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पूंजीवाद की मनमानी के आगे जीवन हारे मीडिया कर्मी को गरिमामय मृत्यु भी नहीं मिली

मीडिया            Sep 20, 2023


ममता मल्हार।

कृष्ण कुमार मौर्य उन मीडियाकर्मियों में से थे जो दैनिक जागरण कानपुर के खिलाफ मजीठिया का केस अपने हक के लिए लड़ रहे थे। उन्होंने मजीठिया का केस दायर किया तो केस लड़ते-लड़ते उनकी किडनी में गांठ होने के कारण बराबर पेशाब से खून आ रहा था। आर्थिक संकट इस कदर कि वह ऑपरेशन नहीं करा पा रहे थे।। उनके साथ मजीठिया वेज बोर्ड की लड़ाई लड़ रहे एक साथी ने आर्थिक मदद की अपील के साथ सोशल मीडिया पर पोस्ट वायरल की। कल 19 सितंबर को कृष्ण कुमार मौर्य नहीं रहे। सामन्य गरिमामय जीवन के संघर्ष में पूंजीवाद से हार गए। 

पूंजीवाद के हाथों में सबकुछ है सबसे बड़ी बात है कि उसके पास अधिकार मांगते हर शख्स खिलाफ किसी भी जगह खड़े होकर लड़ने की ताकत है। यानि निचली अदालत से लेकर देश की सर्वोच्च अदालत तक वह किसी भी फरमान को अनसुना कर सकता है।

वह जिला अदालत में लगे केस के खिलाफ हाई कोर्ट चला जाएगा उसके बाद वह वहां से सुप्रीम कोर्ट भी चला जाएगा। वह हर उस जगह पॉवर पैसा लगाएगा जहां-जहां उसका कमर्चारी अपने वास्तविक हक के लिए अपील या गुहार करेगा, पर कर्मचारी को उसका वास्तविक हक नहीं देगा।

इस विषय पर मयंक जैन कहते हैं ऐसा नहीं है कि मालिकों के पास पैसा नहीं है पर ये देना नहीं चाहते। करोड़ों के विज्ञापन लेने वाले अपने ही संस्थान के कर्मचारी की खून पसीने की कमाई नहीं देते। उसकी सामाजिक सुरक्षा तो खतरे में गई ही परिवार भी गरिमापूर्ण जीवन और अपनी स्वतंत्र जीवनशैली व मानवीय अधिकारों से वंचित रह जाता है।

कुलमिलाकर यह कि अगर आप हक के लिए नहीं लड़ते हैं तो आपके मानवीय संवैधानिक मूल्य भी बचे रहेंगे और सामाजिक सुरक्षा भी मिलती रहेगी। वरना हाल कुछ कृष्ण कुमार मौर्य जैसा होगा।

कृष्ण कुमार मौर्य उन पत्रकारों में से थे जो दैनिक जागरण कानपुर के खिलाफ मजीठिया का केस अपने हक के लिए लड़ रहे थे। पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक पोस्ट तैरता दिखा अस्पताल में भर्ती कृष्ण कुमार का जिनके बारे में लिखा गया था कि कृष्ण कुमार मौर्य का कार्य के दौरान दैनिक जागरण ने मजीठिया वेतन न देकर और भरपूर काम कराकर जमकर शोषण किया। उन्होंने मजीठिया का केस दायर किया तो केस लड़ते-लड़ते उसकी किडनी में गांठ होने के कारण बराबर पेशाब से खून आ रहा है।

आर्थिक संकट के कारण वह ऑपरेशन नहीं करा पा रहे हैं। उनके साथ मजीठिया वेज बोर्ड की लड़ाई लड़ रहे उनके साथी राजेश ने उनकी पीड़ा फोटो के साथ सोशल मीडिया पर वायरल की।

यह पोस्ट मीडिया-मालिकों और उनके अधिकारियों की निर्दयता की कहानी चीख-चीख कर बयां कर रही है। राजेश लिखते हैं कि दैनिक जागरण कानपुर फोटो एडिटिंग विभाग में कार्यरत कृष्ण कुमार मौर्य की विगत कई माह से पेशाब के रास्ते में गांठ हो जाने के कारण हालत चिंताजनक बनी हुई है।

प्राप्त जानकारी के अनुसार श्री मौर्य मजीठिया की लड़ाई में माननीय सुप्रीम कोर्ट से लेकर हाई कोर्ट और लेबर कोर्ट में अपना दावा किए हुए हैं। जनवरी वर्ष 2019 से मामला स्टे पर है इसलिए लेबर कोर्ट में सुनवाई रुकी हुई है।

बताया जाता है कि उन्हें नई दिल्ली स्थित सफदर गंज अस्पताल में भर्ती कराया गया है। उन्हें गांठ की वजह से कैंसर हो गया है। इसलिए खून का रिसाव बंद नहीं हो पा रहा है। बीपी बढ़ जाने की वजह से डाक्टर उनका ऑपरेशन नहीं कर पा रहे हैं, जिससे उन्हें खून की जरूरत पड़ रही है।

जिन साथियों के पास खून की व्यवस्था हो उन्हें उपलब्ध करवाने की कृपा करें। पोस्ट के आखिर में रक्तदान और मदद के लिए पैसों की बात लिखी गई। एक हफ्ता भी नहीं हुआ कि कल 19 सितंबर को कृष्ण कुमार मौर्य की मौत की सूचना भी आ गई।

