डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।
गैंगरेप किसी के लिए दर्दभरी यातना है, तो किसी के लिए फिल्म का मसाला। मातृ ऐसे ही एक गैंगरेप के बाद एक लड़की की हत्या और उसकी मां के इंतकाम की कहानी है। इस विषय पर पहले भी कई फिल्में आ चुकी हैं। फिल्म में रवीना टंडन के अलावा कुछ भी उल्लेखनीय नहीं है। गैंगरेप, मजबूर लड़की, मजबूर मां, नाकारा पुलिसवाले, भ्रष्ट नौकरशाही, भ्रष्ट मुख्यमंत्री, मुख्यमंत्री का अय्याश लड़का, नशे का कारोबार, गुुंडों के चंगुल में मासूम लड़कियां, मजबूर औरत का इंतकाम, बदला, बदला, बदला कहानी खत्म। औसत गाने, औसत फोटोग्राफी, औसत निर्देशन, औसत से कमतर अभिनय, कमजोर गीत-संगीत, अतार्किक कहानी।
इस सबके घालमेल से जैसी फिल्म बन सकती थी, वैसी बन गई, पर दर्शक भी बुद्धिमान है। कई थिएटरों में फिल्म का पहला शो देखने इक्के-दुक्के दर्शक ही पहुंचे और कई शो हुए ही नहीं।
स्वतंत्र न्यायपालिका और स्वतंत्र प्रेस के होते हुए जिस तरह का घटनाक्रम बुना गया है, वह अविश्वसनीय है। बदला लेने के तरीकों में भी दोहराव है। बलात्कार के दृश्यों का फिल्मांकन वीभत्स है, जो दर्शकों को बेचैन कर देता है। दिल्ली के मुख्यमंत्री को थप्पड़ मारने का प्रसंग केजरीवाल के प्रसंग से अलग है और दोनों में कोई ताल-मेल नहीं है। स्त्री विमर्श के पैरोकार भी इस फिल्म से निराश होंगे। रवीना टंडन के मुकाबले लगभग सभी कलाकार नए और कच्चे है।
रवीना टंडन के पात्र की कहानी में भी बहुत ज्यादा ट्रेजडी डालने की कोशिश की गई है। इतना बड़ा महकमा और इतने बड़े-बड़े गुंडे एक साधारण स्कूल टीचर से नहीं निपट पाते। यह बात भी अटपटी लगती है। स्कूल टीचर को भी सामान्य महिला ही दिखाया गया है। एक्शन के नाम पर कोई बहुत ज्यादा करतब नहीं दिखाया गया है। फिल्म इतनी कमजोर है कि राहत फतेह अली खान के गाये गीत भी कुछ प्रभाव नहीं छोड़ पाए। पहले से ही पता चल जाता है कि फिल्म की कहानी किस मोड़ पर जाएगी और अचरज यह कि इतनी हत्याएं करने के बाद भी साधारण सी स्कूल टीचर कानून के दायरे में नहीं फंसती। फिल्म में मोमबत्ती ब्रिगेड, मीडिया, न्याय व्यवस्था आदि पर तंज कसे गए है।
कोई वाजिब कारण नहीं है कि यह फिल्म देखी ही जाए।
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