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मजीठिया पर बात करने से बचते मीडियाकर्मी ! दहशत है या हितों की संवेदनशीलता ?

मीडिया            Dec 07, 2015


महेश दीक्षित दहशत है या हितों को लेकर संवेदनशीलता कि गिनती के मीडियाकर्मियों को छोड़ कोई भी अपनी बिरादरी में मजीठिया के मुद्दे पर दो शब्द भी चर्चा करने से बच रहा है जो पिछले पांच साल से मालिकान से लेकर अदने से कर्मचारी तक की धड़कनें तेज करता रहा है। मजीठिया के मुद्दे पर कोई बागी हो गया, तो खुलकर सामने आ गया। जो मालिकों के ताप को समझने का स्वांग करता है, वह चुपचाप हाथ बांधे पूरी बातें सुन रहा है। शर्मनाक है कि मीडियाकर्मियों के हितों से जुड़े इस सबसे बड़े मजीठिया के मुद्दे पर ही पूरी मीडिया का कर्मचारी वर्ग खुद दो वर्गों में बंटा हुआ है, एक जो हक के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं, दूसरे वे जो मालिकों से एक हाथ आगे बढ़कर चाहते हैं कि किसी को एक फूटी कौड़ी न मिल सके। हालांकि बड़ी रकम की लालसा वे भी रखते हैंऔर उन्हें उम्मीद है कि जो भी होगा सभी के साथ होगा तो वे भी लाभ के दायरे में होंगे। सवाल यह नहीं कि खिलाफत, समर्थन या तटस्थ का अनुपात क्या है, सवाल ये भी नहीं कि विरोध करना सभी के लिए जरूरी है या नहीं, सवाल ये भी नहीं कि मीडियाकर्मी अपने हितों के लिए अपने पेशे या संस्थान से कोई दगा करें... असल सवाल पूरी मीडिया और मीडिया कर्मियों के चरित्र का है। चेतना, स्वतंत्र अभिव्यक्ति और तर्क-वितर्क यदि चरित्र का हिस्सा नहीं है, तो मीडिया पर सवाल तो उठेंगे ही और भविष्य में उसकी जीन में खोट आने से कोई नहीं रोक सकता। यह कब कहा गया कि मीडिया में अनुशासन की लाइन नहीं होती। यह शुरू से मौजूद है और इसके दायरे में अपनी बात हर स्तर पर रखी जा सकती थी। यह अलग बात है कि चापलूसों ने इससे दूरी बनाकर थोड़ा बहुत हासिल कर लिया और यह परंपरा बन गई 'जो तुमको हो पसंद वही बात करेंगे। हम आज भी अपनी बात रख सकते हैं और इन दिनों जो कुछ फिजा में कानों-कान चल रहा है, उसे मुखर कर सकते हैं। शर्म करो! यदि तुम अपने हक के लिए तेज नहीं बोल सकते, खुलकर नहीं बोल सकते तो कम से कम जो मीडिया कर्मी आपके हक की लड़ाई के लिए आगे आए हैं, उनके सपोर्ट में पीछे तो खड़े हो जाओ।


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