राकेश् दुबे।
मध्यप्रदेश की गौ प्रेमी सरकार के राज में गाय को आवारा छोड़ना अपराध माना जाएगा, ऐसा कानून बनाने जा रही है। पंद्रह साल बाद सत्ता में लौटी सरकार की नई व्यवस्था में जुर्माने को भी दोगुना करने की तैयारी है। जो लोग दूध निकालने के बाद अपनी गाय को खुला छोड़ देते हैं, उनसे अब ढाई सौ के स्थान पर 500 रुपये अर्थ दंड वसूलने का नियम बनाया जा रहा है।
यह सब कागज पर हो रहा है। सरकार के प्रयास से इतर इन दिनों कुछ प्रयास हुए हैं जिनसे सरकार कुछ सीख सकती है। सीहोर जिले की बुदनी विधानसभा के गाँव डोबी में गौशाला की स्थापना और गौ रक्षा से उन्नति पर लिखा गया एक पत्र।
डोबी का प्रयास सामूहिक है सामाजिक है तो पर्यावरणविद कृष्ण गोपाल व्यास का एकल। दोनों सरकार को कुछ सिखाते हैं। डोबी सिखाता है सन्गठन तो व्यास जी का पत्र एक सम्पूर्ण माडल उन आर्थिक सम्भावनाओ का देता है जो गौ शाला से जुडी हैं।
पिछले दिनों मुख्यमंत्री बनने के बाद कमलनाथ ने अपने गृह जिले छिंदवाड़ा में कहा था कि उन्हें गोमाता सड़क पर नहीं दिखनी चाहिए। गायों के लिए प्रदेश के हर जिले में जल्द से जल्द गौशालाओं का निर्माण करने का एलान भी उन्होंने दोहराया।
नवंबर में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष के रूप ने अपने ‘वचन पत्र’ में भी उन्होंने यही कहा था कि उसकी सरकार बनने पर वह हर ग्राम पंचायत में गौशाला खोलेगी और इसके संचालन के लिए अनुदान देगी।
डॉ राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि जिन्दा कौमें 5 साल इंतजार नहीं करती। मिसाल डोबी बना है। बिना सरकारी सहायता के गौ वंश की चिंता। सरकार अभी ग्राम पंचायत तक इसे कैसे ले जाए इस पर विचार कर रही है, व्यास जी का मुख्यमंत्री को लिखा पत्र अनुत्तरित है।
एक बड़े उद्योग से सेवा निवृत्त अधिकारी भी भोपाल के पास गौ दुग्ध का व्यापारिक प्रयोग कर रहे हैं। सरकार को सीखना चाहिए इन सबसे इनके अनुभवों से।
यूँ तो सहकारी क्षेत्र में दुग्ध उत्पादन को बढ़ावा देने का कार्य स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय से ही गुजरात में शुरू हो चुका था परन्तु दुग्ध उत्पादन में बढ़ोत्तरी का आन्दोलन 60 के दशक में कृषि क्रान्ति के समानान्तर ही शुरू हुआ जिसके चलते आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध व सह उत्पादों का उत्पादक देश है।
भारत के किसानों ने गौ वंश का उपयोग अधिकाधिक दुग्ध उत्पादन में करने के साथ उसके पालन व भरण-पोषण की जो अर्थव्यवस्था विकसित की थी वह छिन्न-भिन्न सी है। इस ओर किसी का ध्यान नहीं है। मध्यप्रदेश इस मामले में नेतृत्व कर सकता है।
मुख्यमंत्री और उनकी पार्टी गौ प्रेमी है, मनोज श्रीवास्तव जैसे उर्वर मष्तिष्क के आईएएस के पास पशु पालन विभाग है व्यास जी जैसे चिंतक है और डोबी के जनता से स्वप्रेरणा से इस काम में लगे आम जन।
राज्य के हर कस्बे से लेकर गांव तक में आज दूध देना बन्द करने वाली गायों और बछड़ों को किसान अपने घर से बाहर करने पर न केवल मजबूर हो रहे हैं बल्कि सरकारी सजा के खौफ से भी भयभीत हो रहे हैं।
दूध देना बन्द करने पर किसान या गौपालक उसका खर्चा उठाने में असमर्थ हैं और राज्य में गौशालाओं की संख्या सीमित है। अतः उनके दूध से अपनी अर्थव्यवस्था को ठीक रखने वाले अब उन्हें सडक सहित अन्य सार्वजनिक स्थानों पर धकेल देते हैं। इसका लाभ अब स्थानीय संस्थाएं उठा रही हैं जो पशुओं की मददगार होने का दावा तो करती हैं।
वे गौ पालक से एक गाय या पशु के लिए तीन से लेकर छह हजार रुपया तक वसूल करके अपने आश्रय स्थलों तक ले जाती हैं। गाय खूंटे से बंधी नहीं रह सकती और स्थानीय संस्था उन्हें पालती नहीं है। आवारा मवेशी को पकड़ने तक ही अपना कर्तव्य मानती है। सोचने की जरूरत है, समाज को और उससे बनी स्थानीय संस्था को।
गंभीर प्रश्न यह है कि यदि सरकार की ठीक नीति नहीं बनाती है तो कोई भी किसान गाय क्यों पालेगा? वह गाय के स्थान पर भैंस पालना पसन्द करेगा जिसके दूध देना बन्द करने पर भी वह उसे बेच कर नई भैंस ला सके दूसरी ओर ‘बीफ’ का निर्यात लगातार बढ़ा है और देश की छह बड़ी ऐसी निर्यातक कम्पनियया उन मालिको की है जिनके में गौ को पूज्य माना गया है। समाज से सरकार को और समाज को व्यक्तिगत प्रयास से सीखना होगा। गाय तो मूक पशु है, दूध देती और मुद्दा बनने पर वोट भी
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