संजय कुमार सिंह।
जीएसटी से छोटे अखबार भी परेशान हैं। सरकारी विज्ञापनों पर आश्रित इन अखबारों को डीएवीपी (विज्ञापन और दृश्य प्रचार निदेशालय) के जरिए विज्ञापन दिए जाते हैं। केंद्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद डीएवीपी ने विज्ञापन जारी करने के नियमों में सख्ती बरतनी शुरू कर दी है। इससे कई प्रकाशन जो पहले से मुश्किल में हैं, अब उनपर जीएसटी का डंडा भी चल रहा है। खास बात यह है कि डीएवीपी 20 लाख से कम टर्नओवर वाले प्रकाशकों पर भी जीएसटी पंजीकरण कराने के लिए दबाव डाल रहा है। डीएवीपी का कहना है कि बिना जीएसटी में पंजीकृत हुए सरकारी विज्ञापन उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है।
दूसरी ओर, एक छोटी पत्रिका के संपादक के मुताबिक जनवरी 2017 से अब तक मात्र 250 सेंटीमीटर विज्ञापन दिया गया है, जिसकी कीमत सर्कुलेशन के आधार पर 1500 सौ से 5000 रुपये है। ऐसे में डीएवीपी जीएसटी को लेकर छोटे अखबारों से क्यों जबरदस्ती कर रहा है यह प्रकाशकों की समझ से बाहर है। वो भी तब जब उनका टर्नओवर ही ढाई-तीन लाख से दस-बारह लाख तक ही है, और इसकी सीए ऑडिट, वार्षिक विवरणी हर साल ऑनलाइन और फिजिकली डीएवीपी को भेजी जाती है।
जानकारों का कहना है कि सरकार की डीएवीपी पॉलिसी 2016 और जीएसटी के कारण 90 फीसदी अखबार बंद होने की कगार पर हैं। छोटे अखबार मालिकों के मुताबिक यह समय छोटे और मध्यम अखबारों के लिए अब तक का सबसे कठिन समय है। समाचार पत्र उद्योग दूसरे उद्योगों की तरह सरकार से संरक्षण की उम्मीद करता है पर हालात उल्टे हैं। डीएवीपी की नई विज्ञापन नीति को दमनकारी बताने वाले छोटे अखबार मालिकों का कहना है जीएसटी ने प्रिन्ट मीडिया की जान लेना शुरू कर दिया है। प्रिन्ट मीडिया के लिए राज्य एवं केन्द्र सरकार ने हमेशा सर्कुलेशन स्लैब के आधार पर विज्ञापन दरें तय करने का प्रावधान रखा है। इसका नतीजा यह है कि अखबारों की सीनियारिटी पर कभी गौर नहीं किया गया। मजबूरन कुछेक अखबार मालिक विज्ञापन दर हासिल करने के फेर में सर्कुलेशन बढा कर बताते हैं। यदि सीनियारिटी के आधार पर रेट तय होता तो अखबार वालों को यह सब करने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
डीएवीपी की संशोधित विज्ञापन नीति से सैकड़ों अखबार पहले ही बाहर हो चुके हैं। 1 जून 17 से नई विज्ञापन नीति लागू कर डीएवीपी ने कइयों का गला घोंट दिया। अब तक डीएवीपी के सदमे से छोटे अखबार बाहर आये ही नही कि जीएसटी जैसे कानून ने इन अखबारों की जान खतरे मे डाल दी। न्यूज पेपर छापने वाली प्रिन्टिंग मशीन पर 5 प्रतिशत, विज्ञापनों पर 5 प्रतिशत और न्यूज प्रिन्ट पेपर खरीदने पर 5 प्रतिशत जीएसटी का प्रावधान हैं। हकीकत यह है कि राज्य एवं केन्द्र सरकार से कुल मिला कर छोटे अखबारों को सालाना एक से डेढ लाख का औसत विज्ञापन भी नहीं मिलता है। उसपर जीएसटी पंजीकरण की बाध्यता इन अखबारों को मार डालेगी।
प्रिंट मीडिया में विज्ञापन के लिए स्पेस (स्थान या जगह) की बिक्री पर लागू वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की दर पर भी विवाद रहा। इस बारे में उठे सवाल पर सरकार ने एक विज्ञप्ति में कहा है कि प्रिंट मीडिया में विज्ञापन के लिए स्थान की बिक्री पर जीएसटी 5 प्रतिशत है। यदि विज्ञापन एजेंसी ‘प्रिंसिपल से प्रिंसिपल’ के आधार पर काम करती है, अर्थात वह किसी समाचार-पत्र संस्थान से स्पेस खरीदती है और इस स्पेस को विज्ञापन के लिए ग्राहकों को अपने खाते के अंतर्गत ही यानी एक प्रिंसिपल के रूप में बेचती है, तो वह ग्राहक से विज्ञापन एजेंसी द्वारा वसूली गई पूरी राशि पर 5 प्रतिशत की दर से जीएसटी का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी होगा। वहीं, दूसरी ओर यदि कोई विज्ञापन एजेंसी किसी समाचार-पत्र संस्थान के एक एजेंट के रूप में कमीशन के आधार पर विज्ञापन के लिए किसी स्पेस को बेचती है, तो वह समाचार पत्र संस्थान से प्राप्त बिक्री कमीशन पर 18 प्रतिशत की दर से जीएसटी का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी होगी। इस तरह के बिक्री कमीशन पर अदा किए गए जीएसटी के आईटीसी का भुगतान समाचार पत्र संस्थान के लिए उपलब्ध होगा। स्पष्ट है कि जीएसटी के नियमों में कोई ढील छोटे अखबारों के लिए भी नहीं है और जीएसटी के दबाव में छोटे अखबार बंद होते हैं या नहीं निकल पाते हैं तो किसी को कोई परवाह नहीं है। अखबार मालिक अपना देखें।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। लंबे समय तक जनसत्ता से जुडे़ रहे हैं। वर्तमान में अनुवाद कम्युनिकेशन का संचालन।
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