जनमत एक प्रोडक्ट है और दर्शक उपभोक्ता

मीडिया            Jan 29, 2017


रवीश कुमार ।

आत्मकथाओं के लिए इतना सारा मीडिया हो गया है फिर भी लोग अलग से आत्मकथाएँ छाप रहे हैं । सोशल मीडिया पर रोज़ आत्मकथाएँ लिखी जा रही हैं । खाने से लेकर मिलने और नहाने तक की आत्मकथा। फूलों की तस्वीरों के साथ गुडमार्निंग के संदेश भेजने वाले बीमार लोगों का मक़सद ध्यान खींचना है या वाक़ई फूलों की खुश्बू से भर देना है ? हैलो और नमस्कार लिखने वाले लोग क्या चाहते हैं पता नहीं चलता । इनबाक्स मनोविकारों का बक्सा है, तो सोचा कि मैं अपनी व्यथा की कथा कैसे कहूँ । पहले एक कविता सुनने का बोझ आप पर डालना चाहता हूँ । ये कविता is written by me but how come I have not twitted yet! खुली हुई खिड़कियाँ हैं , बस दिमाग़ बंद हैं आँखें भभक रही हैं और जुबान लहक रही है एक टीवी है और शोर भरी शांति है वो जो सबके बीच में बैठा है, तूफान पैदा करता है सवालों से नावों को हिलाडुला देता है थ्री डी होती हमारी कल्पनाओं में रोमांच पैदा करता है जनमत को डूबने के लिए अकेला छोड़ वो नावों की डोर से खेलता है कुछ को डुबा देता है कुछ को बचा लेता है ताकि डरा सके हमारी कल्पनाओं को, डूबने की दहशत के बीच डरे हुए लोगों में खीझ पैदा हो और खुजलाहट भी, पैदा हो हैशटैग और ट्वीट भी एंकर माई बाप, एंकर ही सरकार है सरकारों का एंकर है या नावों का इस सवाल का मतलब नहीं है क्योंकि सरकारों को सवाल पसंद नहीं है टीवी की खिड़कियों पर कबूतर चहक रहे हैं सुना है मुर्दा लोग भी जागरूक हो रहे हैं प्राइम टाइमीय रात के अंधेरों में काल कपाल, महाकंकाल चिल्लाने वालों ने अपना भभूत बदल लिया है जवाबदेही की वर्चुअल रियालिटी का दौर है ये कोई मोबाइल ऐप बनाया जाए, किसी रोते हुए बच्चे को हँसाने के लिए किसी एंकर को बुलाया जाए, सारे जवाबों के लिए WWF का मैच चल रहा है XYZ बुलाये जा रहे हैं, ABCD EFGH उगलवाये जा रहे हैं अल्फाबेट की बेल्ट कमर में बाँध लीजिए जनमत की फ्लाइट कोहरा छँटते ही उड़ने वाली है जब FARCE, FACT बन जाए, जब movement के सवाल EVENT में बदल जायें और जागरूकता की जगह AD Campaign लेने लगे तो हमें उसका उत्सव मनाना चाहिए।

