इस क्षेत्र में पाए जाते हैं सबसे ज्यादा अवैतनिक श्रमिक

मीडिया            May 01, 2025


 

ममता मल्हार।

यूँ ही कुछ महीनों पहले सोशल मीडिया पर यह पोस्ट दिख गई थी। पोस्ट करने वाले से सवाल किया था कि वेतन तो लिख देते उसका कोई जवाब नहीं आया। यह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिये था प्रिंट के भी ऐसे ही विज्ञापन तैरते रहते हैं।

अनुभव इतना, योग्यता इतनी ये भी चाहिए वो भी चाहिए मगर वेतन के नाम पर कोई बात नहीं। रूबरू मिलने पर कुछ तय हो भी गया तो भी कोई गारंटी नहीं। आप छोड़कर चले जाएं अगला फोन करके भी नहीं बोलेगा कि अपनी मेहनत के पैसे ले जाओ।

सबसे ज्यादा मजदूरी इन्हीं मजदूरों की मारी जाती है। 4-5 दशक पत्रकारिता में गुजार चुके कुछ स्वयम्भू वरिष्ठ तो सिर्फ यह कहकर ही आपकी योग्यता की कीमत कम कर देते हैं कि अभी तो सीखना पड़ेगा क्योंकि आपने #मगर की जगह लेकिन #एवं की जगह #औऱ लिख दिया। इसलिए सीखो अभी इतना ही देंगे।

खैर! यह स्क्रीनशॉट आज क्यों याद आया? वो इसलिए कि आज मजदूर दिवस है और मीडिया का क्षेत्र एक ऐसा क्षेत्र जहां सबसे ज्यादा अवैतनिक श्रमिक पाए जाते हैं। अनगिनत बस लिख रहे हैं, जा रहे हैं टीवी डिबेटों में कि सक्रिय तो दिखें कम से कम। यह लोग सामने वालों से सवाल भी नहीं करते कि कुछ मानदेय दोगे? गाड़ी भेजोगे या खुद का पेट्रोल फूंककर आएं। कुछ चार साल पहले की बात है एक पत्रकार लगातार लगे रहते आज फलां विषय पर डिबेट है आ जाओ हमने कहा समय नहीं है।

फिर हबीबगंज वाला रेपकेस हो गया फिर बोला उन्होंने मैं गई। डिबेट में हिस्सा लिया। उस दिन रास्ते में उन्होंने पूछा कि तुम डिबेट में आने से मना क्यों करती हो? मैंने कहा पैसा कोई देता नहीं और बिना पैसे के न तो मैं लिखती हूँ न ही टीवी डिबेट में जाती हूँ। तो उनका जवाब था कि मानदेय तो हम रिपोर्टर को नहीं दे पा रहे आपको कैसे दें? मैंने कहा मत बुलाईये फिर। चैनल मालिकों को और मैनेजमेंट पत्रकारों को तो कोई कमी नहीं होती न विज्ञापन की न लग्जरीज की।

कुछ महान टाईप के पत्रकारों ने तो कभी डायरेक्ट कभी इनडायरेक्ट यह भी बोलो कि आप यह मत लिखा करें कि मानदेय भी नहीं देते, काम कराना चाहते हैं।

फिर कुछ लोगों ने यह भी किया कि कभी उनके दफ्तर पहुंच गए तो डिबेट में बिठा दिया। दुनिया भर के हक-ओ-हुकूक की बात करने वाली मजदूरों की यह पढ़ी-लिखी जमात कभी अपने हक की बात नहीं करती। मालिकों से तनख्वाह मांगने इन्हें शर्म आती है सरकारों की छाती पर चढ़कर मांगेगे।

मैं नहीं कहती सरकार से मांगना गलत है पर जिस ब्रांड के लिये 24 घण्टे खपते हो उसके बनिये से भी तो बोलो। मजीठिया के लिये ये खड़े नहीं हो पाए। मगर खुद को बेचने के घटिया तरीके जरूर ईजाद कर लिये। हुनर आपका, अनुभव आपका,लेखनी आपकी, मेहनत आपकी,लो न मेहनताना किस बात की झिझक अपनी मेहनत की कमाई मांगने में? ब्रांड ही तुम्हारा चेहरा है, खुद को ब्रांड बना लो। कर लो कुछ ऐसा कि किसी ब्रांड की जरूरत ही न पड़े। मगर रिस्क कौन ले? नई पीढ़ियों के लिये कुछ तो ढंग की परिपाटी छोड़ जाओ। कुछ सम्मानजनक छोड़ा ही नहीं मजदूरों की इस पढ़ी-लिखी-बेरोजगार-अवैतनिक जमात ने। वो जो मजदूर होता है न जो खेतों में काम करता है, मकान बनवाता है या और भी कुछ इसी तरह के मेहनत वाले काम करता है वो तुमसे ज्यादा काबिल होता है आत्मसम्मान, इच्छाशक्ति और अपने अधिकार को लेने में। खैर कॉरपोरेट मीडिया के मजदूरों को

इस बीच एक फेलोशिप का विषय भी कुछ ऐसा ही चुना तो और भी बुरी हालत पाई। चूंकि उस फेलोशिप का मूल विषय संवैधानिक मूल्य थे और पढ़ने जानने का मौका मिला। जो संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकार और मूल्य भी खुद के भले के लिए नहीं समझ पा रहे। सबकुछ है उसमें पर समय किसके पास है। कभी किसी नेता के पास कभी किसी अधिकारी के पास बैठकर ये ऐसा वो वैसा करने से फुरसत मिले तो अपने बारे में सोचें।

मजदूर दिवस की शुभकामनाएं।

 

 


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