ममता यादव।
उन्होंने पैर सिर पर रखकर फिर पैर पर सिर रख दिया। इन्होंने आटा लीटर के बाद केजी कर दिया। मजे सबने लिए।
दोनों तरफ के फॉलोवर दोनों तरफ की बिकाऊ आईटी सेलें सक्रिय हुईं। लग गईं डिफेंड करने में।
कुछ पक्षपाती पार्टी पत्रकारों ने भी मैदान सम्भाल लिया।
सवाल ये है पत्रकारों को असल में ऑब्जर्व क्या करना चाहिए?
हर पार्टी ने अपना एक मीडिया सोशल मीडिया का संस्थान या आदमी तय कर रखे हैं।
फिर क्या इन्हें अपने नेताओं के वीडियो बयान देखभाल के प्रसारित नहीं करने चाहिए? पर असली खेल तो कुछ और है वह यह है कि मुद्दों को उठाया तो इस अंदाज में जाता है कि गम्भीर बात हो रही है सुनी जानी चाहिए।
मगर आखिर में वही हरकत हो जाती है संसद में आंख मारने टाईप और मूल मुद्दा ही गायब हो जाता है।
ठीक है साहब बड़े नेता हैं, बड़े लोग हैं आपकी ज़ुबान फिसल गई, हमारी भी फिसल जाती है सबकी फिसल जाती है।
फिसल ही जाती है तो आपके समर्थक कुतर्क करके आपको आपकी पार्टी को ही क्यों गलत साबित करने पर तुल जाएंगे?
ये टेक्नीक और प्रोपेगैंडा का खेल है और जनता को इसमें पार्टी बनने में मजा आता है।
भला हो मार्कजुकरबर्ग का वरना लोग आज के इस दौर में टाइमपास करते कैसे?
कैसे महात्मा गांधी रविंद्र नाथ टैगोर राजा राममोहन राय से यह कहकर आज के फिसड्डी नेताओं की तुलना करते कि उन्हें भी तो हिंदी नहीं आती थी इन्हें नहीं आती तो क्या हो गया?
इतिहास पढ़ना जरूरी नहीं है इतिहास बोध होना बहुत जरूरी है।
ये जो समय चल रहा है यह भी कभी इतिहास बनेगा याद रखिये तब आप कहाँ होंगे किस तरह याद किये जायेंगे? इस पर सोचियेगा जरूर।
पार्टियां मस्ती में हैं और जनता सस्ते में निपटकर मस्त है। बाकी सब हरा-हरा है।
आज शिक्षक दिवस है और हिंदी प्रदेशों के शिक्षकों के साथ मेरी पुरी सहानुभूति है।
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