राकेश कायस्थ।
सोशल मीडिया पर हंगामा ना हो फिर काहे का सोशल मीडिया। अगर शांति चाहते हैं तो कुछ समय के लिए फेसबुक और ट्विटर से दूर हो जाइये। अगर जिंदगी में गॉसिप की छौंक और कंट्रोवर्सी का तड़का मिस कर रहे हों तो सोशल मीडिया पर फौरन लौट आइये और देखिये आज क्या ट्रेंड कर रहा है। ट्विटर की चटखारे वाली दुनिया से एक नई कंट्रोवर्सी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन वाले दिन निकली और ढेर सारे पत्रकार और ट्रोल्स की सक्रियता की वजह से अब तक जिंदा है।
हिंदी की जानी-मानी लेखिका और कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं का संपादन कर चुकीं मृणाल पांडे ने प्रधानमंत्री मोदी की सालगिरह पर एक ट्वीट किया। उन्होंने लिखा जुमला जयंती पर आनंदित, पुलकित और रोमांचित वैशाखनंदन। साथ ही उन्होंने एक गधे का फोटो लगा रखा है। गर्दभ, रासभ और खर जैसे दर्जन भर शब्दों की तरह वैशाखनंदन शब्द भी गधे का पर्यायवाची हैं। इसका सीधा मतलब यह हुआ कि मृणाल पांडे मोदी समर्थकों को गधा कह रही हैं। बात सचमुच दिल पर लगने वाली है। बहुत से लोगों ने एक कदम आगे जाकर मृणाल पांडे के इस कमेंट को सीधे-सीधे प्रधानमंत्री से जोड़ दिया।
इस घटना ने मुझे उत्तर प्रदेश चुनाव दौरान उठी कंट्रोवर्सी याद दिला दी। तत्कालीन मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने कटाक्ष करते हुए कहा, महानायक गुजराती गधों का विज्ञापन कर रहे हैं। दरअसल गुजरात के कच्छ में विलुप्त होने के कगार पर पहुंचे जंगली गधों की एक प्रजाति है, जिसे देखने के लिए दुनिया भर के पर्यटक आते हैं और अमिताभ बच्चन गुजरात टूरिज्म के ब्रांड एंबेसेडर हैं। अखिलेश ने उस विज्ञापन की बात करते हुए निशाना कहीं और साधा जिसे प्रधानमंत्री मोदी फौरन समझ गये।
मोदी ने अपनी अगली चुनावी जनसभा में अखिलेश के व्यंग्य का जवाब कुछ इस तरह दिया— आप गधे से भी घबराते हैं, अखिलेश जी, वो बेचारा तो बहुत दूर है। अगर मन साफ हो तो प्रेरणा गधे से भी ली जा सकती है। गधा वफादार होता है और थके होने पर मालिक के काम को कभी ना नहीं करता। मैं सवा सौ करोड़ भारतीयों को अपना मालिक मानता हूं।
इस तरह एक तीखे व्यंग्य को नरेंद्र मोदी ने बड़ी समझदारी से अपने पक्ष में मोड़ लिया और गुजरात से आया गधा अचानक चुनावी अश्वमेध का घोड़ा बन गया। सच पूछा जाये तो सार्वजनिक जीवन के वाद-विवाद में इसी तरह के प्रेजेंस ऑफ माइंड और हास-परिहास के इसे स्तर की उम्मीद की जाती है। लेकिन अफसोस यह है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में सार्वजनिक परिहास का स्तर गिरता जा रहा है।
बेहतर समाज वही होता है, जो शब्दों का जवाब वैसे ही शब्दों से दे। भारतीय लोकतंत्र में हास्य-व्यंग्य की एक स्वस्थ परंपरा रही है। नेहरू से लेकर लोहिया और अटल बिहारी वाजपेयी तक जाने कितने ऐसे नेता हुए हैं, जिन्होने विरोधियों के तीखे कटाक्ष का जवाब उससे भी तीखी लेकिन मर्यादित भाषा में दिया है। खुद पर हंसना और व्यंग्य को पचाना भी एक हुनर है जो आजकल के ज्यादातर नेताओं को नहीं आता तो फिर उनके समर्थकों से कोई क्या उम्मीद करे।
