Breaking News

फिल्म समीक्षा:अझेलनीय, वेश्याओं,दलालों का महिमा मंडन करती बेगम जान

पेज-थ्री            Apr 13, 2017


डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।
वेश्याओं और तवायफों को लेकर दर्जनों फिल्में अब तक बन चुकी है, लेकिन बेगम जान में वेश्याओं और दलालों का जो महिमा मंडन किया गया है, वह अझेलनीय है। अब तक शायद ही किसी फिल्म में कोठे वाली मौसी को रजिया सुल्तान और रानी पद्मावती बताने की कोशिश की गई हो। यहीं यह फिल्म बचकानी लगने लगती है। बेगम जान बनी विद्या बालन इस फिल्म में दर्जनभर युवतियों, दो खूंखार कुत्तों, दो-तीन दलालों, दो-तीन मुस्टंडों और राजा साहब की चमचागिरी के बूते पर अखिल भारतीय कोठा चलाती है। उसके कोठे में गुजरात से लेकर पंजाब तक की वेश्याएं हैं। उसका कोठा क्या है, पूरी एक सत्ता है। उसकी मर्जी के बिना वहां पत्ता भी नहीं खड़क सकता। वह दिनभर हुक्का पीती, मालिश करवाती, गालियां बकती और अपना महिमा मंडन करती रहती हैं।

बेगम जान को अपना कोठा ही अपना घर और अपना देश लगता है। उसके कोठे की वेश्याएं सुंदर, भावुक, कभी डरने वाली और कभी सैनिकों से भी ज्यादा बहादुर है। उन्हें पढ़ना-लिखना भले ही न सिखाया जा सका हो, पर वे बंदूकें, चाकू-छुरे सबकुछ चला लेती है। कसाई जैसी बेगम जान से वे डरती भी है और उसकी इज्जत भी करती है। कोठे की लड़कियों पेश कर करके और राजा साहब की चापलूसी के बूते पर वह सूबे के तमाम अफसरों को अपनी जेब में रखती है। 1947 में भारत-पाक विभाजन पर अमल करने के लिए जब सर साइरिल रेडक्लिफ ने विभाजन रेखा बनाई, तब वह रेखा बेगम जान के कोठे से बीच से गुजर रही थी। बेगम जान इसे कैसे बर्दाश्त करती? वह झांसी की रानी बन जाती है (जी हां, झांसी की रानी वाली कविता फिल्म में बैकग्राउंड में सुनाई गई है)। बस यहीं सबकुछ है बेगम जान में। बीच-बीच में बेगम जान अपना अंग प्रदर्शन करती रहती है और सुभाषितों की बौछार भी। बात सही भी है। कोठे पर कोई भजन तो होंगे नहीं।

सेक्स और गालियों को हिन्दी फिल्मों की कहानी का हिस्सा बनाने का दौर है यह। कहानी ही ऐसी चुनी जाती है, जिसमें इन सब बातों की भरपूर गुंजाइश हो। ऐसे में कोई यह आरोप नहीं लगा सकता कि फिल्म में अश्लीलता है। 2017 के दौर में मंडी, चांदनी बार, साधना, प्यासा, चेतना और चमेली जैसी वेश्याओं पर आधारित फिल्में तो बनेंगी नहीं, बेगम जान जैसी ही बन सकती है। प्यासा और साधना जैसी फिल्मों का यहां संदर्भ दिए जाने पर आप हंस भी सकते है, लेकिन ये नए दौर की फिल्म है। इन फिल्मों में रंगून को विश्वयुद्ध से जोड़ा जा सकता है और फिल्लौरी को जलियांवाला बाग कांड से। ऐसे ही बेगम जान को 1947 के भारत-पाक विभाजन से जोड़ा गया है। यह सिरदर्द पैदा करने वाला है। जुजुप्सा जगाने वाला है। तवायफों की जिंदगी पर भी पाकीजा और उमराव जान जैसी कलात्मक फिल्म बनाई जा चुकी है, लेकिन बेगम जान की इससे तुलना करना पाकीजा और उमराव जान की बेइज्जती करना होगा।