शहर को सुंदर बनाने के लिए हम ट्रैफिक और पार्किंग नियमों का पालन नहीं करते लेकिन पता नहीं कहीं से पाँच बजे सुबह दस हज़ार लोग दौड़ने आ जाते हैं । कम फ़ॉर अजमेर से लेकर रन फ़ॉर रोहतास तक होने लगा है । छोटे शहरों के मैराथन की तस्वीरों में कलक्टर और एस पी की मौजूदगी बताती है कि वो भी अभिशप्त हैं इन अभियानों में हिस्सा लेने के लिए । रोज़ दफ्तर के रास्ते में कचरे के ढेर को देखने की उनकी सहनशीलता कार के शीशे पर लगे पर्दे से ढंक जाती है । कार में पर्दा टांगने का आइडिया भारतीय नौकरशाही की मौलिक देन है । इन मैराथनों में सिर्फ शहर को साफ करने के लिए ठेके पर रखे गए सफाईकर्मी नहीं होते हैं । शिल्पा और प्रियंका के होते हुए भी विजेता अक्सर दक्षिण अफ्रीका का धावक निकल आता है । जागरूकता से लेकर स्वास्थ्य और सफाई सब एक ही साथ प्रमोट हो जाते हैं । आप अगर FARCE के उत्सव में शामिल नहीं है तो कोई बात नहीं । हमारे एंकरों ने उत्सव मनाना शुरू कर दिया है । वे जान गए हैं कि कुछ हो नहीं सकता । प्रवक्ताओं से सवाल पूछते पूछते वे योगी बन जाते हैं । TRANS में चले जाते हैं और झूमने लगते हैं। चीखने लगते हैं। बकने लगते हैं। दूसरा बकता है तो उसे रोक कर तीसरे को बकने बोल देते हैं । पैनलों में कुछ लोग बुदबुदाते, हाथ उठाते दिख जाते हैं । मैंने खुद एक दिन अपने हाथों की हरकत देखी, लगा कत्थक की मुद्रायें है । एंकरों की टोली टीवी पर त्रिनेत्र खोल देती है । तांडव करने लगते हैं । सवालों का महामृत्युंजय जाप हो रहा है । प्रवक्ता भी उनके साथ ट्रांस में चले जाते हैं। जनमत की ecstasy बन जाती है । ऐसी तैसी डेमोक्रेसी हो जाती है। चैनलों की रातें डेमोक्रेसी की फंतासी रचती हैं । सब अपनी अपनी फंतासियां रच रहे हैं। बातों का मल्लयुद्ध चल रहा है। तथ्य नहीं है। धारणा की तलवार से धारणा काटी जा रही है। वास्तविकता का ऐसा वर्चुअल संसार बनता है जैसे हम देवलोक में पहुंच गए हों और वहां मृत्युलोक से आ रही आवाज़ों से दिल बहला रहे हों। आप जानते हैं कि मैं फंतासियों के लोकतंत्र का एक सच्चा नागरिक हूं। जवाबदेही का ऐसा वर्चुअल लोकतांत्रिकरण कभी नहीं हुआ था। मैदान से आने वाली खबरों की जगह मंच पर बोली जाने वाली बातों ने ले ली है। जनमत अब एक उत्पाद है। कोई ईवेंट कंपनी किसी कैंपेन के ज़रिये जनमत पैदा कर देती है। रोज़ रात ओपिनियन के तलबगार टीवी के सामने बैठ जाते हैं ।