भारतीय सार्वजनिक जीवन में हास्य-व्यंग्य की जो परंपरा रही है, उसके सैकड़ों उदाहरणों में मैं आपको चंद याद दिलाना चाहूंगा।
वन लाइनर के धनी अटल बिहारी वाजपेयी ऐसे नेता रहे हैं, जिन्हें दूसरो पर नहीं बल्कि खुद पर भी हंसना आता है। इसलिए उनके किसी मजाक का ना तो ज्यादा बुरा माना गया और ना कोई कंट्रोवर्सी हुई। सोनिया गांधी राजनीति में नई-नई दाखिल हुई थीं। अपनी पहली रैली में उन्होंने राजीव गांधी की शहादत और अपने महिला होने पर बहुत कुछ कहा था। अटल बिहारी वाजपेयी ने इसका जवाब कुछ यूं दिया था— वे कहती हैं, मैं एक महिला हूं और विधवा हूं, अब मैं क्या कहुं कि मैं एक पुरुष हूं और कुंवारा हूं। ज़रा सोचिये अगर फेसबुक और ट्विटर के जमाने में ऐसी कोई बात कही गई होती तो लोग इस पर कितना विवाद खड़ा करते।
लालू प्रसाद यादव की राजनीति को आप पसंद करें या ना करें लेकिन उनके हास्य बोध को आप नकार नहीं सकते। अच्छी बात ये है कि वाजपेयी की तरह लालू को भी खुद पर हंसना आता है। यू ट्यूब पर आपको दर्जनों ऐसे वीडियो मिल जाएंगे जिसमें कोई स्टैंड अप कॉमेडियन लालू-राबड़ी की मिमिक्री कर रहा है, उनपर चुटकुले सुना रहा है और लालू वहीं बैठे ठहाके लगा रहे हैं। लालू के मजाक में उनका भदेस या गंवईपन झलकता है, ठीक वैसा ही जैसी उनकी राजनीति में झलकता है।
नब्बे के दशक में जब उनसे बिहार की खराब सड़कों के बारे में सवाल पूछा गया था तो लालू ने जवाब दिया था— सड़को को हेमामालिनी के गाल की तरह चिकना बना दिया जाएगा। उस समय के हिसाब इस बयान पर थोड़ी-बहुत कंट्रोवर्सी हुई थी। बहुत साल बाद जब लालू और हेमामालिनी जब एक सार्वजनिक कार्यक्रम में मिले तो दोनों को यह कहानी याद थी। उस बयान को याद करके दोनो शख्सियतें दिल खोलकर हंसी।
यह एक बहुत स्वभाविक बात है कि व्यंग्य हमेशा ताकतवर शख्सियतों पर ही किये जाते हैं। 50 के दशक में महान कार्टूनिस्ट शंकर ने अपने एक कार्टून में नेहरू को गधे की शक्ल वाला दिखाया था। उसके कुछ समय बाद नेहरू ने शंकर को फोन किया था— क्या आप गधे के साथ चाय पीना पसंद करेंगे?
ध्यान देने लायक बात है कि मृणाल पांडे ने किसी को गाली नहीं दी। उन्होंने कटाक्ष किया जो यकीनन बहुत लोगों को चुभ सकता है। अच्छा होता कि जिस साहित्यिक भाषा में मृणाल पांडे ने व्यंग्य किया, इसका जवाब भी उन्हें वैसी भाषा में दिया जाता। लेकिन इसके बदले ट्रोलिंग और गालियों का सिलसिला शुरू हो गया। बहुत से लोगों ने एक हाइ मोरल ग्राउंड ले लिया कि हम तो ऐसी भाषा नहीं बोलते। बहुत अच्छा है, आप नहीं बोलते, लेकिन और अच्छा होता अगर मृणाल पांडे को ऐसी भाषा में जवाब देते कि पढ़ने वालों को मज़ा आता और लोग कहते, ये है नहले पे दहला। लेकिन मौजूदा समय में भाषा की समझ का स्तर कुछ ऐसा है कि अगर मृणाल पांडे वैशाखनंदन की जगह शारदानंदन का इस्तेमाल करतीं तब भी बहुत से लोग गालियां देने आ जाते, क्योंकि ये ऐसा समाज है जिसे वैशाखनंदन और शारदानंदन के बीच का फर्क नहीं मालूम है।
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