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मगर वह छूती है आसमान,कद नहीं हौसला बढ़ाओ

मीडिया, वामा            Jan 12, 2018


संजय स्वतंत्र।
वह टीवी पत्रकार है, बेहद खूबसूरत, दिलकश आवा,। समाचार पढ़ने का अंदाज मुझे ही क्या, सभी को मुग्ध कर देता है। लेकिन अब वह टीवी चैनल छोड़ कर आॅनलाइन मीडिया में नौकरी ढूंढ़ रही है। मेरी उससे मुलाकात बस इत्तेफाक से हुई। नौकरी के सिलसिले में उससे तीन-चार बार चर्चा हुई। फिर उसने एक दिन मैसेज किया- ‘सर आप मुझे फोन करिए। बात करनी है आपसे।’ मैंने उससे पूछा-‘क्या हुआ? कुछ खास?’ उसका जवाब था- ‘कुछ खास नहीं। बस यूं ही। आप फोन कीजिए न। मेरा नंबर है।’

मैंने कॉल लगाया, तो उधर से उसकी रुलाई फूट पड़ी। मुझे जैसे काटो तो खून नहीं। दिल एकदम बैठ गया। वह फफक पड़ी- ‘सर मुझमें क्या कमी है? मुझे प्राइम टाइम में न्यूज पढ़ने ही नहीं दिया जाता। तंग करने के लिए नाइट ड्यूटी लगा दी जाती है। ईमानदारी से काम करती हूं तो यह इनाम मिलता है। सर, कद से छोटी हूं न। इसलिए ये लोग मेरी खिल्ली उड़ाते हैं। मगर मैं किसी भी एंकर से कम नहीं हूं सर। जब यह समाज बेकद्री करता है, तब मैं अपने कद को लेकर दुखी हो जाती हूं। मेरा आत्मविश्वास डोलने लगता है।’

मैं उसकी बात सुनते हुए मन ही मन सोचने लगा कि भारतीय लड़कियों का औसत कद कोई बहुत ज्यादा नहीं है। अपने यहां लड़की पांच फुट तक अपनी मां के बराबर पहुंची नहीं कि उसकी चिंता शुरू हो जाती है। गांव या छोटे शहर में रह रहा उसका पिता वर तलाशना शुरू कर देता है। बेटी कद से छोटी हो तो और भी मुश्किल। दरअसल, यह समस्या पिछले दो दशकों में ज्यादा बढ़ी है, जब मिस इंडिया या विश्व सुंदरी का खिताब जीतने वाली लड़कियों ने भारतीय युवाओं में लंबी लड़कियों के प्रति चाहत बढ़ा दी। फिर यह चाहत दोनों तरफ से बढ़ी। लंबी लड़कियों ने भी छोटे कद के लड़कों को ठुकराना शुरू कर दिया।

फोन पर मेरी खामोशी बर्फ की तरह जम गई थी। इसे उसी ने तोड़ा- ‘सर, हद तो यह है कि घर पर लड़के वाले आते हैं, लेकिन अंत में यह कह कर मुकर जाते हैं कि आपकी बेटी का कद छोटा है।’कद छोटा है तो क्या हुआ, तुम्हारा हौसला तो आसमान को छूता है।’ मैंने उसका आत्मविश्वास बढ़ाया। ‘वैसे तुम्हारी हाइट क्या है?’ मैंने संकोच के साथ पूछा। ‘सर, पांच फुट से थोड़ा कम है’, उसने जवाब दिया। मैंने कहा, ‘तो क्या फर्क पड़ता है?’ यही तो सबसे कहती हूं? मुझे भगवान ने जैसा भी बनाया है, मैं उसी से खुश हूं।’ अब उसका मन हल्का हो गया था।

छुट्टी की वह शाम थी। इसलिए देर तक बात होती रही। घर-परिवार से लेकर करिअर तक। उसकी बातों ने मुझे विचलित कर दिया था। पिछले दिनों न्यूजरूम में काम करने के दौरान लंदन से आई एक खबर मुझे याद आ गई। जिसमें अदाकारा एमा राबर्ट्स ने कहा था कि उन्हें हमेशा से खुद पर विश्वास नहीं था। खासकर अपने छोटे कद को लेकर वह खुद को दूसरों से हीन समझती थीं। एमा बता रही थीं- अपने कद के कारण उनमें आत्मविश्वास की कमी थी। अब मुझे अपनी लंबाई पांच फुट दो इंच से प्यार है। मैं अब मजबूत इंसान हूं और इससे मुझे बेहद अच्छा महसूस होता है। फिल्म स्क्रीम क्वींस की 26 साल की नायिका का कहना था कि वैसे तो सभी में आत्मविश्वास की कमी होती है, लेकिन उम्र बढ़ने के साथ इसमें बदलाव आता है।

