एस पी मित्तल।
29 जून को राजस्थान के एक प्रमुख दैनिक समाचार पत्र के साथ बाल धोने के शैम्पू के दो पाउच भी पाठकों को मिले। 4.50 पैसे वाले अखबार के साथ यदि तीन रुपए की कीमत का शैम्पू मिल जाए तो फिर ऐसे अखबार को कौन नहीं मंगवाएगा? ऐसा नहीं कि यह हालत किसी एक अखबार के हैं। देश के अधिक प्रसार संख्या वाले सभी अखबारों का ऐसा ही हाल है।
असल में जो लोग बार-बार पत्रकारिता की आलोचना करते हैं, उन्हें अब यह समझ लेना चाहिए कि मीडिया को बाजार चला रहा है। अब अखकार और शैम्पू के पाउच में कोई ज्यादा फर्क नहीं रह गया है। अखबार मालिक कह सकता है कि चार रुपए पचास पैसे की कीमत वाले अखबार के साथ हम तीन रुपए का शैम्पू फ्री दे रहे हैं और उधर शैम्पू कंपनी वाले इस बात से खुश हैं कि उनका पाउच बड़ी आसानी से घर-घर पहुंच गया है।
यानि अब एक ऐसा बाजार विकसित हो रहा है, जिसमें मीडिया और शैम्पू बनने वाली कंपनी का गठजोड़ हो गया है। हो सकता है कि आने वाले दिनों में अखबार के साथ तेल, घी, मिर्च, नमक या अन्य कोई वस्तु के पाउच मिलने लगे। कोई माने या नहीं लेकिन आने वाले दिनों में पाठक भी उसी अखबार को मंगवाएगा, जिसके साथ फ्री के पाउच मिलेंगे।
समझा जा सकता है कि जिस अखबार के साथ मुफ्त के पाउच मिलेंगे, उसमें पत्रकारिता का क्या हाल होगा। लेकिन इतना जरूर है कि ऐसे अखबारों का सरकुलेशन लगातार बढ़ता चला जाएगा। यह बात अलग है कि सरकुलेशन बढऩे का कारण अखबार कि पत्रकारिता नहीं, बल्कि अखबार के साथ मुफ्त में मिलने वाले पाउच हैं, जो लोग बार-बार पत्रकारिता कि आलोचना करते हैं, उन्हें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि अब अखबार भी बाल धोने के शैम्पू के समान हो गया है।
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