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हर बार निशाने पर वेबसाईट संचालक पत्रकार ही क्यों....? बड़े लोगों के बारे में भी तो सवाल करिये माननीय

मीडिया            Dec 08, 2015


ममता यादव मध्यप्रदेश विधानसभा इस आर जितनी सत्तापक्ष और विपक्ष को लेकर चर्चा में है उतनी ही सबकी खबर लेने वाली मीडिया भी खुद चर्चा में है। कभी बैठक व्यवस्था को लेकर कभी विधानसभा की पत्रकार दीर्घा के पास को लेकर। एक और मुद्दा आज विधानसभा में बाहर और भीतर चर्चा का मुद्दा बना रहा। वह था प्रश्नकाल में पूछा जाने वाला एक सवाल जो कि पूछे जाने की नौबत नहीं आ पाई समयाभाव के कारण। vidhansabha-prasnottar प्रश्न था नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस विधायक बालाबच्चन की तरफ से। बाला बच्चन ने अपने सवाल में जनसंपर्क एवं उर्जा मंत्री राजेंद्र शुक्ल से पूछा था कि वेबसाईट,इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और समाचार पत्र—पत्रिकाओं को विज्ञापन दिये जाने के लिये विभाग द्वारा क्या नीति निर्धारित की गई है? उन्होंने इस विज्ञापन नीति की और आदेश की छायाप्रति भी मांगी थी। इसके अलावा नेता प्रतिपक्ष ने 1 जनवरी 2012  से सवाल पूछे जाने तक की अवधि में विज्ञापनों की राशि का ब्यौरा मांगा जो वेबसाईट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को जारी किये गये। सवाल यह भी था कि विभिन्न प्रचार समितियों को दी गई प्रचार सामग्री का भी विवरण मांगा गया था। इसके अलावा यह भी पूछा गया कि नियम विरूद्ध जारी किये गये विज्ञापनों की जांच की जायेगी या नहीं और इसके लिये क्या उच्च स्तरीय जांच कमेटी सरकार की तरफ से नियुक्त की जायेगी? नेता प्रतिपक्ष के इन तमाम सवालों के जवाब में सरकार की तरफ से कहा गया कि जानकारी पुस्तकालय के परिशिष्ट के प्रपत्र ब के अनुसार है विज्ञापन नियमानुसार जारी किए गये हैं जिन्हें पुस्तकालय में देखा जा सकता है। बहरहाल, न तो प्रश्न पूछा गया न उस पर चर्चा हुई लेकिन प्रश्नोत्तर सूची में ये सवाल देखकर उन पत्रकारों को कोई फर्क नहीं पड़ा जो काम से काम रखते हैं लेकिन कुछ ऐसे लोगों की कसमसाहट बढ़ गई जो इसी पर नजर रखते हैं किसको कितना मिल रहा है किसे नहीं लेकिन खुद काम नहीं करते। लिहाजा इन माननीयों ने जल्द से पुस्ताकलय से फोटोकॉपी करवा ली और लगे कुछ वेबसाईट संचालक पत्रकारों को फोन पर सुनाने लेकिन जब जवाब तरीके के मिले तो सरेंडर हो गये। सवाल यह है कि विज्ञापन के मामले में हर बार वेबसाईट संचालक पत्रकार ही क्यों निशानें पर होते हैं? आलम यह है कि कुछ साल पहले तक तो वेबसाईट संचालकों को कोर्इ् पत्रकार भी मानने को तैयार नहीं था सरकार में। जबकि यह बात भी छुपी हुई नहीं है कि जो एक्टिव वेबसाईट हैं उनके कंटेंट,खबरें बकायदा दूसरे समाचार पत्रों द्वारा उठाये जाते हैं। फिर भी वेब मीडिया ही क्यों निशाने पर? अब ई मीडिया और डिजीटल इंडिया की बातें होने लगीं तब भी वेबसाईट संचालक पत्रकार क्यों खटक रहे हैं लोगों की आंखों में? खासतौर से वो जो अपने दम पर अपनी मेहनत से वेबसाईट से चला रहे हैं और अपना जीवन यापन कर रहे हैं? या हमेशा सवाल उन पत्रकारों पर क्यों उठाये जाते हैं जो ​कोई बड़ा संस्थान नहीं हैं लेकिन अपना पत्र—पत्रिका निकालकर जैसे—तैसे काम चला रहे हैं। इस सबके बीच में परेशान वो पत्रकार होते हैं जो अपनी मेहनत से अपने दम पर कुछ करना चाहते हैं। कभी किसी बड़े मीडिया संस्थान की तरफ यह सवाल क्यों नहीं पहुंचाया जाता? सवाल यह भी है कि बतौर प्रभारी नेता प्रतिपक्ष बाला बच्चन मीडिया के बारे में इस तरह की छानबीन करना क्यों चाहते हैं?


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