उस टीवी पत्रकार की बातें जरूर बेचैन कर रही हैं, मगर मुझे यकीन है उम्र बढ़ने के साथ उसका आत्मविश्वास बढ़ता जाएगा। जैसे मुझमें आया है जीवन के चार दशक बाद। अपने छोटे कद को लेकर स्कूल से कालेज तक हीनता का बोध मुझमें भी काफी समय रहा। ये तो अनामिका थी, जिसने अहसास कराया कि इंसान का कद नहीं, उसका कर्म बड़ा होना चाहिए।

वह कॉलेज में मेरी सीनियर थी। 5.5 लंबा कद, सांवला रंग। चेहरे पर तो जैसे कान्हा का नूर विराजता था। उसके काले घुंघराले बालों में जब उलझ जाता तो हंस कर टोक देती- ‘बच्चे क्या देख रहे हो। गंदी बात!’ तब मैं उससे कहता-‘देखो अनामिका तुम मेरे कद का मजाक उड़ा रही हो या मुझे अब भी बच्चा समझ रही हो।’ फिर वह मेरे कंधे को थपथपाते हुए कहती-‘अरे नहीं, मैं हमेशा कहती हूं कि तुम कद नहीं अपना मन देखो। वह कैसा है। कितना निर्मल। कितने आत्मविश्वास से तुम लिखते हो। समझे बच्चे!’ उसने मुझे फिर चिढ़ाया।

मेरी आंखों में आज भी उसकी यादों का जंगल है।

आफिस के लिए निकल गया हूं। मेट्रो के आखिरी डिब्बे की आखिरी सीट पर बैठा याद कर रहा हूं अनामिका को। अपने पाठ्यक्रम से लेकर साहित्य और लंबी-लंबी कविताओं पर चर्चा के बाद वह बहुत अच्छी दोस्त बन गई थी। वह मुझसे दो साल बड़ी थी। कद में भी दो इंच लंबी। यह फासला कोई ज्यादा न था। हमें तो नहीं, मगर हमारी आपस की ‘मिठास’ दूसरों को न जाने क्यों कड़वी लगती थी। उम्र और कद पर कभी गौर किया ही नहीं उसने। न कभी मुझे अहसास कराया। उन दिनों उस पर एक के बाद एक कविताएं लिखता तो वह टोक देती- कितनी कविताएं लिखोगे मुझ पर। पढ़ाई पर ध्यान क्यों नहीं देते। लेक्चरार बनना है कवि? कम नंबर आए तो समझ लो, तुम्हारी खैर नहीं बच्चू। अनामिका ने मुझे फिर चिढ़ाया था।

अगला स्टेशन जीटीबी नगर है। इस उद्घोषणा ने मेरा ध्यान भंग कर दिया है। मगर मेरे खयालों से वह गई नहीं है। एक दिन कॉलेज लॉन में बैठी अनामिका ने मेरी कविताओं को पढ़ते हुए सहसा यह सवाल दाग दिया- ‘तुम क्या सोच कर ये सब लिखते रहते हो? तुम्हें क्या लगता है कि मैं तुमसे प्रेम करती हूं?’ उसके इस चुभते हुए सवाल से मैं सकपका गया था। कोई जवाब देते न बना। तो बात फिर उसी ने संभाली-‘अरे मैं यूं ही कह रही थी बुद्धू। अगर तुम यूं ही मुझ पर ऐसी कविताएं लिखते रहे, तो एक दिन शादी कर लूंगी तुमसे।’

तब मैंने हंसते हुए कहा था-‘अपने से जूनियर और कद से छोटे इनसान को पति बनाओगी तो समाज हंसेगा।’ यह सुन कर अनामिका बिगड़ गई थी मुझ पर। नाराज होकर बोली- ‘आज के बाद खुद को छोटे कद का मत कहना। छोटा वह होता है, जिसका मन छोटा होता है। मैं रहूं या न रहूं। यह आत्मविश्वास बनाए रखना कि मैं औरों से अलग हूं। मैं भरता हूं कल्पना की वह उड़ान, जहां और लोग नहीं पहुंच पाते। हमेशा सबसे नजरें मिला कर बात करना। समझे।’

मैं रहूं या न रहूं यह पंक्ति आज भी याद आती है तो सिहर जाता हूं। क्यों कहा था यह उसने? अनामिका की वो बातें याद करते हुए मेरी पलकों में नदी उमड़ आई है। वह बह जाना चाहती है। मैंने नोट पैड निकाल लिया है। उसकी अटल मुस्कान को याद करते हुए लिख रहा हूं-

तुम्हारी मुस्कान में है
सदियों का आत्मविश्वास
जैसे हजारों बरस पुराना
कोई महाबोधि वृक्ष,
जिसकी छांव में
आज भी समाधिस्थ बैठा हूं
तुम्हारे इंतजार में........।

