डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।
आज नई और पुरानी, हिन्दी और अंग्रेजी की कुल 8 फिल्में लगी हैं। मैंने मुक्ति भवन को चुना। इसका कारण यह था कि यह मंजे हुए कलाकारों की गैर व्यावसायिक फिल्म है। इसमें ग्लैमर, कॉमेडी, एक्शन, सेक्स, रोमांस आदि का कोई तड़का नहीं है, बल्कि यह फिल्म मृत्यु को लेकर है। जो कि शाश्वत है। 99 मिनिट की फिल्म के आइनॉक्स में केवल दो शो थे। सिनेमा हॉल में मेरे अलावा तीन और दर्शक मौजूद थे। शायद वे भी शाश्वत की तलाश में आए थे।
मुक्ति भवन बताती है कि मृत्यु एक प्रक्रिया है, जिसे हम मोक्ष समझते है, वह कोई लहर नहीं, पूरा समन्दर है। आत्मा शरीर में रहती है और एक बार वह गई, तो फिर गई। कोशिश करने से भी मौत नहीं आती। मौत आती है मन से। ऐसी गंभीर बातें इस फिल्म में बड़े ही सरल अंदाज में बताई गई है। पारंपरिक सिनेमा की तरह इसमें हीरो जैसा कोई हीरो नहीं है और हीरोइन जैसी कोई हीरोइन नहीं है। मौत के रिश्ते को पिता-पुत्र के संदर्भ में बदलते हुए दिखाया गया है। फिल्म हमारे मन को झकझोरती है। कुछ भी अनुपेक्षित नहीं होता। मंथर गति से फिल्म चलती रहती है। फिल्म में ही पति-पत्नी, दादा और पोती, बहू और ससुर के रिश्ते भी मानवीय तरीके से फिल्माए गए हैं, जहां हर कोई हर किसी से चाहता है और विपरीत हालात में भी एक-दूसरे के साथ बंधा रहता है। दिल को छू लेने वाली बात यह है कि 77 साल का बूढ़ा अपनी युवा पोती के मनोभावों को पढ़ने में सक्षम है, जबकि उसके माता-पिता वे बातें नहीं समझ पाते।
77 साल के दया को लगता है कि अंतिम दिन करीब आ गए है, तो वह अपने बेटे राजीव के सामने अपनी इच्छा रखता है कि वह काशी की यात्रा करना चाहता है और अंतिम ख्वाहिश के रूप में वह कहता है कि अपनी आखिरी सांसें वहीं लेना चाहता हैं। यह एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार है, जहां सबसे बड़ी चिंता युवा बेटी की शादी की होती है। पुराने जमाने का वेस्पा स्कूटर बूढ़े व्यक्ति की बेशकीमती संपत्ति है, जो वह अपनी पोती को दे देना चाहता है। बूढ़े दादा के अलावा पोती भी स्कूटर चलाना जानती है। बेटे-बहू से छुपाकर उन्होंने पोती को स्कूटर चलाना सिखाया था।
बूढ़े पिता की इच्छा पूरी करने के लिए बेटा नौकरी से छुट्टी लेकर काशी पहुंचता है और वहां गंगा किनारे मुक्ति भवन जैसी धर्मशाला में रुकता है। धर्मशाला के नियम है कि वह केवल शाकाहारी, शराब नहीं पीने वाले और जरूरतमंदों को ही 15 दिन अधिकतम उपलब्ध हो सकती है। अगर 15 दिन में मुक्ति नहीं मिली, तो वापस लौटना पड़ता है। धर्मशाला ऐसी, जहां खाना खुद बनाना पड़ता है, अपना पानी भी खुद भरना पड़ता है और पुरानी खंडहरनुमा धर्मशाला में जहां निम्न मध्यवर्गीय व्यक्ति को भी रुकना गंवारा नहीं, पिता को लेकर बेटा रुक जाता है। वहीं वह पिता की सेवा करता है, ऑफिस से निरंतर फोन आते रहते है। उनमें भी व्यस्त रहता है। पिता को खाना बनाकर खिलाता है, मालिश करता है, कपड़े धोता है और हर नाज-नखरा सहता है। इस फिल्म में बूढ़े व्यक्ति का बचपना, उसकी जिद, रुठना, मनाना सभी कुछ शामिल है। धर्मशाला का प्रबंधक एक बूढ़ा मिश्रा नाम का व्यक्ति है, जिसे एहसास हो जाता है कि कब कौन जाने वाला है। यहां दया की तबीयत बिगड़ जाती है और लगता है कि वह अब सिधारा तब सिधारा, लेकिन होनी कुछ और ही रहती है।
काफी लंबे घटनाक्रमों के बाद दया अपनी मंजिल की और महाप्रयाण करता है। खत्म होने तक फिल्म अनेक संदेश छोड़ जाती है। जैसे मृत्यु का कोई भरोसा नहीं, कब आ जाए। हो सकता है कि जब आप उसका इंतजार कर रहे हो, तब वह आपको ठेंगा बताकर चली जाए। मृत्यु को लेकर हमारे यहां गंभीर फिल्में नहीं बनी है और मृत्यु की चर्चा करना भी आमतौर पर लोगों को पसंद नहीं है। फिल्म मृत्यु के बारे में खुलकर सोचने पर मजबूर करती है। निष्कर्ष के तौर पर यहीं निकलता है कि जिंदगी को इतनी गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं। फिल्म के निर्देशक शुभाशीष भूूतियानी हैं और प्रोड्यूसर हैं, संजय भूतियानी। फिल्म में बूढ़े दादा का रोल किया हैं ललित बहल ने और बेटे राजीव के रोल में हैं आदिल हुसैन, जिन्होंने लाइफ ऑफ पाई में पाई के पिता का रोल किया था। बहू लता बनी हैं गीतांजली कुलकर्णी और पोती पलोमी घोष ने ग्लैमर की दुनिया से अलग एक छोटा संजीदा रोल किया।
मुक्ति भवन आम फिल्मों से हटकर है, इसमें अगर आप मौज-मस्ती तलाश रहे है, तो वह नहीं है। हां, गंभीर सिनेमा देखना हो या अपने आप को बुद्धिजीवी साबित करना हो, तो आप यह फिल्म देखने जा सकते है। यह पैसा वसूल टाइप फिल्म नहीं है।
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