डॉ.प्रकाश हिंदुस्तानी।
फ़िल्म बनाने में खपी आवश्यक सामग्री
गाने : 33 प्रतिशत
युध्द के दृश्य : 7 प्रतिशत
शाहिद+कंगना के किसिंग सीन : 8 प्रतिशत
कंगना +सैफ के किसिंग सीन : 3 प्रतिशत
पुरानी फिल्मों की मिमिक्री : 18 प्रतिशत
पुराने दौर की छुक-छुक रेल : 6 प्रतिशत
अन्य 25 प्रतिशत सामग्री : विशाल भारद्वाज के स्वादानुसार
'रंगून' विशाल भारद्वाज की निजी और काल्पनिक खुजली है। इसे उन्होंने आम दर्शकों के लिए तो नहीं ही बनाया है, अवार्ड वगैरह के लिए बनाया होगा। फिल्म में देशप्रेम की चाशनी काफी है, लेकिन इतने चुम्बन दृश्य हैं कि एंटी चुम्मालॉजी ब्रिगेड इससे नाराज़ हो सकती है। पता नहीं, विशाल भारद्वाज को सैफ़ अली ख़ान से क्या दुश्मनी है, ओंकारा में उन्हें ईश्वर त्यागी उर्फ़ लंगड़ा बना दिया था, रंगून में सैफ़ को उन्होंने रूसी बिलिमोरिया उर्फ़ लूला बना डाला। रंगून कोई इतिहास बतानेवाली फिल्म नहीं है, कहा जा रहा है कि यह फियरलेस नादिया उर्फ़ हंटरवाली से प्रभावित है। यह गानों से भरी युध्द की पृष्ठभूमि पर पलनेवाले प्रेम की कहानी हैं, जिससे लगता है की यह दूसरे विश्वयुध्द के समय की यानी '1943-44 ए लव स्टोरी' है।
फिल्म के कुछ सीन शानदार हैं, कुछ संवाद भी चुटीले हैं -- जैसे टीमें तुम्हारी जान नहीं लूँगा क्योंकि वह तो तुम्हारे जिस्म में दफ़्न है या तुझे समझाना मतलब हाथी को चड्डी पहनाना है या तुम्हें तुम्हें पता है की भगवान ख़ूबसूरत लड़कियों को इतना बुद्धू क्यों बनाता है? फिल्म का छायांकन और संगीत भी अच्छा है और कलाकारों ने भी ठीक काम किया है, लेकिन कहानी का झोल और खुद को महान बताने की निर्देशक की महत्वाकांक्षा मुझ जैसे आम दर्शक को पाक देती है। जो लोग सेना में जाते हैं, वे अपने इरादों से हिलते नहीं। सतही देश प्रेम की कहानी पकाती है। सुभाष चंद्र बोस के पुराने रेडियो प्रसारण और फिल्म्स डिवीजन की क्लिपिंग्स कोई काम नहीं आती। मुम्बई के फ़्लोरा फाउंटेन इलाके के वीएफएक्स अच्छे बनाये गये हैं। सैनिकों के मनोरंजन के लिए सीमा पर ऐसे सेट्स सजाना आज भी संभव नहीं है, 70 साल पहले ऐसा कहाँ हो सकता था? गुलज़ार के गानों का सहारा भी दर्शक को बांधकर नहीं रख पाता और सिनेमाहाल में दर्शक अपने मोबाइल के व्हाट्स एप के सन्देश पढ़ते और डिलीट करते नज़र आते हैं।
कंगना का अभिनय शानदार है, फिल्म चली तो उन्हीं के कंधे पर चलेगी। शाहिद कपूर और सैफ़ अली खान की एक्टिंग भी सधी हुई है। प्रेम त्रिकोण हो तो फिल्म में बलिदान ज़रूरी हो जाता है, यह फ़िल्म दर्शकों के पैसे का बलिदान मांगती है। इसमें बेतुकी पैरोडी भी है 'मेरे पिया गए रंगून, किया है वहां से टेलीफून' की पैरोडी भी इसमें है -- 'मेरे मियां गये इंग्लैण्ड।' बेतुकी पैरोडी।
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