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युद्ध काल आपातकाल की पत्रकारिता का ही एक नमूना है

मीडिया            Mar 01, 2019


राजेश बादल।
हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच तनाव मीडिया को भी आगाह करने वाला है। जंग की स्थिति में मीडिया के कुछ राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मानक भी होते हैं।

ऐसे में इन मानकों का उल्लंघन गंभीर ग़फ़लत भी पैदा करता है। उसके कई बार घातक परिणाम भी होते हैं।

इसलिए समय रहते इन मापदंडों से सभी माध्यमों के पत्रकारों का अवगत होना ज़रूरी है। युद्ध काल आपातकाल की पत्रकारिता का ही एक नमूना है।

पुलवामा हमले के बाद भारत ने जैश-ए-मोहम्मद के ठिकानों को निशाना बनाया। पाकिस्तान जिस तरह से व्यवहार कर रहा है, उससे लगता है कि मौजूदा झड़पें किसी भी पल जंग का रूप ले सकती हैं। भले ही वह सीमित हो या संपूर्ण।

नहीं भूलना चाहिए कि मुल्क़ में पत्रकारों की बड़ी जमात ऐसी है, जिसने कभी भी युद्ध का कवरेज़ नहीं किया। हमारे मीडिया शिक्षण संस्थानों में युद्ध कवरेज व्यापक रूप से पाठ्यक्रमों में शामिल भी नहीं है।

इसलिए रेडियो,टीवी,डिज़िटल मीडिया और अख़बारों के संचालकों को अपने समूह में अपनी ओर से एक आचार संहिता जारी करनी चाहिए।इसमें कुछ बातों का उल्लेख यहां ज़रूरी समझता हूं।

कहावत है कि इश्क़ और जंग में सब जायज़ है। इसलिए जंग जीतने के लिए वीर सैनिकों और हथियारों का उपयोग तो होता ही है, सभी तरह के मानसिक हथियार,छल,कपट और प्रपंच भी रचे जाते हैं। पहली बात तो यही है कि जंग के दरम्यान सरकार और सेना की आधिकारिक सूचना को ही सच मानें।

किसी भी अन्य सूत्र से मिली ख़बर का दस बार परीक्षण कर लीजिए। किसी भी सूरत में लाशें,वीभत्स, ख़ूनी दृश्य-फोटो नहीं दें। राष्ट्रीय स्वाभिमान और अपने देश की कमज़ोरी साबित करने वाली जानकारी से बचें।

सेना के अधिकारियों और राजनेताओं की बैठकें,उनका स्थान,समय और उनमें क्या विचार हुआ-कतई प्रसारित न करें। इसी तरह सेना के मूवमेंट,रेलों की ख़ास आवाजाही और कोई भी असामान्य गतिविधि प्रसारित नहीं करें।

फ़ाइल फुटेज से एकदम परहेज़ करिए। इससे ग़लतफ़हमी होती है। पत्रकार वार्ताओं में कठिन सवाल से बचें। सेना या अधिकृत प्रवक्ता जो भी जानकारी दें, उसका ही इस्तेमाल कीजिए।

चैनलों में इन दिनों आपसी होड़ के चलते दिन भर अलग-अलग गेस्ट के साथ चर्चा और बहस का सिलसिला चलता रहता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इतनी बड़ी संख्या में रक्षा व युद्ध के जानकार गेस्ट नहीं मिल पाते।

ऐसे में स्क्रीन पर संतुलन बनाए रखने के लिए घंटों तक अपेक्षाकृत कमज़ोर गेस्ट बुला लिए जाते हैं। इनका ज्ञान उतना विशद और व्यापक नहीं होता। कई गेस्ट अपने को अपडेट नहीं करते।

विडंबना यह भी है कि वे चर्चा के दौरान अपने ज्ञान को ब्रह्म सत्य मानते हैं। कोई उन्हें चुनौती देता है तो कुतर्क करते हैं और स्क्रीन हंगामे की बलि चढ़ जाती है। इसलिए जंग के दौरान बेशक कम गेस्ट बुलाएं, मगर अच्छे हों, कम बहस करें, मगर शालीन करें। हमारे तेज़ी से बढ़ते मीडिया के लिए क़ाबिल गेस्ट गंभीर समस्या है।

इन दिनों त्वरित सूचना देने की आदत सी बन गई है। डिज़िटल और सोशल मीडिया के अनेक अवतारों में हमने हाल ही में देखा है। इसलिए युद्ध के दिनों में कोई भी फोटो, विडियो तथा अन्य सूचनाओं का प्रतिपरीक्षण ज़रूर करिए।

अभी भारतीय इन नए अवतारों के मामले में उतने प्रबुद्ध और गंभीर नहीं हो पाए हैं तो अनेक नकारात्मक एक्सपर्ट बन बैठे हैं। वे छेड़छाड़ और ग्राफिक्स हुनर का सहारा लेकर विकृत ढंग से ख़बरों को पेश करने में माहिर हैं। बड़ी आबादी इन पर भरोसा भी कर लेती है।

ध्यान रखिए कि इस तरह की जानकारी देना ग़ैरज़मानती अपराध भी है। आम दिनों में ग़लत सूचना के प्रसार से अर्थ का अनर्थ हो जाता है।

अक्सर शत्रु देश भी अपने प्रतिद्वंद्वी को चकमा देने के लिए ग़लत सूचनाओं का प्रसार करते हैं। इनसे बचना ही होगा। शत्रु देश के चैनलों और उसके प्रसार माध्यमों को अंतिम सत्य नहीं मानना चाहिए।

प्रत्येक चैनल,रेडियो स्टेशन, न्यूज़ पोर्टल और अखबार को अपने प्रोफेशनल्स के लिए कम से कम एक दिन की वर्कशॉप करनी चाहिए।

इसमें अंतर्राष्ट्रीय और कूटनीतिक संबंधों की अधिकृत जानकारी,सैनिक जानकारी और आंकड़ों की अधिकृत जानकारी देनी चाहिए।

पुराने सन्दर्भ सेना और सरकार के हवाले से ही उपयोग करें या फिर उस विषय पर महारथी लेखकों की किताबों से लेने चाहिए। इससे संवेदनशील समय में त्रुटियों की आशंका नहीं रहती।

अंतिम बात यह कि पूरे देश में प्रसारण और प्रकाशन के दौरान नियमित रूप से हेल्पलाइन नंबर, आपात नंबर, अस्पताल के नंबर, पुलिस और सरकार के जनसंपर्क विभागों के नंबर और युद्ध काल में सेना द्वारा दी गई जानकारी को अन्य सूचनाएं रोककर देना चाहिए।

तभी आपके प्रोफेशनल्स सच्चे युद्ध काल के पत्रकार बन सकेंगे मिस्टर मीडिया!

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

 


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