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मीडिया बैन हो या किया जाए कटघरे में तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही है।

मीडिया            Sep 25, 2023


 

ममता मल्हार।

भारत में पत्रकार बैन हो रहे हैं या किए जा रहे हैं। क्योंकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बहाने जहां टीवी मीडिया एकपक्षीय होकर काम कर रहा है वहीं राजनीतिक पार्टियां भी अब पत्रकारों को उनके इस रवैये कारण बैन करने लगी हैं।

देखा जाए तो यह दोनों ही तरफ से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को खत्मक करने की प्रक्रिया अपनाई जा रही है। भारत में मीडिया खासकर टीवी मीडिया इस हालत तक पहुंच जाएगा इसकी कल्पना आज से 10 पहले किसी ने भी नहीं की होगी।

भारतीय मीडिया में अलग-अलग कारणों से मीडिया बैन या पत्रकारों को  बैन करने की खबरें आती रहती हैा। हाल ही में देश के सबसे बड़े विपक्षी गठबंधन ने फैसला किया कि वे 14 पत्रकारों के टीवी शो में नहीं जाएंगे।

अभी तक बैन सरकार की तरफ से लगता रहा है पर इस बार विपक्ष ने कुछ चुनिंदा पत्रकारों की सूची जारी कर घोषणा कर डाली कि वे इन पत्रकारों के कार्यक्रमों अपने प्रवक्ता नहीं भेजेंगे।

यह नौबत इसलिए आई क्योंकि टीवी एंकर सामने वाले की स्वतंत्रता और गरिमा का मान तो रख नहीं पाते अपनी भी गरिमा और स्वतंत्रता बोलते समय खो देते हैं।

इस पूरे मामले में दिलचस्प बात यह रही कि मीडिया मालिकों की इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई।

देश की सर्वोच्च अदालत कई बार आगाह कर चुकी है।

कुछ महीनों पहले पत्र सूचना कार्यालय ने 6 यू टूयूब चैनलों को बैन कर दिया गया था। इन चैनलों के लाखों दर्शक हैं। पाबंदी का कारण कोई एक नहीं था, कई कारण थे।

अच्छी स्थिति होती यदि किसी संस्था या पेशे की विश्वसनीयता और मानवीय मूल्यों को लेकर प्रतिबद्धता की पहल उसके भीतर से ही हो, जिससे बाहर से किसी को नसीहत देने का अवसर न मिल सके।

जब मीडिया पत्रकार मर्यादा की लक्ष्मण रेखा लांघता है तो अपनी स्वायत्तता पर आंच आने देने के लिये स्वयं स्थितियां बनाते हैं।

करीब 4 महीने पहले सूचना प्रसारण मंत्रालय द्वारा सभी टीवी चैनलों को पुन: एक परामर्श जारी किया गया था । सरकार की दलील थी कि टीवी चैनल विचलित करने वाले वीडियो और तस्वीरों के प्रसारण से परहेज करें। सरकार का मानना है कि रक्तरंजित व्यक्ति, शवों व शारीरिक हमलों की तस्वीरों का दिखाया जाना कष्टप्रद है। कोशिश हो कि पीड़ित चेहरों की पहचान न होने पाये।

सूचना प्रसारण मंत्रालय का कहना था कि विवेक सम्मत ढंग से चैनलों के कार्यक्रम का प्रसारण न होने की वजह से इस एडवाइजरी को जारी करने की जरूरत महसूस हुई। सरकार की दलील थी कि सोशल मीडिया पर प्रसारित किये जा रहे हिंसा के वीडियो बिना संपादन के चैनलों पर प्रसारित किये जाते हैं।

जिसका महिलाओं व बच्चों पर नकारात्मक असर पड़ता है। यह भी कि हिंसा व दुर्घटनाओं में घायल व्यक्तियों की फुटेज और चित्रों को स्पष्ट दिखाये जाने से बचना चाहिए। इनसे बच्चों की मनोदशा पर घातक प्रभाव पड़ता है। निस्संदेह, यह बात तार्किक है और कभी-कभी चैनलों पर हिंसा व दुर्घटनाओं के ऐसे विजुअल दिखाये जाते हैं तो दर्शकों का मन विचलित हो जाता है।

कई बार हिंसा का सच कोमल हृदय व संवेदनशील लोगों को परेशान कर देता है। जिसको लेकर सावधानी बरती जानी जरूरी है। कहीं न कहीं ये स्थितियां टीवी चैनलों की व्यावसायिक स्पर्धा का भी नतीजा है। कह सकते हैं कि यह संपादक नामक संस्था के कमजोर होने का भी संकेत है।

कहते हैं,देश में तो सब कुछ सामान्य है मगर कुछ टीवी चैनलों में तूफान सा उठा है। कार्यक्रम की आक्रामक प्रस्तुति और सबसे पहले आने की होड़ मर्यादा की लक्ष्मण रेखा को लांघती नजर आती है। कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाले इतने आक्रामक अंदाज में सामने आते हैं कि दर्शक भी सहज नहीं रह पाते।