इससे आगे की पंक्ति सूझ नहीं रही है। मैं नहीं कर पा रहा कवि की तरह कल्पना। मैं अब कवि हूं भी नहीं। मगर अनामिका फिर चली आई है मेरे जीवन में। वह झकझोर रही है- तुम्हें क्या हो गया कवि? मैंने मन ही मन कहा- मुझसे अब लिखी नहीं जाती कविता। बस कोशिश करता रहता हूं। तुम क्यों चली गई मुझे छोड़ कर। मेरी आंखों से आंसू टपक पड़े हैं नोटपैड पर। नीली स्याही से लिखी पंक्तियां धुंधली हो गई हैं। कागज पर नीला आसमान उतर आया है। वहां सांवली-सलोनी अनामिका मुस्कारा रही है।

अगला स्टेशन कश्मीरी गेट है। उद्घोषणा हो रही है। मगर स्मृतियों की ट्रेन मुझे बरसों पीछे ले जा रही है। कितनी बातें। कितनी मुलाकातें। तब न वाट्सऐप था न एसएमएस की सुविधा। फिर भी हमारी संवाद यात्रा चलती रहती थी। उन दिनों सालाना परीक्षाएं शुरू होने वाली थीं। अनामिका घंटों पढ़ा करती थी। इससे उसका सिरदर्द बढ़ गया था। यों उसे यह समस्या बरसों से थी। उसने कभी ध्यान नहीं दिया। मगर इस बार उसका दर्द असहनीय हो गया था। कई दिनों तक वह कॉलेज नहीं आई। उसकी सहेली ने बताया कि अनामिका तो अस्पताल में है। डाक्टरों ने उसे ब्रेन ट्यूमर बताया है। किस अस्पताल में है? उसे यह मालूम न था।

और एक दिन कॉलेज पहुंचने पर खबर मिली कि अनामिका नहीं रही। आपरेशन के बावजूद डाक्टर उसे बचा नहीं सके। किसी तरह पता कर अस्पताल पहुंचा तो अनामिका का स्याह चेहरा देख कर एक बार के लिए मैं खुद मर गया। वो सांवली सूरत, जहां कान्हा खुद विराजते थे, वह अतंर्ध्यान हो गए थे। उसके घुंघराले बालों का तो अता-पता ही नहीं था, जिसे देख कर मैं अपनी कल्पना के अरण्य में खो जाता था। उसे इस हाल में देख वहीं रुलाई आ गई। ऊंची कद-काठी और आसमान सा हौसला रखने वाली अनामिका मेरा हौसला तोड़ कर जा चुकी थी। मैं सुदामा सा खड़ा अविचल उसके शांत चेहरे को ठगा सा देखता रह गया।

मैं अस्पताल परिसर में बदहवास खड़ा था। मन ही मन उससे कहा- आखिर बुद्धू बना कर चली गई न तुम। अच्छा मजाक किया। तुम मुझसे कभी शादी नहीं करोगी, यह जानता था मैं। मगर मुझमें हौसला जगाने के लिए तुमने वह वादा भी किया। झूठा था न तुम्हारा प्रॉमिस? वरना यूं मुझे छोड़ कर कभी नहीं जाती। मेरी आंखों से आंसू बह चले।

तभी लगा कि किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा है। वही अनामिका वाला अंदाज। मानो वह कानों में कुछ कह रही हो-मैं जा रही हूं। मगर तुम कविताएं लिखते रहना। मैं तुम्हारी कल्पनाओं के शिखर पर आकर मिलूंगी। तुम्हारे शब्दों में अर्थ बन कर बिखर जाऊंगी बार-बार। मैं मरी नहीं हूं। कहीं नहीं जा रही तुम्हें छोड़ कर। वादा करो कि तुम यूं ही लिखते रहोगे। इसे डायरी में दफन मत कर देना और हां, कद को लेकर कभी निराश मत होना तुम। जैसे हो सबसे अच्छे हो। आंखों से आंख मिला कर सभी से बात करना। समझे बुद्धू। काश कि मैं तुम्हारे अधूरेपन को पूरा कर पाती। सुनो न, मैं किसी न किसी रूप में जरूर आऊंगी। यकीन है तुम मुझे पहचान लोगे। अब चलती हूं।

अगला स्टेशन चावड़ी बाजार है। उद्घोषणा हो रही है। अनामिका को याद करते हुए आंखें फिर डबडबा उठी हैं। मैं रूमाल से आंसुओं को सोख रहा हूं। इसे बहने नहीं दूंगा। जीवन के अधूरेपन का उत्सव मैं अपनी कविताओं में मनाता रहूंगा। मुस्कुराता रहूंगा क्योंकि मैं सबको मुस्कुराते हुए देखना चाहता हूं। महान बल्लेबाज सचिन तेंदुलकर को याद करता हूं तो लगता है कि वे चौके और छक्के की बारिश करते हुए अपने अधूरेपन को कितने बेहतरीन तरीके से पूरा करते रहे। जब वे अपने से कद में लंबी पत्नी डॉ अंजलि के साथ चलते हैं तो उनका आत्मविश्वास देखने लायक लायक होता है।

