मल्हार मीडिया ब्यूरो।
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार 1 सितंबर को कहा कि बियॉंड रीजनेबल डाउट यानि संदेह से परे प्रमाण के सिद्धांत का गलत इस्तेमाल होने से कई असली अपराधी कानून की पकड़ से बाहर निकल जाते हैं। अदालत ने कहा कि ऐसे मामले समाज में असुरक्षा की भावना बढ़ाते हैं और आपराधिक न्याय व्यवस्था पर धब्बा हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी उस समय की, जब उसने एक नाबालिग से दुष्कर्म मामले में ट्रायल कोर्ट द्वारा दोषी ठहराए गए दो आरोपियों की सजा बहाल कर दी। पटना हाई कोर्ट ने दोनों को बरी कर दिया था, लेकिन शीर्ष अदालत ने हाई कोर्ट का आदेश रद्द करते हुए कहा कि न्यायालयों को वास्तविकताओं और संवेदनशीलता को समझकर फैसले देने चाहिए।
न्यायमूर्ति संजय कुमार और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने कहा कि कई बार छोटे-छोटे विरोधाभास और खामियों को ‘रीजनेबल डाउट’ का दर्जा देकर बरी कर दिया जाता है। अदालत ने साफ कहा कि निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए, लेकिन उतना ही जरूरी है कि असली अपराधी गलत तरीके से छूटने न पाए।
पीठ ने कहा कि जब भी कोई दोषी संदेह का फायदा उठाकर छूट जाता है, तो यह न केवल पीड़ित बल्कि पूरे समाज के लिए असफलता है। खासकर यौन अपराधों के मामलों में यह आपराधिक न्याय प्रणाली पर गंभीर सवाल खड़ा करता है।
मामला वर्ष 2016 का है, जब होली के कुछ महीनों बाद बिहार के भोजपुर जिले की एक नाबालिग लड़की अस्वस्थ हुई। जांच में पता चला कि वह तीन महीने की गर्भवती है। इसके बाद उसने बताया कि उसके साथ दो आरोपियों ने बलात्कार किया था। एफआईआर दर्ज हुई और चार्जशीट दाखिल की गई। ट्रायल कोर्ट ने दोनों को दोषी ठहराकर आजीवन कारावास की सजा सुनाई।
लेकिन सितंबर 2024 में पटना हाई कोर्ट ने अभियोजन पक्ष के सबूतों में खामियां बताते हुए दोनों को बरी कर दिया। इस फैसले को पीड़िता के पिता ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ग्रामीण इलाकों में पहचान और शिक्षा से जुड़े दस्तावेजों में विसंगतियां आम बात हैं। इसलिए अदालतों को संवेदनशील रहकर तथ्यों को देखना चाहिए। अदालत ने कहा कि कोई सबूत कभी भी पूर्ण नहीं होता और ‘परफेक्ट’ सबूत कई बार सिखाए गए या बनाए गए लग सकते हैं।
पीठ ने यह भी कहा कि सबूतों की गुणवत्ता जांच और सामाजिक परिस्थितियों पर निर्भर करती है। अदालतों को यह देखना चाहिए कि विरोधाभास का क्या प्रभाव है और क्या वे सही तरीके से समझाए गए हैं या नहीं।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ट्रायल कोर्ट नींव रखता है और काम में कुछ छोटी गलतियां स्वाभाविक हैं। अपीलीय अदालतों को इन गलतियों के असर को सावधानी से परखना चाहिए। हर गलती घातक नहीं होती। इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट का फैसला बहाल किया और दोषियों को दो हफ्ते में आत्मसमर्पण का आदेश दिया।
पीठ ने कहा कि अपराधियों का संदेह का फायदा उठाकर छूटना समाज के लिए खतरनाक है। यह न केवल पीड़ित के लिए न्याय में विफलता है, बल्कि महिलाओं, बच्चों और हाशिए पर खड़े समुदायों के लिए न्याय व्यवस्था की संवेदनशीलता पर भी प्रश्नचिन्ह है। अदालत ने कहा कि हर मामले में प्रक्रियात्मक शुद्धता महत्वपूर्ण है, लेकिन जब इसी का गलत इस्तेमाल अपराधी करते हैं तो यह पूरी व्यवस्था की हार है।
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