बांग्ला भाषा में राजकहिनी नाम से सालभर पहले ही कोई फिल्म बनी थी, उसी का री-मेक इस फिल्म को बताया जाता है। फिल्म क्या है चूं-चूं का मुरब्बा है। फिल्म में अनेक प्रमुख कलाकारों की भीड़ है, जिनमें से अधिकांश को इन दिनों कोई काम नहीं मिल रहा है। चंकी पांडे, गौहर खान, आशीष विद्यार्थी, रजत कपूर, विवेक मुशरान, इला अरुण, नसीरुद्दीन शाह, सुमित निझावन, राजेश शर्मा, पल्लवी शारदा, प्रियंका सेठिया, रिद्धिमा तिवारी, रवीजा चौहान, पूनम राजपूत, ग्रेसी गोस्वामी, मिष्ठी, फ्लोरा सैनी आदि कलाकारों की भीड़ भी इस फिल्म में दर्शकों को बांधकर नहीं रख पाती। वेश्याओं का कोई धर्म नहीं होता, उनका कोई देश नहीं होता, उनका कोई प्रेमी नहीं होता। वेश्याएं वर्ष याद नहीं रखती, लेकिन महीना उन्हें खूब याद रहता है। फिल्म का गीत-संगीत मधुर है, लेकिन भारत-पाक विभाजन के दौरान होली का त्यौहार अजीब लगता है।

किसी कोठे की मौसी की तरह बेगम जान को बाहर से क्रूर, लेकिन अंदर से सह्रदय दिखाने की कोशिश की गई है। कोठा चलाना अपने आप में क्रूरता की पराकाष्ठा हैं। वहां किसी कोठेवाली के सह्रदय दिखाने की कोशिश वैसी ही है, जैसी किसी कसाई को जानवर के प्रति दयावान दिखाना। फिल्म के अंत में तो निर्देशक ने हद ही कर दी, जब कोठे की वेश्याएं बंदूक लेकर भारत-पाक विभाजन के लिए कांटेदार तार बिछाने वालों से ‘युद्ध’ करती हैं। कुछ उसमें शहीद हो जाती है और बची-खुची आकर अपने कोठे में महारानी पद्मिनी की तरह जौहर कर लेती है। पृष्ठभूमि में महारानी पद्मिनी की कहानी भी सुनाई जाती है।

बेगम जान को इस फिल्म में झांसी की रानी, रजिया सुल्तान और रानी पद्मिनी की तरह दिखाने की नाकाम कोशिश हास्यास्पद लगती है। बॉलीवुड के कुछ लोगों को भले ही यह क्रांतिकारी लगे, इसका कोई सिर-पैर नहीं है। मेरा दावा है कि अगर आप सोचने लगेंगे, तो शायद ही इसे हजम कर पाए। वेश्याओं को बराबरी का सम्मान मिले, उनके धंधे को कानूनी मान्यता दी जाए, उनके प्रति मानवीय रवैया अपनाया जाए, जैसी बात तो समझ में आती है, लेकिन वेश्याओं के आगे पुलिस अधिकारी, राजा-रजवाड़े, स्वाधीनता की लड़ाई लड़ने वाले कार्यकर्ता आदि सभी नाकारा दिखाए जाएं, तो किसी विचारवान व्यक्ति के लिए उसे हजम करना मुश्किल है।

इस फिल्म को देखने जाएं, तो अपने जेब में सिर दर्द से छुटकारा पाने वाली गोली लेकर जाएं। कहते है कि फिल्म केवल 15 करोड़ में बनी है। शायद इतने पैसे यह वसूल कर लेगी। बंगाल में यह फिल्म हिट हुई थी।


Tags:

sammed-shikhar

इस खबर को शेयर करें


Comments