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अथक परिश्रम और भाग्य के अद्भुत मेल की अनोखी गाथा:हॉकर से हाकिम

मीडिया, वीथिका            Mar 27, 2022


हेमंत कुमार झा।
यह जैसे कोई परीकथा है। अखबार बेचने वाले एक मैट्रिक पास बच्चे का किसी राष्ट्रीय मीडिया संस्थान में  नेशनल सेल्स हेड बनने तक का सफर महत्वाकांक्षा, अथक परिश्रम और भाग्य के अद्भुत मेल की अनोखी गाथा है।

विजय सिंह जी की आत्मकथात्मक पुस्तक हॉकर से हाकिम न सिर्फ उनके जीवन के संघर्षों और उनकी अविश्वसनीय उपलब्धियों को हमारे सामने रखती है, बल्कि लगभग चार दशकों में मीडिया और विशेष कर प्रिंट मीडिया में आए बदलावों का भी प्रामाणिक दस्तावेज है, जो इस क्षेत्र में काम कर रहे शोधार्थियों और पत्रकारों के लिये निश्चय ही बहुत काम की है।

बिहार के समस्तीपुर जिले के एक सुदूर देहात, पतेलिया नामक गाँव का एक बच्चा अपने बगल के गांव के हाई स्कूल से मैट्रिक पास करता है और फिर, इलाहाबाद के लीडर प्रेस में फोर्थ ग्रेड कर्मचारी अपने पिता के पास चला जाता है।

आगे की पढ़ाई वहीं शुरू होती है। जाहिर है, आर्थिक संकट है, गांव में रह रहे परिजनों की जरूरतें, आकांक्षाएं हैं। इंटर में पढ़ाई करने के साथ ही सुबह मुंह अंधेरे अखबार बेचने में लग कर वह अर्थोपार्जन में पिता का हाथ बंटाता है। वहीं ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई पूरी होती है।

फिर शुरू होती है नई यात्रा...नई मंजिलों की ओर।


सर्वेन्ट क्वार्टर में रहने और पुरानी साइकिल पर घूम घूम कर अखबार बेचने से शुरू होकर मैनेजमेंट के बड़े हाकिम के रूप में हवाई जहाजों और फाइव स्टार होटलों में चलने-ठहरने तक की यात्रा, देश के शीर्षस्थ मीडिया संस्थानों में शुमार 'एचटी मीडिया' में नेशनल सेल्स हेड बनने तक की यात्रा, अपने क्षेत्र में एक चर्चित, प्रतिष्ठित और प्रभावी व्यक्तित्व बनने तक की यात्रा।

यह इतना आसान नहीं था। इस किताब में लेखक ने अपनी कहानी बताते हुए न सिर्फ अपना दिल खोल कर रख दिया है, बल्कि अपनी आत्मा भी उड़ेल दी है। पढ़ते हुए कई पड़ावों पर मन बेहद भावुक हो उठता है।

जीवन संघर्षों से जूझते, अपने सपनों के लिये जीते नौजवानों के लिये यह गाथा प्रेरणा देने वाली है।

जैसा कि इस किताब में 'हिंदुस्तान' अखबार के राष्ट्रीय संपादक शशिशेखर बताते हैं, "सतर्क, सजग, सचेष्ट विजय"...। ये शब्द लेखक के संदर्भ में अत्यंत सटीक बैठते हैं।

शशिशेखर जी लिखते हैं, "अखबारों के लंबे-चौड़े इतिहास में ऐसा कोई शख्स नहीं है, जो हॉकर से राष्ट्रीय समाचार पत्र के 'सर्कुलेशन हेड' के पद पर पहुंचा हो। यह कहना सुनना जितना ग्लैमरस लगता है, उसे पाना उतना ही कठिन"...।

बदलते दौर में मीडिया के बदलते परिदृश्य, तकनीकी क्रांति के प्रभाव, बदलती प्रवृत्तियां और बदलते मूल्य...यह किताब इन मुद्दों पर भी खुल कर और संदर्भ सहित बातें करती है।

एक बच्चे से संघर्षरत किशोर, फिर भविष्णु नौजवान, फिर सफल और प्रतिष्ठित एक्जीक्यूटिव बन कर अपने संस्थान का 'एसेट' बन जाने की कहानी कितनी रोमांचक और प्रेरक हो सकती है, यह किताब को पढ़ते हुए महसूस होता है।

बूढ़ी गंडक नदी के बांध किनारे के एक पिछड़े से गांव में खड़खड़िया साइकिल पर चलने वाला लड़का एक दिन ऐसी ऊंचाई हासिल करता है कि उसके घर एक कार्यक्रम में राज्य और देश के कई बड़े बड़े आदमी पहुंचते हैं।

आज से तीस पैतीस साल पहले के बिहार के पिछड़े देहात में जब कई दर्जन गाड़ियों का काफिला एक साथ पहुंचता है और इलाके के लोगों की आंखों में उन गाड़ियों की हेडलाइट्स के साथ ही एक भीतरी चमक भी कौंधती है कि उनके गांव का कोई बच्चा आज इस मुकाम पर पहुंचा है।

लिखने की रोचक शैली और आत्मप्रशंसा न कर एक प्रेक्षक के रूप में अपनी और अपने दौर के मीडिया की कथा कहते हुए लेखक ने निस्संदेह एक बेहतरीन किताब लिखी है। उन्हें बधाई बहुत बहुत।

 

लेखक पटना युनिवर्सिटी में एोशिएट प्रोफेसर हैं

 



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