अरविंद तिवारी।
मध्यप्रदेश में 15 साल बाद सत्ता में वापसी का सपना देख रही कांग्रेस के पास प्रदेश में 40 से ज्यादा विधानसभा सीटों पर उम्मीदवारों के ही लाले पड़े हुए हैं। इसमें से आधी सीटें इंदौर, उज्जैन संभाग की हैं। इनमें से कुछ तो ऐसी हैं, जहां 2018 तो दूर 2023 के चुनाव में भी पार्टी के पास सम्मानजनक लड़ाई लडऩे वाला उम्मीदवार नहीं है।
इस हालात से वाकिफ होते हुए भी पार्टी के नेता बेखबर से हैं। इन सीटों पर पार्टी को ताकत देने के लिए फिलहाल तो कोई प्रयास हो नहीं रहे हैं, जबकि चुनाव को 6 महीने ही बचे हैं।
शुरुआत इंदौर 2 और इंदौर 4 से करें। इंदौर 2 में पार्टी 1993 से लगातार चुनाव हार रही है। पिछले चुनाव में यहां कांग्रेस उम्मीदवार को 90 हजार से ज्यादा मतों से शिकस्त मिली थी। इसके पहले कृपाशंकर शुक्ला, डॉ. रेखा गांधी, अजय राठौर, और सुरेश सेठ जैसे दिग्गज यहां कैलाश विजयवर्गीय और रमेश मैंदोला के हाथों शिकस्त खा चुके हैं।
एक जमाने में कांग्रेस के गढ़ रहे इस विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस के पास कोई ऐसा दावेदार ही नहीं है, जो पार्टी के लिए सम्मानजनक लड़ाई लड़ सके। भाजपा की ओर से मैदान में रमेश मैंदोला या फिर आकाश विजयवर्गीय मैदान संभालें कांग्रेस के पास एक भी ऐसा नाम नहीं है, जो मुकाबले में आ सके। मोहन सेंगर और चिंटू चौकसे जैसे जो नाम कांग्रेस की प्राथमिकता में सबसे ऊपर हैं, वे चुनावी लड़ाई में बहुत पीछे माने जा रहे हैं।
कुछ ऐसे ही हालात इंदौर 4 के हैं। यहां कांग्रेस 1990 यानि 28 साल यानि 6 चुनाव से लगातार चुनाव हार रही है। 1990 में कैलाश विजयवर्गीय ने यहां भाजपा का खाता खोला था, उसके बाद तीन चुनाव लक्ष्मणसिंह गौड़ ने जीते और दो जीत मालिनी गौड़ के खाते में दर्ज हुई। यहां भी 1990 में इकबाल खान की हार के बाद कांग्रेस कई प्रयोग कर चुकी है, लेकिन सफलता ने कांग्रेस से दूरी ही बनाए रखी है। उजागर सिंह, ललित जैन, सुरेश मिंडा और दो बार गोविंद मंघानी यहां शिकस्त खा चुके हैं।
इस बार यहां कांग्रेस प्रयोग सुरजीत सिंह चड्ढा या एक बार फिर सुरेश मिंडा जैसे नामों पर कर सकती है। मुकाबले में चाहे मालिनी गौड़ रहें या फिर एकलव्य गौड़ या पार्टी कृष्णमुरारी मोघे, शंकर ललवानी या कैलाश शर्मा जैसे किसी चेहरे को सामने लाए, कांग्रेस का प्रयोग आज की स्थिति में तो सफल होता नजर नहीं आ रहा है।
कांग्रेस का एक बड़ा वर्ग यहां से प्रदेश कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता के.के. मिश्रा और शहर कांग्रेस अध्यक्ष प्रमोद टंडन को सम्मानजनक लड़ाई लड़ने वाला दावेदार मान रहा है, लेकिन दोनों की ही चुनावी राजनीति में कोई रुचि नहीं है।
