हेमंत कुमार झा।
इंडिया टी वी अभी देख रहा हूं। वही, रजत शर्मा वाला। कभी कभी देख लेता हूं...यूं ही...यह देखने, समझने के लिए कि हिन्दी मीडिया कितना पतित हो चुका है, कितना पतित होता जा रहा है।
चैनल दिखा रहा है और बता रहा है कि आज संसद में संविधान पर हुई चर्चा के दौरान राहुल गांधी का भाषण कितना बेअसर था, कि राहुल गांधी अपनी बात सलीके से कहने और असरदार तरीके से कहने में किस तरह चूकते रहे और कि अपने भाषण के दौरान वे अपने पद, यानी कि विपक्ष के नेता की जिम्मेदारियों के साथ न्याय नहीं कर सके। एंकर किसी जज की तरह बोलता जा रहा है।
राहुल पर आने के पहले वह मोदी जी के भाषण की भूरि-भूरि प्रशंसा कर चुका है और समझा चुका है कि राजनीति में परिवारवाद कितना घातक है, नेहरू, इंदिरा से लेकर राजीव गांधी ने किस तरह संविधान की धज्जियां उड़ाई हैं और सोनिया गांधी का नजरिया किस तरह संविधान विरोधी रहा है आदि आदि।
एंकर बीच-बीच में बताना नहीं भूलता कि संविधान के संदर्भ में मोदी जी का यह भाषण किस कदर ऐतिहासिक प्रभाव छोड़ने वाला है और 55 वर्षों के "परिवार राज" की किस तरह धज्जियां उड़ाने वाला है।
महीने दो महीने में इस तरह का कभी कोई टीवी न्यूज चैनल थोड़ी देर देख लेता हूं। ऐसे एंकरों के पेशागत नैतिक पतन को देख कर जितनी चिन्ता होती है उससे अधिक मनोरंजन हो जाता है।
रिमोट पर उंगलियों को थोड़ी हरकत दो, हिन्दी की इलेक्ट्रॉनिक पत्रकारिता के होते ही जा रहे पतन का थोड़ा आइडिया ले लो, गंभीर मुख मुद्रा बना कर कभी चीखते, कभी चिल्लाते एंकरों को देख मनोरंजन कर लो अपना।
वैसे, रजत शर्मा चीखते चिल्लाते नहीं। कुछ एंकर हैं जो चीखते चिल्लाते नहीं। संयत स्वरों में अपना रोल निभाते हैं।
हालांकि, मुझे याद नहीं आ रहा अभी कि ऐसे चैनलों की वो कौन सी एंकरानी है जो चीखती चिल्लाती नहीं। शायद हो कोई।
हिन्दी क्षेत्र ने पत्रकारिता का इतना पतन कभी नहीं देखा होगा। हिन्दी अखबार भी पीछे नहीं। एकाध तो बाकायदा सत्ता का एजेंडा अपने सिर पर लादे चलते हैं। लेकिन, अधिकतर अखबारों के संपादक चैनलों के कुछ खास एंकरों की तरह चारण तो नहीं लगते, हां, वे मुद्दों से ही किनारा कर लेते हैं।
हिन्दी के अखबार मुख्यतः सरकारी विज्ञापनों पर निर्भर रहते हैं, इस कारण उनकी सीमाएं तो समझ में आती हैं, लेकिन इतना भी जन निरपेक्ष क्या बनना, जो ये अखबार बन चुके हैं। लेकिन, अब इन सबके दिन लदते जा रहे हैं।
खास कर उन न्यूज चैनलों के, जो कॉरपोरेट स्वामित्व में उनके एजेंडे के वाहक बन कर रह गए हैं। उनकी व्यूअरशिप तेजी से घटती जा रही है। अब डिजिटल मीडिया का जमाना है।
डिजिटल मीडिया, यानी बदलती दुनिया का साक्षात्कार। अब, जब दुनिया बदल रही है तो कॉरपोरेट स्वामित्व वाले भोंपू चैनलों को धीरे धीरे अप्रासंगिक होते ही जाना है। अब लोगों के पास अनगिनत विकल्प हैं। वे सत्य का साक्षात्कार कराने वाले स्वरों के साथ जुड़ रहे हैं।
धीरे-धीरे ही सही, हिन्दी पत्रकारिता की दुनिया बदल रही है। धीरे-धीरे ऐसे हाथों में भी स्मार्ट फोन पहुंच रहे हैं जिनके हितों की कीमत पर कॉरपोरेट मीडिया अपनी दुकान सजाता, चमकाता रहा है।
डिजिटल मीडिया ने "सिटीजन जर्नलिज्म" को जितना प्रोत्साहन दिया है उसने सत्य पर पर्दा डालने की तमाम जन विरोधी और संगठित कोशिशों का पर्दाफाश करना शुरू कर दिया है। संसद में नेता और चैनलों में एंकर चाहे जितना बचाव कर लें अडानी जैसे कॉरपोरेट प्रभुओं का, लेकिन उनका सच जनता के सामने आने लगा है।
तीन साढ़े तीन दशक ही तो हुए हैं भारत में नवउदारवाद की राजनीति के साये तले कॉर्पोरेटवाद के उभरने और छाने का। किसी देश और समाज के इतिहास में आधे पेज में ही इन सबका वृत्तांत समा जाएगा और इतिहासकार लिखेग,.. "जल्दी ही लोगों को वास्तविकता का अहसास होने लगा और कॉरपोरेट संपोषित सत्ता का तिलिस्म टूटने लगा। इस प्रक्रिया में तकनीकी विकास की बड़ी भूमिका रही।
यह मिथ टूटने लगा कि तकनीक पर प्रभुत्व रखने वाली शक्तियां सर्व शक्तिशाली हैं। क्योंकि, तकनीक के विकास ने आम जनों को अपने दायरे में जबसे समेटना शुरू किया, प्रोपेगेंडा और सत्य के बीच फर्क को महसूस करने की जनता की क्षमता में इजाफा होने लगा। फिर तो, दुनिया को बदलना ही था और वह बदलने भी लगी...।"
कभी-कभार उन चैनलों पर भी कुछ देर रुक कर जायजा लेना चाहिए कि प्रोपेगेंडा पत्रकारिता के कॉरपोरेट आंगन में क्या और कैसा चल रहा है। पतन की गाथा का अध्याय कहां तक पहुंचा और उनकी प्रासंगिकता अब कितनी दूर है।
लेखक पटना यूनिवर्सिटी में एसोशिएट प्रोफेसर हैं।
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