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यादें:काक जी का जो प्राप्य है, वो उन्हें मिलना चाहिए

मीडिया            Jan 01, 2025


राकेश कायस्थ।

मशहूर कार्टूनिस्ट काक के देहावसान की खबर आई है। काक जी मेरी बाल स्मृतियों का हिस्सा हैं। दिल्ली से छपने वाले अखबार रांची में शाम तक पहुंचते थे। मैं काक जी के कार्टून काटकर और बकायदा संभालकर रखता था।

सार्क सम्मेलन में शामिल होने प्रधानमंत्री राजीव गांधी जब पाकिस्तान जा रहे थे। उस समय पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टों थीं। तब काक जी ने राजीव गांधी को फिल्म देशप्रेमी वाले अमिताभ बच्चन की तर्ज पर लुंगी में चित्रित करते हुए लिखा था—खातून की खिदमत में सलाम अप्पुन का।

मैं वह कार्टून अपने दोस्तों को दिखाने के लिए स्कूल ले गया था। सब बहुत हंसे थे। कार्टून किसी भी अखबार में संपादकीय जितना अहम होता है। आबिद सुरती के ढब्बूजी ने मुझे धर्मयुग जैसी पत्रिका पढ़ना सिखाया तो काक के कार्टून ने नवभारत टाइम्स जैसे अखबार पढ़ना।

अपने जीवन के उत्तरार्ध में आकर काक जी ने मुझे ज्यादा बड़ी शिक्षा दी। वह शिक्षा यह थी कि हम कई पत्रकारों और लेखकों को स्वभाविक तौर पर एंटी स्टैलबलिशमेंट मान लेते हैं क्योंकि वो एक कालखंड में किसी एक सरकार की आलोचना कर रहे होते हैं लेकिन, यह पैमाना गलत है।

 किसी भी बड़े रचानाकर के बारे में राय उसके पूरे जीवन में किये गये काम के आधार पर बनाई जानी चाहिए। हमें यह देखना चाहिए कि जब निजाम बदलता है तो उसकी रचनाधर्मिता वही रहती है या बदल जाती है।

काक जी रिटायरमेंट के बाद भी लगातार सक्रिय रहे। पिछले 11 साल में मैंने उनका एक भी ऐसा कार्टून नहीं देखा जहां उन्होंने मौजूदा सरकार को लेकर उस तरह सवाल उठाये हों, जिस तरह वो गैर-भाजपा सरकारों के समय उठाते थे। प्रधानमंत्री मोदी पर तो खैर सवाल ही नहीं उठता।

अपना कार्टूनिस्ट धर्म पूरा करने के लिए उन्होंने बीच-बीच में महंगाई और बेरोजगारी जैसे शाश्वत प्रश्नों पर कुछ छायावादी किस्म की  टिप्पणियां जरूर की, जिनका कोई खास मतलब नहीं था। बाकी मैंने जो कार्टून शेयर किये हैं, वह बताते हैं कि उनकी तथ्य निरपेक्षता क्या थी और वैचारिक लाइन किस तरह का था।

काक जी की पीढ़ी के बहुत से लेखक और पत्रकारों को मैंने सतत प्रतिपक्ष मानकर एक वक्त बहुत ज्यादा सम्मान दिया लेकिन बाद में पता चला कि वो सिर्फ किसी एक पार्टी या विचारधारा के लोग थे।

ऐसे में निष्कर्ष यह निकलता है कि अगर आप किसी कालखंड में बहुत तीखे तेवरों के साथ सरकार से सवाल पूछते हैं और उसे लेकर हमलावर नजर आये, तो संभव है, इसका ज्यादा श्रेय उस दौर की सरकार को आपसे कहीं ज्यादा हो, क्योंकि उसने आपको ऐसा करने दिया।

कार्टूनिस्टों के प्रथम पुरुष शंकर से जुड़ा एक किस्सा मशहूर है, जिसे वो खुद कई मंचों पर बता चुके थे। शंकर तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू को गधे के तौर पर चित्रित करते थे। एक दिन शंकर के पास फोन आया, लाइन पर प्रधानमंत्री नेहरू थे, उन्होंने पूछा- क्या आप एक गधे के साथ शाम की चाय पीना पसंद करेंगे? क्या आप इस तरह के किसी वाकये की कल्पना आज कर सकते हैं।

बहरहाल काक जी का जो प्राप्य है, वो उन्हें मिलना चाहिए। हिंदी जगत ने उन्हें भरपूर प्यार और सम्मान दिया। जीवन के अंतिम दिनों में भी जिस सक्रियता से वह अपना काम करते रहे, उससे हम सबको सीखना चाहिए। विनम्र श्रद्धांजलि!

 


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