डॉ.प्रकाश हिंदुस्तानी।
विश्व बैंक के अध्यक्ष रह चुके जेम्स वोलफेंसन ने वाशिंगटन पोस्ट में 10 नवंबर 1999 को एक लेख लिखा था, जिसका विषय था वाइस ऑफ दी पुअर। यह लेख कई मायनों में ऐतिहासिक था। सबसे बड़ी बात जेम्स वोलफेंसन ने यह कही कि स्वतंत्र और सक्रिय प्रेस कोई विलास का साधन नहीं है। एक स्वतंत्र प्रेस न्यायोचित विकास के लिए एक महत्वपूर्ण साधन है। अगर आम लोगों को अपनी बात कहने का हक न हो, भ्रष्टाचार और भेदभावपूर्ण विकास पर पैनी निगाहें न हो, तो आप इच्छित परिवर्तन के लिए लोक सहमति तैयार नहीं कर सकते। यहां वोलफेंसन की इस बात से साफ नहीं होता कि लोक सहमति और विकास में कोई समानुपातिक संबंध है पर इतना तो तय हो जाता है कि विश्व बैंक जैसी पूंजी वाली संस्था के अध्यक्ष रह चुके विशेषज्ञ ने भी मीडिया और विकास के संबध को जोड़ा है।
यहीं बात अमृत्य सेन ने अपनी किताब डेवलपमेंट एज फ्रीडम में लिखी है। अमृत्य सेन के अनुसार मानवीय स्वतंत्रता विकास का साधन भी है और साध्य भी। अगर मीडिया के विकास से मिलने वाले विचार और अभिव्यक्ति की आजादी के रूप में साधन से इच्छित विकास के परिणाम को प्राप्त किया जा सकता है। 1948 में यूनिर्वसल डिक्लीयरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स के तहत विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मनुष्य का मौलिक अधिकार माना गया है और यह विकास की पहली और प्रमुख कड़ी है। सशक्त और मजबूत मीडिया के विकास से ही यह मौलिक अधिकार सुरक्षित रह सकता है।
मीडिया के विकास को आप कई रूप में ले सकते हैं। अगर मीडिया स्वतंत्र रूप से और बिना किसी दबाव के काम करे, मीडिया में विचार और अभिव्यक्ति की बहुलता और विविधता हो, मीडिया के सफल संचालन में सरकारों की नियतियां अनुकूल हों, तो एक सुदृढ़ मीडिया प्रजातंत्र की धुरी बन जाता है। पीपा नॉरेस ने अपनी किताब पब्लिक सेंटीमल न्यूज मीडिया एंड गवर्नेंस रिफॉर्म में यह स्थापित करने की कोशिश की है कि कैसे एक स्वतंत्र मीडिया सुशासन और प्रजातंत्र को प्रभावित करता है। नॉरेस ने सशक्त मीडिया की आदर्श भूमिका की चर्चा की और कहा कि समाचार मीडिया अपने कई कारणों से विकास को बढ़ावा और मजबूती दे सकता है। मीडिया वॉचडॉग , एजेंडा सेटिंग और गेटकीपर की भूमिका सामाजिक और राजनैतिक नेतृत्व दे सकता है। वॉचडॉग के रूप में मीडिया प्रहरी की भूमिका में होता है, जहां वह सत्ता से जुड़े व्यक्तियों और संस्थाओं के क्रियाकलाकों पर पैनी नजर रख सकता है। अगर वहां अक्षमता और अकुशलता, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद हो, तो मीडिया उन सूचनाओं को सार्वजनिक करके नागरिकों को जागृत कर सकता है। इसीलिए मीडिया को चौथा स्तंभ की संज्ञा दी गई है। भारत में ऐसे कई उदाहरण देखे जा सकते है, जहां मीडिया ने वॉचडॉग की भूमिका बहुत कुशलता से निभाई है। कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, टूजी घोटाला, कोयला घोटाला आदि मीडिया की सक्रियता से ही सामने आ सके है।