Opinion is new Opium . Anchor is new Acharya. ये मेरा मौलिक कथन है मगर लौकिक है । पत्रकारिता में हमने डेवलपमेंट जर्नलिज्म के बारे में सुना था। उस जर्नलिज़्म का डेवलपमेंट रूक गया है। पहले से रूका हुआ था। प्रिंट और आनलाइन में तो है लेकिन चैनलों में उसका ग्रोथ रेट काफी खराब है। दूसरी तरफ़ राजनीति में विकास काफी दौड़ रहा है। आजकल ये इतना पोपुलर है कि हर चुनाव में विकास जनमत का पासवर्ड बन जाता है। सब उसी पासवर्ड से लोगों के दिलो दिमाग में लॉग इन करते रहते हैं। विकास की राजनीति का असर ये हुआ है कि निवेश सम्मेलनों का ग्रोथ रेट काफी बढ़ गया है। हर राज्य की राजधानी में निवेश को लेकर शिखर सम्मेलन होने लगा है। उन सम्मेलनों में कोई आए या न आए, उस राज्य का अगर कोई अमरीका या आस्ट्रेलिया में उद्योगपति बन गया है तो वो ज़रूर आता है. एन आर आई एक फिक्स श्रेणी है। एन आर आई ही नहीं आया तो निवेश सम्मेलन पूरा नहीं हो सकता। कोई पटना से गए पाठक जी होंगे तो कोई सूरत से गए पटेल जी । पहले NRI विदेशों में भारत का दूत बताया गया अब उस पर राज्यों ने दावेदारी कर दी है । गुजरात के NRI गुजरात समिट के काम आ रहे हैं तो पंजाब वाले सिर्फ पंजाब के । जल्दी ही इन NRI का ज़िलों के हिसाब से बँटवारा होने वाला है । इन सम्मेलनों का दिल्ली के अखबारों में विज्ञापन ज़रूर आता है। निवेश को लेकर होने वाले इन शिखर सम्मेलनों में हज़ार करोड़ की जगह हमेशा लाख करोड़ की घोषणा होती है। कितना खर्च होता है। कितने निवेश लागू हुए और क्या नतीजा निकला इसकी कहीं कोई आडिट नहीं होती है। कहीं किसी का रिसर्जेंट हो रहा है तो कहीं कोई वाइब्रेंट हो रहा है कहीं ride the growth है तो कहीं invest Madhya Pradesh , credible chhatisgarh , UP at Double Digit Growth है । IMF भारत सहित दुनिया भर का ग्रोथ रेट घटा देता है लेकिन राज्यों का ग्रोथ रेट कभी कम नहीं होता ।ये गिरावट प्रूफ़ है । वॉटर प्रूफ़ की तरह । हर राज्य में ग्लोबल इंवेस्टर समिट एक नियमित कैलेंडर हो चुका है। निवेश सम्मेलन विकास की राजनीति के शॉप विंडो हैं। विकास होता है ये सवाल नहीं है। ये उम्मीद महत्वपूर्ण है कि विकास होगा। होने वाला है। होगा होगा होगा । बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं । प्रेमी का निवेदन जब प्रतिवेदन बन जाए तो प्रेमिका कहने के लिए हाँ कह देती है । मुझे पता नहीं केंद्र के वित्त मंत्री जब निवेश का आंकड़ा देते हैं तो इन सम्मेलनों के ज़रिये होने वाले लाखों करोड़ों के निवेश के एलान को शामिल करते हैं या नहीं। विकास क्या है? मुझे तो ये ग़रीबी हटाओ स्लोगन का विंडो 10 वर्ज़न है। ये जब भी होता है प्रतिशत में होता है । शुरूआत इसकी कुछ प्रतिशत से होती है, बाद में इसे शत प्रतिशत किया जाने लगता है। आजकल कई योजनाएँ शत प्रतिशत वाली लाँच हो रही हैं । इतना कुछ मिल रहा है ऐसा लगता है कि लेने के लिए लोग नहीं हैं। पहले मज़दूरों से मालिक बनाने का सपना दिखाया गया, कुछ बने भी, फिर मालिकों ने मैनेजर की तादाद बढ़ानी शुरू कर दी, अब फिर से मज़दूर बनाने पर ज़ोर दे रहे हैं। मज़दूर बनाए रखने के लिए श्रम सुधार हो रहे हैं। जैसे कंपनियों का बंद होना आसान हो रहा है, मज़दूरों को निकालना आसान हो रहा है। न्यूनतम मज़दूरी पर काम करने वाले अधिकतम मज़दूर पैदा किये जाएँगे । शायद इसी से दुनिया कुछ बेहतर हो जाए और बराबर हो जाए । हम सब विकास की प्रशंसा और आलोचना की खबरें पढ़ते रहते हैं। लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है कि किसी के पास कोई नया मॉडल नहीं है। कांग्रेस चाहती है कि बीजेपी जाये ताकि बाकी बचे खंभों पर एल ई डी वो लगवाए, बीजेपी चाहती है कि कांग्रेस न आए ताकि हर घर में शौचालय वो लगवाए। यही काम दूसरे दल भी कर रहे हैं। एक ही काम को सब पूरा कर रहे हैं। इससे कुछ बदलाव तो आएगा। आ भी रहा है। लेकिन ऐसा कैसे हैं कि किसी दल के पास दूसरे से अलग कोई मॉडल नहीं है। नोट्स कल्चर की तरह विकास कल्चर आ गया है। पीपल के पेड़ के नीचे वाले फोटोकापी से सब फोटोस्टेट करा रहे हैं। एक ही नोट्स से पढ़कर कई छात्रों को प्रथम श्रेणी मिल जा रही है। एक ही ईंजन क्षमता पर डिज़ाइन बदल बदल कर कितनी कारें बेचेंगे । पहले कारे छिपकली से प्रेरित होकर सेडान बनीं अब मेंढक से प्रेरित होकर एस यू वी लगती हैं ।

 

