राकेश दीवान।
कुछ साल पहले तक (शायद अब भी हो) अखबारों की सुबह की 'मीटिंग' में 'पिट गए' एक बडा लोकप्रिय जुमला हुआ करता था। यानि कोई खबर, दूसरे, खासकर प्रतिद्वंदी अखबार में छपे और अपने में नहीं तो अपन 'पिट गए' माने जाते थे।
कई बार संपादक इस 'पिटने' को खासी गंभीरता से लेते थे और रिपोर्टर्स की छीछालेदर होती थी। नतीजे में हरेक रिपोर्टर अपने-अपने तौर-तरीकों से नई, अछूती खबरों के जुगाड़ में लगा रहता था।
नासिक से छह दिन पहले करीब 35 हजार किसान ठेठ राजमार्ग से 180 किलोमीटर चलकर राज्य की राजधानी मुम्बई को घेरने निकलते हैं, लेकिन किसी पत्रकार, अखबार को 'पिटने' की कोई चिंता नहीं सताती। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और आभासी मीडिया के अधिकांश अलमबरदारों को पता नहीं क्यों सांप सूंघ जाता है।
राजनीति और उसकी मार्फत आर्थिक हित साधने की अहर्निश कोशिशों को भी आखिर खबरों की जरूरत तो पडती ही है, वरना केवल विज्ञापनों के भरोसे तो कोई चिन्दी को भी अखबार नहीं कह सकता।
बताइए इसके लिए कौन जिम्मेदार है? अखबार, उसके मालिक या खुद रचने वाले पत्रकार?
चाहें तो इसी सिलसिले की ताजा मिसाल ले सकते हैं। नौ मार्च को ख्यात 'वडाली बंधुओं' में छोटे भाई प्यारेलाल वडाली का लंबी बीमारी के बाद देहावसान हो गया।
'भास्कर' ने 10 मार्च के अपने पहले (आजकल जैकेट को अखबार नहीं माना जाता) पन्ने पर प्यारेलाल जी के बडे भाई पूरनचंद जी की बेहद भावुक तस्वीर के साथ खबर छापी, लेकिन दिल्ली के 'इंडियन एक्सप्रेस' समूह से निकलने वाले हम सबके प्यारे हिन्दी अखबार 'जनसत्ता' में 'भाषा' के हवाले से पूरे पांच कॉलम के 'एंकर' में बताया गया है कि 'उनके बडे भाई पूरनचंद वडाली का पहले ही निधन हो चुका है।'
अब इसमें देशभर को खबर 'पिलाने' वाली 'प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया' की हिन्दी सेवा 'भाषा' और 'पत्रकारों का अखबार' माना जाने वाला 'जनसत्ता' या अपना रोज गरियाया जाता बेचारा 'तेजी से बढता अखबार' 'भास्कर,' - कौन गफलत में है?
और क्या आजकल 'मीडिया' का एक काम आवाम को अज्ञानी, अल्प-ज्ञानी या लगभग मूर्ख बनाए रखना भी हो गया है?! खबरें तो ,जैसा कि सब जानते हैं, क्या, क्यों, कब, कहां और कैसे की पारंपरिक पद्धतियों की बजाए राजनीतिक-आर्थिक हितों को जेहन में रखकर बनाई और परोसी ही जाती हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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