एक सशक्त मीडिया अपने कार्यों से जनहित से जुड़े तमाम मुद्दे समाज के सामने लाकर एजेंडा सेटिंग कर सकता है। मीडिया उन मुद्दों को उठा सकता है, जिन पर गहन चर्चा हो सकती है। सरकार उन मुद्दों पर ध्यान दे सकती है और अपनी नीतियों का निर्धारण जनता के हिसाब से कर सकती है। नेट न्यूट्रेलिटी पर छिड़ी बहस भी वास्तव में मीडिया सेटिंग का ही नमूना है। इस तरह से मीडिया कोई कारोबार न होकर जनता के प्रतिनिधि के रूप में काम करने लगता है। अमृत्य सेन ने तो यहां तक कह दिया है कि अगर प्रेस स्वतंत्र है, तो देश में अकाल की स्थिति नहीं आ सकती, क्योंकि प्रेस विषम स्थिति में शासन और सत्ता आगाह करता रहता है, जिससे अकाल और विपदा की स्थितियां टल सकती है।
जन सरोकारों से जुड़े विभिन्न आयामों वाले विचारों का जनमंच भी मीडिया है। यहां मीडिया एक पब्लिक स्पेयर यानि जनवृत्त या जन वर्ग की तरह कार्य करते है। जनमत उसी से तैयार होता है। विश्व बैंक ने 1999 में चालीस हजार लोगों का एक सर्वे करके यह जानने की कोशिश की कि वह कौन-सी चीज है, जो लोग सबसे ज्यादा चाहते है। जो जवाब मिला, वह महत्वपूर्ण है, क्योंकि लोगों ने जिस चीज को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण माना, वह थी आवाज को प्रकट करने के की जगह।लोग चाहते है कि उन्हें अपनी बात रखने का पूरा मौका मिले और निर्णय की प्रक्रिया में भाग लेने का हिस्सा भी।
प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने भारतीय प्रेस की स्थिति को लेकर कई तरह की शंकाएं प्रकट की। उनकी पहली शंका तो यह थी कि भारतीय प्रेस बौद्धिक रूप से ही कमजोर है, लेकिन फिर भी उन्होंने जो कमियां बताई, वे मुख्यत: तीन है। पहली तो यह कि मीडिया महत्वपूर्ण और सामाजिक मुद्दों से लोगों का ध्यान भटकाता रहता है। दूसरा भारतीय मीडिया सूचनाओं के द्वारा लोगों में मतभेद पैदा कर देता है और तीसरा यह कि मीडिया को जहां वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना चाहिए था, वहीं वह पुरातनपंथी सोच को बढ़ावा दे रहा है। ऐसा लगता है कि भारतीय मीडिया को जन सरोकारों की चिंता नहीं है।
अगर आप भारतीय मीडिया के स्वामित्व और प्रबंधन पर ध्यान दें तो पता चलेगा कि पूंजीपति घरानों और राजनेताओं की उसमें प्रमुख भूमिका है। रिलायंस समूह, बिड़ला समूह, जिंदल समूह जैसे बड़े औद्योगिक घराने मीडिया पर कब्जा जमाने की जुगत में है। एक बड़ी सीमा तक मीडिया पर इस तरह के समूहों का कब्जा है भी। इसके अलावा पेंटालून समूह के किशोर बियानी, मेकडोनल्ड के प्रबंध निदेशक विक्रम बख्शी और चमड़ा व्यवसायी रशीद मिर्जा जैसे लोग भी मीडिया समूह के प्रबंधन में शामिल है। अन्ना द्रमुक की जयललिता का जया टीवी, बीएमके का कलेनगार टीवी, कलानिधि मारन का सन टीवी, राजीव शुक्ला का बेग फिल्मस और न्यूज 24 पर कब्जा है। इसके अलावा अनेक मीडिया संस्थानों में राजनेताओं की अप्रत्येक्ष भागीदारी भी है।
इसका नतीजा यह है कि आम आदमी, आम किसान और मजदूर के हितों की तरफ मीडिया का ध्यान नहीं है। जो सरकारी योजनाएं बन रही है, उनका फायदा समाज के एक खास वर्ग को भी मिल रहा है। मीडिया शोषित तबके को उसके अधिकार बताकर जागृत करने में बड़ी भूमिका निभा सकता था, लेकिन वह नहीं निभा रहा है। जन लोकपाल जैसे मुद्दे पर जागरुकता फैलाने और लोगों को एक जुट बनाने वाला मीडिया बड़े-बड़े मीडिया घरानों के भारी भ्रष्टाचार पर एकदम चुप्पी साध लेता है। जिस मीडिया को समाज का नेतृत्व करना चाहिए था, वह औद्योगिक घरानों के सामने घुटने टेकता जाता है।
विकास संवाद द्वारा आयोजित तीन दिनी कार्यशाला
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