माफी फाइल पर हस्ताक्षर किए। यह तेजी रेखांकित करती है कि नाथ वाकिफ हैं कि इस वादे ने जीत में कितनी बड़ी भूमिका निभाई। लेकिन अब बात केवल वचन के पूरा करने की नहीं रह गई है। प्रदेश के कृषि मंत्री होने के नाते सचिन यादव की जिम्मेदारी बन गई है कि वे प्रदेश की कृषि को ऐसा तंत्र दें जो कर्ज माफी जैसी नौबत न आने दे।
कृषि हमारी सरकारों की प्राथमिकताओं का विषय रहा है। मप्र की पूर्ववर्ती शिवराज सरकार ने खेती को लेकन नीति और प्रयोग के स्तर पर कई कदम उठाए। अलग से कृषि कैबिनेट और कृषि बजट का प्रावधान किया, फसलों को लेकर प्रयोग करवाए, कृषि विशेषज्ञों और अफसरों की टीम को बैठा कर रोडमैप बनाने की कवायद की।
मगर, इन सब का अधिक हासिल न दिखाई दिया। किसान आत्महत्या करते रहे, फसल बंपर हुई तो उसके मुंह मांगे दाम न मिले और उसे सड़क पर फेंक देना पड़ा। और फसल अच्छी न हुई तो किसानों को कर्ज भरना मुश्किल हो गया। कभी मौसम की मार तो कभी बाजार और बिचौलियों की लगड़ी, किसान सुविधा की स्थिति में रहा ही नहीं। तो फिर ऐसे रोडमैप और मंथन का क्या? ये कारगर क्यों नहीं होते?
सवाल मंशा का भी है और काम का भी। कृषि नीतियों के जानकार देविंदर शर्मा बताते हैं कि सरकारें और नीति निर्माता विश्व बैंक, आईएमएफ व क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों की बातों का आंख बंद कर पालन करते हैं। बकौल, देविंदर जी ये सिफारिशें ही कृषि संकट पैदा करती हैं। यानि, मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की। तंत्र तय ही नहीं कर पाता कि वह उत्पादकता बढ़ाए या बाजार बनाए, खेती का जोखिम कम करे या लाभकारी मूल्य की पहल करे।
सरकार जीएम फसलों को यह कह कर लाना चाहती है कि हमें उत्पादकता बढ़ाने की जरूरत है (वैज्ञानिक तथ्य कहते हैं कि विश्व में कोई जीएम फसल नहीं है जिससे फसल की उत्पादकता बढ़ती हो) जबकि अधिक फसल हो जाने पर किसान उसे सड़क पर फेंक देने को मजबूर है। सरकार के पास उसे सहित कीमत पर खरीदने और भंडारण करने की क्षमता नहीं है।
यही किसान जब देखादेखी एक ही तरह की फसल बोने लगते हैं तो उपज का असंतुलन होता है और कई अन्य फसलों की कमी हो जाती है तो सरकार उन खाद्य सामग्री को विदेशों से महंगें दामों पर आयात करने लगती है।
इसे यूं समझिए, जब प्याज का बंपर उत्पादन होता है तो वह 50 पैसे किलो में बिकती है। यानि करीब साढ़े 4 रुपए किलो की लागत में 4 रुपए का घाटा। यह घाटा सरकार पूरा नहीं करती। मगर जब प्याज की कम उपज होती है और महंगाई बढ़ती है तो मलेशिया से 10 से 12 रुपए किलो के दाम पर प्याज आयात होती है। सरकारी खजाने अधिक पैसा गया मगर किसान खाली हाथ ही रहे। ऐसा ही दाल, आलू, टमाटर, गन्ना आदि के साथ भी होता है। हम किसानों को उनकी उपज के सही दाम नहीं देते और फसल नहीं होती तो विदेशों से दोगुने-तीगुने दाम पर आयात करते हैं।
नए कृषिमंत्री सचिन यादव कृषि को जानते हैं। वे अपने शुरुआती कार्य के दौरान सभी की बात सुन कर निर्णय करने की नीति पर चल रहे हैं। किसानों को फसल का सही दाम, उसके बाजार और भंडारण की व्यवस्था उनकी प्राथमिकताओं में शामिल है। वचन पत्र को पूरा करना उनका मार्ग हो सकता है, मगर असली लक्ष्य तो खेती-किसानी की मूल समस्याओं से निपटना है। इस दिशा में वे बढ़ गए तो गाढ़ी राजनीतिक रेखा खींच पाएंगे।
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