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Tue, 20 May 2025

आम के आम, गुठली के भी दाम

मीडिया            Jan 11, 2016


चकरघिन्नी "आम के आम, गुठली के भी दाम" कहावत सुनी है न! चरितार्थ कर रहा मप्र जनसम्पर्क विभाग। हरदिन जारी होने वाले लाखों रुपए के विज्ञापन से कमिशन की मोटी मलाई का दौर पूरी नौकरी के दौरान चलता है। चाकरी के नाम पर नेताओं, अधिकारियों की चापलूसी और हर वक्त घिरे रहने वाले दलालों की भीड़ इनका शगल हो गया है। नौकरी से विदाई होने पर इनके लिए अधिमान्यता की रेवड़ी का प्रावधान भी है। कर्मचारी को जिला और अधिकारियों के लिए राज्य स्तरीय अधिमान्यता कार्ड की सुविधा कलम घिस्सु पत्रकारों के लिए तमाचे से कम नहीं है। बिना चार लफ्ज लिखने की सलाहियत रखने वालों को रेलवे की कन्सेशनल यात्रा और धड़धड़ाते हुए टोल पार कर जाने की परमिशन और दूसरी तरफ पत्रकार के लिए खबरों की उम्मीद पर वल्लभ भवन में इन्ट्रि के लिए कतार में लगने की बेबसी। वास्तविक पत्रकार इस अहम में ही खपता रह जाता है कि वह हकीकत में अखबार नवीस है तो किसी की चौखट बरदारी, जी हुजूरि या सिफारिश पर अधिमान्यता का तगादा क्यों लगाए और कलम से बेवास्ता लोग दो-पान्च हजार रुपये से जनसम्पर्क बाबुओं की मुट्ठी गरम कर अधिमान्य तमगा अपने नाम करवा लेता है। बड़े अखबारों के सीनियर रिपोर्टर्स से भरी अधिमान्यता समिति भी इस सूत्र पर काम कर रही है 'भले सौ फर्जी लोगों को अधिमान्यता मिल जाए, लेकिन एक असल पत्रकार (जिसकी सूरत उन्हें पसंद नहीं) का कार्ड नहीं बनना चाहिए।' पुछल्ला बीमारी और बीमार के नाम से भले सबका दिल पसीज जाता हो। जनसम्पर्क बाबुओं के मुह इससे भी लार टपकती है। स्वास्थ्य सहायता राशि की बन्दरबान्ट का अनुपात आधे आधे का है। दिसंबर माह में अचानक विभाग को मिली चन्द लाख रुपए की रकम को ठिकाने लगाने जिन बीमारियों का जिक्र किया गया है, देख-सुनकर ही गडबडझाले का अन्दाज़ आसानी से हो जाएगा। अब थोड़ा एक्च्युअल पत्रकार अपने कार्यकाल पर नजर दौड़ ले कि उन्हें अपने परिवार के इलाज के लिए कभी कुछ मिल पाया क्या?


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