वीरेंदर भाटिया।
लाल सिंह चड्ढा पूरी फिल्म में भागता रहता है(दौड़ता रहता नही)। वह इतना भागता है कि भागते- भागते उसके सामने समन्दर आ जाता है तो रुकना पड़ता है। उसके आगे पहाड़ आ जाता है तो उसे रुकना पड़ता है। भागते को देखकर लोग उसके पीछे भागना शुरू करते हैं। लाल सिंह कमअक्ल भोला पात्र है जो सांकेतिक रूप से दर्शाता है कि लोग तो आपके पीछे बेवजह ही लगने को तैयार हैं तुम बस आगे रहो।
भागते- भागते लाल सिंह रुक जाता है। मीडिया कयास लगाता है कि लाल सिंह के रुकने की वजह क्या है। मीडिया लाल सिंह से पूछता है आप रुक क्यो गए लाल सिंह। और लाल सिंह चड्ढा कहता है , "क्योंकि मैं थक गया हूँ।" दर्शक हंसते हैं और मुझे अजीब लगता है कि तुम इतना सपाट जवाब दोगे? जब तुम्हे खुद नहीं पता कि तुम भाग क्यों रहे हो तो हम ही पैसे क्यों खराब करें।
दरअसल लाल सिंह भोला है। वह भाग रहा है। औऱ भागते भागते उसके रास्ते मे अन्ना मूवमेंट आता है। जीवन में वह इमरजेंसी देखता है , 84 देखता है, इंदिरा गांधी की हत्या देखता है, आडवाणी रथ यात्रा और उसके बाद हुए दंगे, मुंबई ताज हमला मुंबई बम्ब कांड देखता है, औऱ आम आदमी की तरह सिर्फ उनसे भागता है।
क्या लाल सिंह एक आम आदमी के बारे में सांकेतिक रूप से बता रहा है कि तमाम जरूरी घटनाओं मुद्दों से हम ऐसे ही भाग जाते हैं पीठ दिखाकर?
फ़िल्म भी वस्तुतः इन तमाम मुद्दों से सिर्फ भागती है। रुकती नही वहां कहीं, जैसे कविता होती है जो मुद्दे को सिर्फ छूती है और पूरा विमर्श पाठक के लिए छोड़ जाती है। लाल सिंह चड्ढा बनाते वक्त यदि आम आदमी को इतना ही बताना था तो फिल्ममेकर को शाबाश कह देने में गुरेज नही लेकिन आम आदमी आपकी कविता नही समझता।
वह पूछ रहा है कि लाल सिंह तुम भाग क्यो रहे हो। भोले हो, इसलिए? बचपन में ठीक से चल नही सकते थे इसलिए? या भागने से समस्या पीछे रह जाती है? लाल सिंह चड्ढा फिल्म यह बताती है कि हां, भागने से समस्या पीछे रह जाती है।
लाल सिंह कहता है कि मेरी मम्मी कहंदी है जी कि चमत्कार होंदे ने।
क्या यह वही आमिर खान है जो थ्री ईडियट्स मे चमत्कारों को धता बता चुका है? क्या यह वही आमिर खान है जो लगान और दंगल में भिड़ने की जिद दिखा चुका है? क्या यह वही आमिर खान है जो भागने को कायरता कहता है।
साफ तौर पर वह देश के भीरू लोगों को भागने की उनकी आदत के बारे में याद करवा रहा है लेकिन स्क्रिप्ट में वह भाग कर बार-बार बच जाता है। आम जीवन में हम भी भाग कर कुछ न कुछ तो बच ही जाते हैं और हमारे भीतर भागने का अपराध बोध भी नही होता, बस खुद को समझा लेते हैं कि थक गया हूं।
लाल सिंह चड्ढा आमिर खान की फिल्म है, डेविड धवन की नही है , इसलिए आप दिमाग साथ लेकर जाते हैं। लेकिन कई जगह फिल्म आपसे दिमाग छोड़ देने की उम्मीद करती है जब कारगिल में वह घायल सैनिकों को उठाकर भागता है, बचाता है, इसी क्रम में वह दुश्मन सरगना को भी उठा लाता है।
आर्मी में ऐसी गलती नही होती, आर्मी में ऐसे लोगों को प्रमोशन नहीं मिलती, आर्मी इतनी बड़ी गलती पर चुप नहीं बैठती, आर्मी संभवत्या ऐसे भोले आदमी को भर्ती भी न करती हो लेकिन उसे तो युद्ध के बाद दौड़ का कोच नियुक्त किया जाता है।
बाद में वही सरगना उसकी चड्डी बनियान कम्पनी में महत्वपूर्ण पद पर काम करता है। हालांकि वहां एक संवाद बहुत कमाल का है जब दोनो पैर गंवा चुका सरगना लाल सिंह के अहसान तले दबा है और मलेरिया (फसाद) फैलाने पर शर्मसार है, वह पूछता है कि तुम कभी इबादत नहीं करते किसी की?
