Breaking News

वसूली-जेल समाधान होता तो पत्रकारों की इतनी भीड़ नहीं दिखाई देती

मीडिया            Jan 03, 2016


पंकज शुक्ला वसूली या जेल को यदि समस्या का समाधान माना जाता तो शायद ही पत्रकारों की इतनी भीड़ दिखाई पड़ती...चिंता की बात है कि, समय के साथ हुए बदलाव में गरिमा कम और गिरावट ज्यादा दर्ज हो रही है... पत्रकारिता का रसूख और जनसम्पर्क का पैसा देखकर कुकरमुत्तों की तरह पाक्षिक, साप्ताहिक और मैगज़ीनों के दफ्तर खुले . ..और इसके बाद अखबारों के चपरासी और ड्रायवर से लेकर प्रेस कॉम्पलेक्स में चाय और समोसे बेचने वाले भी "गली का चप्पू" जैसे टाइटल लेकर पत्रकार बन गए...न खबर से वास्ता और न ईमान से...मकसद जो मिले जैसे मिले और जहां से मिले बटोरना है ...। इसके ठीक विपरीत असल पत्रकार बौद्धिक अकड़ के सहारे जीवन बिता रहा है...खराब से खराब परिस्थितियों में भी किसी तरह का समझौता बर्दाश्त नही करता...यह सुनकर भी कि, पत्रकार बनने के लिए ना तो आपको किसी ने पीले चावल दिए थे और न ही अब 1857 वाली क्रांति की जरूरत है ? कोसने से बेहतर कुछ करें किसी को मिले मुनाफे पर अफसोस जताते हुए कोसने से बढ़िया हमे और आपको कुछ इस विषय पर विचार करने की जरूत है जिससे न केवल हमारी मर्यादा बल्कि पेशे की पवित्रता पर भी आंच न आए.. .यदि सबने मिलकर पहले चरण मे सिर्फ पत्रकारिता के अलावा दूसरा धंधा करने वालो को बिरादरी से बहिष्कृत करने का फरमान सुना दिया जाय...यकीन मानिए, गर्व भी होगा और गिरावट भी रुकेगी ...। लेखक भोपाल के एक दैनिक समाचारपत्र में कार्यरत हैं।


इस खबर को शेयर करें


Comments