निस्संदेह, प्रिंट मीडिया आज भी जो विश्वसनीयता बनाये हुए है, उसके मूल में संपादक नामक संस्था की मजबूती भी है। खबरों को लेकर जो मर्यादाएं तय की गई थीं कमोबेश उनका पालन किया जा रहा है। यही वजह है कि कई सर्वेक्षणों में यह बात स्पष्ट हुई है कि प्रिंट मीडिया विश्वसनीयता के मामले में अव्वल है।

चिंताजनक स्थिति सोशल मीडिया की भी है। जिसका राजनीतिक दलों,सांप्रदायिक संगठनों तथा निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा जमकर दुरुपयोग किया जा रहा है। इन वीडियो का टीवी चैनलों द्वारा बिना संपादन के प्रयोग करना समस्या को जाटिल बना देता है। दरअसल, चैनलों ने अपने स्तर पर यह धारणा बना ली है कि मिर्च-मसालेदार व सनसनीखेज खबरें उनकी टीआरपी बढ़ाने में असरदार होती हैं। जिसके लिये वे मर्यादा की रेखा लांघने से गुरेज नहीं करते।

जोशीमठ त्रासदी के दौरान सरकार ने वहां की रिपोर्टिंग को लेकर पाबंदी लगा दी थी। फ़रमान में कहा गया कि जोशीमठ त्रासदी और जमीन धंसने में आई तेजी दर्शाने वाली इसरो की सेटेलाइट तस्वीरें एवं उपलब्ध वैज्ञानिक व संस्थानों की सूचनाओं को मीडिया व सोशल मीडिया पर प्रसारित न किया जाये।“ फ़रमान को हुकुम मान कुछ संस्थानों ने उन तस्वीरों को अपनी वेबसाइट से हटा दिया है , ये तस्वीरें वो थी जिनमें कुछ दिनों में जोशीमठ के पांच सेंटीमीटर से ज्यादा धंसने की बात कही गई थी।

इन रिपोर्टों में दरअसल, कहा गया था कि अप्रैल, 2022 के बाद के सात महीनों में जहां जमीन 8.9 सेमी धंसी थी, वहीं 27 दिसंबर के बाद महज बारह दिनों में जमीन पांच सेमी धंसी है। सरकार की दलील है कि रिपोर्ट के निष्कर्ष यहां के लोगों में असुरक्षा व भय पैदा करने वाले हैं। इस तर्क के साथ यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि घरों व सड़कों में आई दरारों के बाद विस्थापन की प्रक्रिया में सरकारी तंत्र सुस्त था और यही सुस्ती ऐसी सूचनाओं पर पर्दा डालने की वजह बन रही है।

सब मानते हैं कि इसरो की सूचनाएं प्रमाणिक व वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित होती हैं। सोशल मीडिया और प्रिंट की रिपोर्टों का आधार यही रहा है। यही वजह है कि उसकी रिपोर्ट पर लोगों का ज्यादा भरोसा होता है, तभी लोगों ने इस रिपोर्ट पर ज्यादा ध्यान भी दिया। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि विगत में तमाम वैज्ञानिक अनुसंधान व विषय विशेषज्ञों की रिपोर्टों की उत्तराखंड की तमाम सरकारों ने अनदेखी की है।

इसमें कोई शक नहीं , विधायक व मंत्री चुने हुए प्रतिनिधि तो होते हैं, लेकिन वे भूगर्भ व पर्यावरण विषयक मुद्दों के विशेषज्ञ नहीं हो सकते। ऐसे में यदि तथ्यपरक व वैज्ञानिक रिपोर्ट सामने आती है तो उसका उपयोग समस्या दूर करने और रीति-नीतियों के निर्धारण में होना चाहिए। निस्संदेह मीडिया का काम लोगों को जागरूक करना होता है। साथ ही यह भी जरूरी है कि ऐसी रिपोर्ट विषय विशेषज्ञों के शोध-अनुसंधान व सर्वेक्षणों पर आधारित होनी चाहिए। सुनी-सुनाई बातों से जहां लोगों में भ्रम की स्थिति पैदा होती है, वहीं कई तरह की अफवाहों को भी बल मिलता है।

20 मई 2020 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पत्रकारिता की आजादी संविधान में दिए गए बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का मूल आधार है। शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि भारत की स्वतंत्रता उस समय तक ही सुरक्षित है, जब तक सत्ता के सामने पत्रकार किसी बदले की कार्रवाई का भय माने बिना अपनी बात कह सकता है।

जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एमआर शाह की पीठ ने ये कड़ी टिप्पणियां रिपब्लिक टीवीपत्रकार के संपादक अर्णब गोस्वामी के मामले में सुनवाई के दौरान की थीं। पीठ ने कहा कि एक पत्रकार के खिलाफ एक ही घटना के संबंध में अनेक आपराधिक मामले दायर नहीं किए जा सकते हैं। उसे कई राज्यों में राहत के लिए चक्कर लगाने के लिए बाध्य करना पत्रकारिता की आजादी का गला घोंटना है।

पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) में दिए गए अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार और आपराधिक मामले की जांच के संबंध में भारतीय दंड संहिता (सीआरपीसी) के प्रावधानों का भी जिक्र किया। पीठ ने कहा, पत्रकारिता की आजादी संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) में दी गई संरक्षित अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार का मूल आधार है।

याचिकाकर्ता एक पत्रकार है। संविधान से मिले अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार का इस्तेमाल करते हुए याचिकाकर्ता ने टीवी कार्यक्रम में अपने विचार जताए थे। वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये 56 पेज का निर्णय सुनाते हुए पीठ ने अर्णब को तीन सप्ताह के लिए संरक्षण प्रदान करते हुए नागपुर से मुंबई ट्रांसफर किए गए मामले को छोड़कर अन्य सभी एफआईआर रद्द कर दीं। उनके खिलाफ दर्ज मामलों की जांच सीबीआई को सौंपने की मांग को ठुकरा दिया।

मुंबई स्थानांतरित एफआईआर को निरस्त कराने के लिए पीठ ने गोस्वामी को सक्षम अदालत का दरवाजा खटखटाने को कहा। इससे पहले शीर्ष अदालत ने 24 अप्रैल को गोस्वामी को देश भर में पंजीकृत 100 से अधिक एफआईआर में तीन सप्ताह की अंतरिम सुरक्षा प्रदान की थी। गोस्वामी पर आरोप है कि उन्होंने पालघर में संतों की हत्या के बाद एक टीवी शो में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की चुप्पी को लेकर कथित तौर पर आपत्तिजनक टिप्पणी की थी।

जस्टिस चंद्रचूड़ ने निर्णय में कहा कि अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत पत्रकारों को बोलने व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए मिले अधिकार उच्च स्तर के हैं, लेकिन ये असीमित नहीं हैं। पीठ ने कहा, मीडिया की भी उचित प्रतिबंधों के प्रावधानों के दायरे में जवाबदेही है।

पीठ ने कहा, हालांकि एक पत्रकार की बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी सर्वोच्च पायदान पर नहीं है, लेकिन बतौर समाज हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पहले का अस्तित्व दूसरे के बगैर नहीं रह सकता। यदि मीडिया को एक दृष्टिकोण अपनाने के लिए बाध्य किया गया तो नागरिकों की स्वतंत्रता का अस्तित्व ही नहीं बचेगा।

बहरहाल, सरकारों को ध्यान रखना चाहिए कि मीडिया हमेशा एक सचेतक की भूमिका में रहा है और उसने विभिन्न मुद्दों पर लोगों को जागरूक ही किया है। यह मीडिया की सक्रियता और सजगता का ही परिणाम था कि जोशीमठ को लेकर पूरे देश में विमर्श हुआ और केंद्र तथा राज्य सरकार हरकत में आई। धंसाव के बाद पानी के रिसाव ने जोशीमठ व देश के लोगों की चिंताएं बढ़ा दी थीं। यह बात जरूरी है कि मीडियाकर्मियों को विज्ञान सम्मत व तार्किक रिपोर्ट के द्वारा जनता को जागरूक करना चाहिए। जरूरी है कि रिपोर्ट समाज के किसी वर्ग में भय व असुरक्षा की भावना न पैदा करे, लेकिन मुद्दे की प्रासंगिकता व संभावित निष्कर्षों पर सार्थक विमर्श जरूरी है।

बेहतर होगा कि टीवी चैनलों के संगठन स्व-विवेक और संवेदनशील ढंग से खबरों के प्रसारण में संयम बरते। मानवीय सरोकारों व संवेदनशीलता का ध्यान रखें। यदि चैनल स्वयं पहल नहीं करते तो निस्संदेह सरकार को हस्तक्षेप करने का अवसर देते हैं। मीडिया की स्वायत्तता के लिहाज से इसे अच्छा नहीं माना जाना चाहिए। साथ ही उसे मीडिया ट्रायल से भी बचना चाहिए। व्यक्ति की निजता का भी ध्यान रखना होगा। ऐसा न हो कि एक्सक्लूसिव देने के चक्कर में मीडिया किसी व्यक्ति विशेष की निजता का हनन करने लगे। आदर्श स्थिति तो यही होगी कि सर्वकालिक मूल्यों, अभिव्यक्ति की आजादी की सीमाओं तथा निजता के अधिकार का सम्मान किया जाये। तभी इलेक्ट्रानिक मीडिया की विश्वसनीयता बरकरार रह पायेगी।

निष्कर्षत: तो यही कहा जा सकता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानवीय गरिमा का सम्मान दोनों तरफ से नहीं रखा जा रहा है। मीडिया बैन हो या किया जाए कटघरे में तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही है।

 

 

 

 

 



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