तो लाल सिंह कहता है कि मेरी मम्मी कहंदी है कि मजहब नाल मलेरिया फैलदा है। लेकिन मुझे नहीं लगता कि किसी सरगना का इतना खुले आम रहना इस तरह सम्भव होता है।
रूपा कॉरपोरेशन का नाम कैसे use किया यह सवाल बना रहता है क्योंकि रूपा कॉरपोरेशन वाले अग्रवाल की कहानी लाल सिंह चड्ढा से नहीं मिलती और वह कम्पनी 1985 में अस्तित्व में आई जबकि लाल सिंह चड्ढा ने कारगिल के बाद किसी रूपा बनियान नाम की कम्पनी बनाई।
एक कम अक्ल बच्चा जिसे यह बोध तक नही कि फौज में उसका दुश्मन कौन है, उसे बचाना है या नही, इतनी कॉमन सेंस भी नहीं होने के बावजूद वह करोड़ों की कम्पनी का मालिक होता है।
आमिर खान की फिल्मो में पात्र का अमीर होना या पात्र का करिश्माई होना जरूरी तत्व है जबकि एक सामान्य पात्र का बडी कंपनी खड़ी कर जाना भारतीय अर्थव्यस्था में लगभग असम्भव काम है।
फिल्म में आमिर खान अच्छी पंजाबी नहीं बोलता। लेकिन पगड़ी वह खुद बांधता है और बड़ी सोहनी पगड़ी बांधता है जबकि होता उल्ट है, भोला बच्चा अच्छी पंजाबी बोलता है और ढीली पगड़ी बांधता है।
अमूमन तो वह बांध ही नहीं सकता। सिख बच्चा अपनी मां को हर संवाद में मम्मी कहता है जबकि बेबे कहने भर से ही पंजाबी का पुट आ जाता। लाल सिंह कई हजार किलोमीटर भागने के बावजूद वही जूते पहने रहता है जो उसे रूपा ने दिए थे जबकि वह कपड़े बदलता है और भागते- भागते उसकी दाढ़ी बढ़ जाती है, केस बढ़ जाते हैं लेकिन जूता नहीं फटता।
फारेस्ट गंप फिल्म का इसे रीमेक कहा जा रहा है जिसमे नायक के जीवन के साथ साथ उसका मुल्क चलता है मुल्क की घटनाएं चलती हैं।
यह एक काव्य है जिसे आम आदमी उसी लहजे और भाव में नही समझता जिस भाव से काव्य रचा जाता है। इसीलिए समीक्षकों ने इसे poor रेटिंग दी है।
फिल्म का शुरुआती कलेक्शन आमिर की वजह से मिल रहा है, धीरे धीरे इस फिल्म का कलेक्शन गिरेगा और यह आमिर की सबसे कम कलेक्शन वाली फिल्म साबित हो सकती है।
इस फिल्म में सबसे बड़ा और विश्वसनीय काम मोना सिंह ने किया है। वह इस फिल्म की नायिका कहिए। आमिर खान से हर बार इक्कीस रही है मोना सिंह।
इस फिल्म पर भक्तो का जो विरोध है उसके बारे मुझे एक घटना याद आती है। मुंबई के एक फिल्मकार से एक बार मिलना हुआ।
बातों बातों में उन्होंने कहा कि शाहरुख की लगभग हर फिल्म का विरोध क्यों होता है, आप जानते हैं? मैने कहा, मुस्लिम होने की वजह से? उन्होंने कहा, यहां धर्म की सिर्फ आड़ है, धर्म पैसे कमाने का टूल भर है इधर, दरअसल जिस फिल्म के बारे शाहरुख को लगता है कि यह नही चलेगी उसका वह स्थानीय नेताओं से विरोध करवा देता है।
संभव है इस काव्यात्मक फिल्म का कलेक्शन maas से कम आने की उम्मीद के चक्कर में इसका विरोध प्रायोजित हो। भक्तो को मालूम ही नही पड़ा कि कौन उनके विरोध का भी सौदा कर गया।
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