इंदौर 1 और इंदौर 5 में भी कमोवेश यही हालत है। इंदौर 1 में कांग्रेस के दावेदारों की सूची बहुत लंबी है। पिछला चुनाव पार्टी से बगावत कर लड़े कमलेश खंडेलवाल को उम्मीद है कि चुनाव के पहले उनकी कांग्रेस में वापसी हो जाएगी। लेकिन इस क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट के दूसरे सारे दावेदार खंडेलवाल के खिलाफ मोर्चा खोलकर बैठे हैं। चाहे संजय शुक्ला हो या दीपू यादव या फिर गोलू अग्निहोत्री या अनुरोध जैन। सब एक स्वर में कहते हैं कि हमारे बीच से चाहे जिसे मौका दे दो, बस कमलेश हमें मंजूर नहीं।
इन चारों के लिए यहां की चुनावी लड़ाई बहुत कठिन है। संजय शुक्ला और दीपू यादव को सुदर्शन गुप्ता एक-एक बार शिकस्त दे चुके हैं। गोलू अग्निहोत्री पिछली बार टिकट पाने के बाद भी चुनाव नहीं लड़ पाए थे। इस बार वे फिर तैयारी में हैं, लेकिन गुप्ता से मुकाबला उनके लिए भी आसान नहीं है। अनुरोध जैन अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाने व चर्चा में आने के लिए नए-नए उपक्रम कर रहे हैं।
संजय शुक्ला ने 6 महीने में यहां अपनी सक्रियता बहुत बढ़ाई है। भोजन-भंडारों के माध्यम से वे वार्ड-वार्ड नाप रहे हैं। उनके लिए यह विधानसभा चुनाव लडऩे का अंतिम मौका रहेगा, इसलिए वे कोई कसर बाकी नहीं रख रहे हैं। इस सबके बावजूद यहां के सारे दावेदार सुदर्शन गुप्ता के वापस मैदान संभालने की स्थिति में बहुत फीके रहने वाले हैं।
इंदौर 5 में भी कांग्रेस प्रयोग की स्थिति में ही है। यहां पार्टी के दावेदारों की सूची बहुत लंबी है, लेकिन उतनी ही कमजोर भी। पिछला चुनाव हारे पंकज संघवी हों या इसके पहले लगातार दो चुनाव हारी शोभा ओझा, डॉ. आनंद राय हों या नए नवेले दीपक जोशी (पिंटू) हों या फिर अमन बजाज, अरविंद बागड़ी हो या फिर शेख अलीम, छोटे यादव हों या अर्चना जायसवाल। एक नाम 1998 में यहां से चुनाव लड़कर विधायक बनने वाले सत्यनारायण पटेल का भी है। सबकी राजनीति की शैली अलग-अलग है।
ये सब अपने-अपने क्षेत्र के तो क्षत्रप हैं, लेकिन पूरे विधानसभा क्षेत्र के मान से इनका दायरा बहुत सीमित है। यहां से तीन बार के विधायक महेंद्र हार्डिया चुनाव लड़े या कोई और मैदान संभाले, कांग्रेस मुकाबले में भी आ सकेगी, इसको लेकर संशय है। पिछले तीन चुनाव में हार के बावजूद कांग्रेस यहां कोई ऐसा नेता चिह्नित नहीं कर पाई, जो पार्टी को मुकाबले में ला सके।
महू में कांग्रेस यह दुआ कर रही है कि किसी भी हालत में इस बार कैलाश विजयवर्गीय मैदान न संभालें। विजयवर्गीय के मैदान में न होने की स्थिति में ही कांग्रेस के लिए अंतरसिंह दरबार थोड़ी संभावना खड़ी कर सकते हैं।
यहां भाजपा के पास जहां रामकिशोर शुक्ला, कविता पाटीदार, कंचनसिंह चौहान जैसे मजबूत विकल्प हैं, वहीं कांग्रेस का दायरा बहुत ही सीमित है। कांग्रेस जैसी पार्टी के लिए जो महू में 1977 की जनता लहर में भी जीती है, यह दुर्भाग्य की बात है कि सम्मानजनक लड़ाई लडऩे के लिए यह कामना करना पड़ रही है कि बस भाजपा कैलाशजी को उम्मीदवार न बनाए।
लेखक इंदौर प्रेस क्लब के अध्यक्ष हैं।
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