आपने किसी बेंग को बैठे हुए देखा है, छलाँग मारने से ठीक पहले,क्या SUV के कुछ मॉडल वैसे नहीं दिखते । उसी समय में जब अभिव्यक्ति की आज़ादी के इतने माध्यम आ गए हैं, हमारी अभिव्यक्तियों पर इतना संकट क्यों हैं । हर कोई वक्ता खोज रहा है। वक्ता है कि प्रवक्ता भेज दे रहा है। किसी को शोध करना चाहिए कि क्या हम बोलने के मामले में पहले से बेहतर हुए हैं। स्पेस में ही आजाद हुए हैं या कंटेंट के हिसाब से । हमारी अभिव्यक्तियाँ पारिवारिक, नोस्ताल्जिक मामलों में बेहतर हुई हों लेकिन क्या वो ईमानदार और बोल्ड भी है ? क्या हम राजनीतिक मामलों में बेहतर हुए हैं। साहसिक हुए हैं। इन माध्यमों से यथास्थिति मज़बूत हुई है या समाज में वाकई कोई क्रांतिकारी बदलाव हुआ है। अभिव्यक्ति के इन माध्यमों के दौर में लोकतंत्र ख़तरे में क्यों दिखाई देता है? पर क्या वो पहले से संकटग्रस्त नहीं है। क्या हमारी अभिव्यक्तियाँ सुरक्षित हैं ? क्या पहले थीं ? तो आज हम इतने घबराये से क्यों लगते हैं ? क्या सत्ता को वैकल्पिक नज़रों से देखने वालों का आत्मविश्वास कमज़ोर हो रहा है? सत्ता का संकट ज्यादा है या उनका आत्म संदेह गहरा गया है ? ऐसा नहीं है कि लोग बोल नहीं रहे हैं। बिल्कुल बोल रहे हैं। क्या हमारे बुद्धिजीवी वर्ग का आत्मविश्वास कमज़ोर हुआ है । सारे प्रतिरोध प्रतिकात्मक क्यों हैं। इन सब सवालों पर विचार करने का स्वर्णिम दौर है। अभिव्यक्ति का यह स्वर्ण काल है । अब अभिव्यक्तियाँ शिकायत नहीं कर सकती हैं कि कहने को बहुत कुछ था मगर कहाँ और कैसे कहें पता नहीं है । मैं विकास के विषय से भटका नहीं हूँ । कई राज्यों की आपसी प्रतियोगिता कई मामलों में बेहतर नतीजे दे रही है । कई मामलों में बेहतर नतीजा नहीं मिल पा रहा है । लेकिन बुनियादी बदलाव कहीं नहीं है। संस्थाएं उसी तरह से जेबी बनी हुई हैं। उनमें पेशेवरपन का विकास नहीं हो पा रहा है। हम इंडिकेटर के हिसाब से बदल रहे हैं मगर उस हिसाब से लोकतंत्र के इंस्टिट्यूशन क्यों नहीं बना पा रहे हैं। सारी संस्थाएं डरपोक हो गईं हैं। वो विचारों से डरने लगी हैं। कोई दूसरा विचार आता है तो डरकर मेज़ से कापी उठाकर छिपकली भगाने लगती हैं। किसी संस्था में दम नहीं है कि वो विकास के किसी मॉडल को खारिज कर दे। समीक्षा कर बंद करने का सुझाव दे दे। सब चल रहा है। अच्छा भी और बुरा भी। राजनीतिक पटल पर वैचारिक बोरियत है। इसलिए सारा ज़ोर धरना प्रदर्शनों के नए नए रूपों को गढ़ने और खोजने में किया जा रहा है। तरह तरह के प्रोटेस्ट लांच हो रहे हैं। प्रोटेस्ट क्रिएटिव होने लगे हैं। विकास को बिना बीमा के नहीं समझ सकते हैं। हम जिस विकास के मॉडल में जी रहे हैं उसमें बीमा ही सुपर मॉडल है। एक तरह से विकास नाम के साफ्टवेयर का ये एप्पल वर्जन है । बीमा का नाम लेते ही विकास टच स्क्रीन सा फ़ील देता है । खाता में धन नहीं लेकिन नाम जनधन है। कवि की तरह सोचता हूँ तो लटपटा जाता हूँ । समर्थक की निगाह से देखता हूँ तो आश्वस्त हो जाता हूँ । हर गरीब बैंक से जुड़ा होगा । हर अमीर का क़र्ज़ा माफ होगा । न गरीब के पास धन होगा न अमीर के पास कोई कर्ज होगा । सरकारी स्कूल बंद कर दो, पेंशन ख़त्म कर दो, दवाएँ महँगी कर दो, मरीज़ को आई सी यू में डालकर पैसे वसूलों, ग़रीबों को अस्पताल से दूर कर दो, मिडिल क्लास है जो सरकार से माँगता है, वो कहीं अस्पताल न मांग दे इसलिए उसे बीमा पकड़ा दो । क्योंकि उसे अपनी वाली सरकार तो पसंद है मगर उस सरकार का बनाया अस्पताल नहीं ! किसी भी सरकार के सबसे मुखर समर्थक को उसके सरकारी अस्तपाल में भर्ती करा आइये। खासकर फिल्म जगत वालों को। मुझे यकीन है कि वे बिल्कुल उसी तरह चादर की रस्सी बनाकर खिड़की के रास्ते भाग जायेंगे जैसा उनके किसी स्क्रिप्ट राइटर ने किसी फिल्म में सीन क्रिएट किया होगा।

