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हमारे डिजाइन की डेमोक्रेसी, कर्जा ले ले खाइए जब लग घट में प्राण

मीडिया            Aug 28, 2022


 

श्रीकांत सक्‍सेना।

साहित्य हो या पत्रकारिता,नंबर दो और नंबर तीन क़िस्म का साहित्य और सड़कछाप पत्रकारिता देश में हमेशा ही मौजूद रही है।

मज़ेदार बात यह है कि साहित्य की गंभीर और स्तरीय सामग्री का रंगरूप और प्रस्तुति की दृष्टि से,बाज़ारू पत्रकारिता के बनाव-श्रृंगार से वैसा ही रिश्ता रहा है जैसे कोई पढ़ी-लिखी,गरिमामय,सुंदरी मेकअप के बग़ैर और बहुत से मेकअप से लिपी-पुती फूहड़ कॉलगर्ल या जिस्मफरोश औरत।

सत्ता प्रतिष्ठान के ख़िलाफ़ मूल्य आधारित पत्रकारिता का दावा करने वाले समाचार चैनल एनडीटीवी के मालिकाना दावेदार के रूप में अब देश के प्रमुख कारपोरेट घराने को देखा जा रहा है।

ये महोदय अब एशिया के सबसे धनी व्यक्ति बताए जा रहे हैं और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि इनकी आमदनी में 3.5बिलियन डालर से लगभग 122 बिलियन डॉलर का सफर मुख्यत: वर्तमान सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद हुआ है।

देश के इस 'महान उद्यमी' का ज़िक्र विश्व के अनेक प्रमुख अखबारों ने किया है।

वाशिंगटन पोस्ट ने तो इसे सरकार का संगी (ally) तक कह दिया है जो हिम्मत आजतक कोई भारतीय अखबार नहीं जुटा पाया।

वैसे इस व्यक्ति पर सरकारी बैंकों का इतना क़र्ज़ है कि इसकी ज़िन्दगी के साथ देश का भविष्य जुड़ सा गया है।

एक मशहूर कवि ने प्राचीन भारतीय दर्शन का हवाला देते हुए ऐसे क़र्ज़ लेने वालों के लिए ही ये ख़ूबसूरत पंक्तियां कही थीं-

कर्जा ले ले खाइए जब लग घट में प्राण

मुल्क समूचा रोएगा मरने पर श्रीमान...कि जैसे बाप मरा हो।

मतलब हमारे देश में उद्यमशीलता की स्पष्ट परिभाषा है-सत्ता प्रतिष्ठान से अंतरंगता।

देश के दूसरे अमीर घरानों की दास्तां भी बहुत अलग नहीं है।

इस दोस्ती का ही प्रतिफल है हमारे डिजाइन की डेमोक्रेसी।

और इस डिजाइन के स्थापत्य की विशेषता हैं दो मूल प्रस्थापनाएं -पहली हर इंसान बिकाऊ है बस फ़र्क क़ीमत का है कोई कुछ कम कोई कुछ ज़्यादा और दूसरा सत्ता तक पहुंचने का टोल टैक्स हमेशा इतना ज़्यादा रखो कि आम आदमी कभी इस रास्ते पर क़दम रखने की सोच ही न सके।

मतलब चुनाव प्रक्रिया को इतना महंगा रखो कि चाहे कितने ही बड़े जनाधार वाला व्यक्ति हो, चुनावों के ज़रिए सरकारी चौपाल में दाखिला न पा सके।

अपना देश दुनिया का अनूठा देश है जहां दुनिया के सबसे अमीर लोग सबसे विपन्न, सबसे दरिद्र, सबसे अशिक्षित और सबसे बीमार देशवासियों के साथ अत्यंत प्रेम से रहते हैं।

वैसे यही माडल दूसरे क्षेत्रों में भी कामयाबी के साथ काम कर रहा है।

मसलन सिनेमा में जहां आप कितने भी टेलेंटिड और संभावनाओं से भरे-भरे क्यों न हों, सिर्फ योग्यता के बूते कभी कामयाब नही हो सकते।

वहां अंडरवर्ल्ड, डिस्ट्रीब्यूटर, राजनेता आदि का ऐसा जबरदस्त चक्रव्यूह कि इस विधा का बड़े से बड़ा माहिर या तो इनके हाथों में खेले या इंडस्ट्री से बाहर हो जाए।

यही हाल खेलों का भी है, ये आपके ऊपर है कि आप सचिन बनना चाहते हैं या विनोद कांबली।

अब आप शिक्षा ,चिकित्सा आदि क्षेत्रों में भी यही माडल साफ़ -साफ़ देख सकते हैं।

व्यापम के दौरान आपने इस कला का बेहतरीन प्रदर्शन देख ही लिया जब बिना इम्तेहान दिए ही छात्र सीधे एमबीबीएस में दाखिला पा गए।

दूसरे बड़े इम्तेहानों की कहानी भी कमोवेश ऐसी ही है और आज़ादी के बाद से ही पूरी आज़ादी से बेख़ौफ़ आगे बढ़ रही है।

ऐसे राजनेताओं की लंबी लिस्ट है जिनकी ऊलजुलूल औलादें भी आईएएस या आईएफएस बन गईं और जब तक उन्होंने मुंह नहीं खोला और उनके मुखों से मूर्खता झरने नहीं लगी तब तक लोगों को उनकी असलियत मालूम ही नहीं हुई।

बहरहाल इस सबके बावजूद तकनीक के क्षेत्र में हो रही नई-नई खोजों के जरिए मानव के श्रेष्ठ गुणों को पूरी तरह दफ़्न किया जाना असंभव है।

दुष्कर सही लेकिन सूचना हासिल करना लोगों का हक़ है।

बेशक मीडिया के क्षेत्र में बहुत से भांड और मर्कट घुस आए हैं इसके बावजूद मूल्य आधारित पत्रकारिता के लिए स्थान बना ही रहा है।

तमाम पाबंदियों के होते हुए भी डिजिटल मीडिया लोकतंत्र के पहरुए की तरह लोगों को जगाए रखने की कोशिश कर रहा है।

प्लेबाय और डेबोनेयर की तरह चिकने,मोटे कागज़ पर नग्न युवतियों के फोटो छापने की बाध्यता से मुक्त वास्तविक लोगों की वास्तविक तस्वीरें मामूली कागज़ पर छापकर या अपने सस्ते मोबाइल फोन से कम रिजोल्यूशन के वीडियो बनाकर।

तब तक जबतक देश के लोग लोकतंत्र में अपनी भूमिका और दख़ल के लिए पूरी तरह तैयार न हो जाएं।

इस दौरान सत्ता प्रतिष्ठान और कारपोरेट की स्वाभाविक कोशिश होगी कि इस फासले को जितना अधिक बढ़ाया जा सके, बढ़ाया जाए।शुभमस्तु।

 

 

 



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