अनामिका की स्मृति यात्रा का क्रम डॉ उज्ज्वला की कॉल से टूट गया है-‘कहां हैं आप? सुनिए न। आज सुबह ही लंदन से लौटी हूं। बहुत सी बातें करनी हैं। आज ठंड बहुत है। कॉफी पीनी है आपके साथ। आ जाइए शाम को।’ मैंने जवाब दिया- ‘नहीं, आज तो छुट्टी मिलेगी नहीं। कैसे आऊंगा?’ ‘तो फिर कल चले आइए। कुछ नए मेडिकल रिसर्च के बारे में बताऊंगी आपको। मैंने भी वहां रिसर्च पेपर पढ़ा है। आएंगे न कल?’ उसने फिर पूछा। हां, पक्का आऊंगा।’ मैंने जवाब दिया।

अगला स्टेशन राजीव चौक है। उद्घोषणा हो रही है। मैं सीट से उठ रहा हूं। गेट के पास लेडी कमांडो को सामने देख मैं एक किनारे सिर झुका कर खड़ा हो गया हूं। अनामिका फिर चली आई है। उसने आदतन मुझे फिर झकझोरा-‘ये क्या? इस कमांडो को देख कर क्यों झेंप रहे हो। जरा तन के खड़े हो। तुम किसी आइएएस से कम हो क्या? तुम यूपीएससी छोड़ कर पत्रकार बनने चले गए, तो क्या हुआ? जरा आत्मविश्वास के साथ खड़े हो। मैं हमेशा कहती हूं कि तुम किसी से कम नहीं, लेकिन मेरी बात हमेशा भूल जाते हो देखो कमांडो तुम्हें सम्मान से देख रही है। तुम यूं दब्बू न बना करो। सिर न झुकाया करो। जरा सीना तान के चला करो समझे।’

राजीव चौक आने पर भीड़ बढ़ी तो लेडी कमांडो ने पहले आप वाले अंदाज में मुझे सबसे पहले उतरने का इशारा किया है। मैं भरपूर आत्मविश्वास के साथ प्लेटफार्म पर आ गया हूं। अदाकारा एमा राबर्ट्स की बात याद आ रही है- उम्र बढ़ने के साथ आत्मविश्वास भी बढ़ता है। सीढ़ियां चढ़ते हुए प्लेटफार्म नंबर तीन की तरफ बढ़ रहा हूं। सामने कॉफी शॉप है, जहां डॉ उज्ज्वला से पहली बार मिला था। अनामिका की अनगिनत नसीहतों के बाद बावजूद उस वक्त अपने कद को लेकर झेंप हुई थी। मगर जिस सौम्यता और अपनापे के साथ उज्ज्वला मिली, लगा कि अनामिका खुद चली आई हो। मेरे अधूरेपन का उत्सव मनाने। जुबां पर बस यही- आप तो उम्मीद से बढ़ कर निकले। दोस्ती करेंगे मुझसे? तब मैंने कॉफी की चुस्कियां लेते हुए यही कहा- हमेशा के लिए।

उज्ज्वला के चेहरे पर अनामिका उतर आई थी- बुद्धू ऐसे ही रहा करो। पूरे हौसले के साथ। वो जो तुम लास्ट कोच में कविता अधूरी छोड़ आए हो न, उसे जरूर पूरी करना। समझे। इंतजार करूंगी। अनामिका ने पीछे से आकर फिर कानों में कहा है।

मेरी आंखें एक बार फिर नम हो चली हैं। नोएडा सिटी सेंटर की मेट्रो आ गई है। लास्ट कोच लगभग खाली है। सीट मिल गई। मैंने फेसबुक खोल लिया है। अवनि जी की पोस्ट की हुई इस पंक्ति पर नजर गड़ गई है-

वो शख्स जो झुक के तुमसे मिला होगा
यकीनन उसका कद तुमसे बड़ा होगा।

 

(अभिनेता शाहरूख खान की आने फिल्म ज़ीरो की थीम से प्रेरित साल की यह पहली पोस्ट। मैं भी ज़ीरो को करोड़ में बदलना चाहता हूं। लोगों में अधूरेपन का उत्सव मनाना चाहता हूं। रूप-रंग और कद-काठी से तय नहीं होती आपकी शख्सियत। यकीनन संपूर्ण व्यक्ति में कुछ भी महानता नहीं। सुंदरता तो अधूरेपन में ही है। उसे पूरा करने के लिए आज ही शून्य से शुरुआत कीजिए।)

 


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