खैर जैसे जैसे बीमा का विकास होगा मानव समाज का विकास होता चला जाएगा । हर चीज़ का बीमा है। बीमा ही हमारा भगवान है। मैं हैरान हूं कि किसी ने अभी तक बीमा भगवान का आश्रम क्यों नहीं बनाया है। अगर बीमा हमारी सुरक्षा है तो एक दिन लोग ग़रीबी भुखमरी और बेकारी से अपनी सुरक्षा के लिए बीमा की सरकार चुनेंगे । हर पब्लिक संस्थाओं का विकल्प बीमा हो जाएगा। कोई सरकार ऐसी होगी जो हर बात का बीमा देगी। मैं एक नया बीमा शुरू करना चाहता हूं। बोलने पर आप पिट जाएं या कहीं से निकाल दिये जाएं तो आपको ‘डेमोक्रेसी बीमा’ के तहत एक लाख रुपये मिलेंगे। जो सरकारें व्हीसल ब्लोअर एक्ट कमज़ोर करना चाहती हैं वो डेमोक्रेसी बीमा का लाभ दे सकती हैं। आप बीमा के भरोसे जी लेना । अगर आपके पास बीमा नहीं है तो कुपोषण और ग़रीबी से उबरने का कोई फायदा नहीं । ” stay there don’t come out of your poverty unless you have an insurance. ” ये डानल्ड ट्रंप का नहीं मेरा कोट है। विकास का एक नया रोल मॉडल है। स्मार्ट। फोन से लेकर शहर तक स्मार्ट होने जा रहे हैं। स्मार्ट विकास के युग का नया व्हाईट है। सोचिये शहर स्मार्ट हो गया, फोन हो गया, कार हो गई और आप स्मार्ट नहीं हुए तो क्या आप अपमानित महसूस नहीं करेंगे। क्या आपको उस स्मार्ट जगत में नागरिकता मिलेगी। किसी ने सोचा नहीं कि अंडे वाला, बादाम वाला अपनी रेहड़ी कहां लगाएगा। पटना में वसीम स्मार्ट कट सैलून में वसीम मियाँ बाल धीरे धीरे काटते थे । इतनी देर कर देते थे कि गर्दन में दर्द होने लगता था । आँसू निकल आते थे । जब सर उठाकर देखता था तो इस उम्मीद में चला आता था कि अगली बार स्मार्ट कट हो ही जाएगा । हमारे राजनीतिक दलों में लोकतंत्र नहीं है लेकिन लोकतंत्र के सबसे बड़े ठेकेदार वही हैं । लोकतंत्र का अंतिम पड़ाव क्या सिर्फ दल हैं ? पार्टियों के भीतर लोकतंत्र का अंतिम पड़ाव क्या है ? भीतर कोई चुनाव नहीं है । चयन है और मनोनयन है । उनके भीतर की संस्थाओं में कोई लोकतंत्र नहीं है। बाहर की संस्थाओं का इतना बुरा हाल क्यों है ? यह सवाल महत्वपूर्ण क्यों नहीं है ? मैनेज करने के लिए बाहर से मैनजर बुलाये जा रहे हैं । ये मैनजर डबल सिम की तरह काम करते हैं। चुनाव भी जीता देते हैं और मैनेजर विकास का फ़ार्मूला बना रहे हैं । ऐसा फ़ार्मूला जिसमें विकास होता हुआ से ज़्यादा बंटता हुआ दिखे। स्कूली बच्चों को जूता बाँटने की योजना कहीं लाँच हुई है । विकास का एक दोस्त है सुधार । रिफार्म । बिना सुधार के विकास नहीं आता और बिना विकास के सुधार नहीं आता । हम सबको शोले इसीलिए तो पसंद है । बाद में पता चलेगा कि सिक्के में दोनों तरफ हेड ही लिखा है । टेल की बारी कभी आएगी नहीं । पर हम गा सकते हैं । वो सुबह कभी तो आएगी । ( ये भाषण मुंबई के TISS के छात्रों के लिए लिखा था । कुछ देख कर पढ़ा और कुछ पढ़ते पढ़ते जोड़ गया । नया नया चश्मा लगाने के कारण कुछ दिखा कुछ रह गया । खैर लिखा हुआ यहाँ छाप रहा हूँ । टीवी पर कविता मेरी है और मौलिक है ! ) कस्बा से साभार



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