इस तरह की मौतें हमें सोचने पर विवश करती हैं कि हमने क्या संविधान पढ़ा है या पढ़ा भी है तो गुना कितना है। एक पत्रकार जिसने अपना जीवन दे दिया जब उसने अपना अधिकार मांगा तो उससे बिना वेतन काम कराया जाता है। उसे मानसिक तौर पर इस हद तक प्रताड़ित किया जाता है कि वह बीमार होकर अस्पताल पहुंच जाता है पेशाब के रास्ते निकलते खून की थैली के साथ।

पत्रकार उसकी मदद के लिए क्राउड फंडिंग में लग गए हैं बच्चे छोट हैं पर उस पूंजीवादी मीडिया मालिक के कान पर जूं नहीं रेंगती जिसके यहां उस पत्रकार ने दिहाड़ी मजदूर से भी गई-बीती स्थिति में काम किया।

दैनिक जागरण कानपुर के कर्मचारी पहले तो निर्धारित मजीठिया वेतनमान के अभाव और ओवरलोड काम के कारण अपना खून जलाते हैं। जब वह दुखी होकर जागरण पर केस करते हैं तो कोर्ट में मामला लंबा चलने के कारण आर्थिक और शारीरिक रूप से संकट उठाते हैं।

एक पत्रकार के बतौर मानव कोई मानवीय या संवैधानिक मूल्य नहीं बचे। यहां तक कि एक गरिमामय मौत भी उसे नसीब नहीं होती। आसपास के संवेदनशील मदद करने दौड़ पड़ते हैं जिससे जैसा बनता है। पर जब एक ही स्थिति से गुजर रहे हों तो कोई कितना कर पाता है यह जानने के लिए बहुत विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है।

आलम यह है कि केस करने वाले पत्रकारों को मीडिया संस्थान अपना कमर्चारी तक मानने से मना कर देता है। केस करने वाले बहुत से कर्मियों के नोटिस के जवाब में कृष्ण कुमार मौर्य के संस्थान ने भी कोर्ट में यही किया।

वह कोर्ट को हर बार एक ही दलील देता है कि यह हमारा कर्मी ही नहीं है। यह कोर्ट में केस करके सिर्फ संस्थान की छवि खराब कर रहा है। वह कभी नहीं स्वीकारता कि वह पहले अपने कर्मी का शारीरिक, मानसिक, आर्थिक शोषण करता है।

धोखाधड़ी और चार सौ बीसी करता है। बाद में आर्थिक समस्या से जूझता कर्मी मृत्यु शैय्या पर पहुंच जाता है।

इस बीच मजीठिया मंच के पेज से कुछ ऐसी भी खबर आती है जो मीडिया मालिकों की मनमानियों को उजागर करती दिखती है पर कहीं न कहीं उम्मीद की किरण जैसी भी लगता है।

 मजीठिया वेज बोर्ड  की सिफारिशों को लागू करने संबंधी फैसले विभिन्‍न  राज्‍यों  के श्रम न्‍यायलयों से आने लगे हैं। इन फैसलों में अखबार मालिकों  को कर्मचारियों को मजीठिया वेज बो र्ड की सिफारिशों के अनुसार वेतन भुगतान करने के आदेश दिए जा रहे हैं। मीडिया मालिक इन फैसलों के खिलाफ हाईकोर्ट  जा रहे हैं लेकिन कई जगह हाईकोर्ट में भी इनके नीटिशन खारिज किए जा रहे  हैं।

ये फैसले देश के कम से कम चार बड़े मीडिया समूहों के खिलाफ आए हैं।

इस कहानी को लिखते हुए एक सवाल मन में आया क्या मजीठिया वेज बोर्ड लागू होने से वाकई पत्रकारों की नौकरी की दुनिया में कुछ बदल जाएगा जवाब दिया वरिष्ठ पत्रकार जयप्रकाश त्रिपाठी के एक आलेख से उन्होंने लिखा, हमें गलतफहमी में नहीं रहना है कि मजीठिया वेतनमान का संघर्ष बाजारवादी पत्रकारिता को पराजित कर देगा, ये संघर्ष आजादी के आंदोलन की तरह पत्रकारिता को उसके सही अंजाम तक पहुंचा देगा अथवा न्याय पालिका लड़ रहे पत्रकारों की रोटियों का साफ-साफ हिसाब करा ही देगी।

श्रम विभाग के दफ्तरों तक भ्रष्टाचार का कैसा बोलबाला है, मालिकानों की ताकत कहां-कहां तक है, रोज-रोज पूंजी कितने तरह के खलनायक उगा रही है, अपनी अपनी नौकरी बचाने के प्रति घनघोर आग्रही वेतनजीवी मीडिया कर्मी इस संघर्ष का समवेत स्वर कभी नहीं बन सकेंगे।

फिर भी इतना तो तय है कि आने वाले वक्त में अब जो कुछ होगा, इस लहर से आगे होगा। यदि कहीं सचमुच न्याय पालिका से आंदोलनकारियों को अपेक्षित इंसाफ मिल जाता है, फिर तो बात ही कुछ और होगी। यानि आखिरी उम्मीद न्यायालयों की चौखट ही है।

नोट- एक कर्मठ ईमानदार और अपने हक के जानकार पत्रकार और उसके परिवार के पास न तो गरिमा बचती है न ही बच्चों की शिक्षा के साधन और न ही समाज में जीने लायक जरूरी जीवन संसाधन। मजीठिया लड़ने वाले ऐसे कई पत्रकारों की कहानियां एक के बाद एक निकलकर सामने आ रही हैं। कहानी खत्म अंतिम सफर के साथ होती है वह भी उसे सामान्य संवैधानिक और गरिमानुकूल नहीं नसीब होता।  

 

 


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