डॉ.प्रकाश हिंदुस्तानी।
शाहरुख खान और रईस फिल्म की हीरोइन माहिरा खान को पाकिस्तान से बड़ी उम्मीदें थी। एक से बढ़कर एक भारतीय हीरोइनों को दरकिनार कर पाकिस्तान की माहिरा खान को इस फिल्म में लेने का एक मकसद यह भी था कि माहिरा के नाम पर ही फिल्म पाकिस्तान में अच्छा कारोबार कर जाएगी। भारत में पाक कलाकारों के विरोध के कारण माहिरा का रोल छोटा करना पड़ा और वह भारत में रईस के प्रमोशन में भी शामिल नहीं हो सकीं। पाकिस्तान में भारतीय फिल्मों के प्रदर्शन पर लगा बैन हटा ही था और काबिल रिलीज हुई ही थी और 5 फरवरी को रईस भी पाकिस्तान में रिलीज होने की आशा थी, लेकिन पाकिस्तान के सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म को पाकिस्तान के सिनेमाघरों में दिखाने की अनुमति नहीं दी। अगर पाकिस्तान के अखबार डॉन की खबर को सही मानें, तो पाकिस्तान सेंसर बोर्ड ने रईस का प्रदर्शन रोकने के तीन कारण बताए हैं। पहला फिल्म की कहानी में इस्लाम को कमतर दिखाने की कोशिश की गई है। फिल्म में मुसलमानों को अपराधी के रूप में दिखाया गया है और तीसरी बात फिल्म में मुस्लिम पात्र को दंगाई और आतंकवादी के रूप में दिखाने की कोशिश की गई है।
रईस फिल्म का एक चर्चित डायलॉग है- ‘‘कोई भी धंधा छोटा नहीं होता और धंधे से बड़ा कोई धर्म नहीं होता।’’ फिल्म में शाहरुख खान को अवैध शराब की तस्करी और राजनीतिक गठजोड़ के साथ ही हथियारों की तस्करी में भी शामिल दिखाया गया है, जिन हथियारों के कारण आतंकी घटनाएं होती है। क्या इस फिल्म के संवाद लेखक यह कहना चाहते थे कि तस्करी का धंधा भी छोटा या बुरा नहीं होता? क्या उनका यह भी मानना है कि अवैध शराब का कारोबार किसी खास धर्म से भी ऊंचा है? बाद में फिल्म की कहानी कुछ इस तरह है कि शाहरुख खान सोने की तस्करी करता है और उसे यह बात पता नहीं होती कि वह बंदरगाह से जो माल तस्करी कर ला रहा है, उसमें सोने के साथ ही विस्फोटक पदार्थ भी है। कहानी के अनुसार हीरो को जब अफसोस होता है, लेकिन अनेक बेगुनाह तब तक मारे जा चुके होते है। ऐसे अपराधी प्रवृत्ति के हीरो को अंत में पुलिस एक एनकाउंटर में मार डालती है, लेकिन हीरो अपनी हीरोगीरी नहीं छोड़ता। उस अपराधी तत्व को ऐसे दिखाने की कोशिश की गई है, मानो वह कोई बहुत बड़ा स्वाधीनता सेनानी हो। यह पूरी कहानी भारत के फिल्म प्रमाणन बोर्ड के सामने भी आई होगी और उसने इस पर कोई आपत्ति नहीं की। शायद इसलिए कि भारत में अगर फिल्म प्रमाणन बोर्ड इसके रिलीज होने में रुकावट पैदा करता, तो बड़ा राजनैतिक संकट पैदा हो जाता और यह आरोप लगता कि शाहरुख खान की मुस्लिम पृष्ठभूमि वाली फिल्म के लिए भारतीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड अड़ंगे डाल रहा है। यह भी तर्वâ दिया जाता कि फिल्म की पृष्ठभूमि नशाबंदी वाले राज्य गुजरात की है, जहां खुलेआम शराब बिकती दिखाई जा रही थी।
रईस फिल्म का प्रदर्शन रोकने के जो तर्क पाकिस्तान के सेंसर बोर्ड ने दिए, वे तर्क भारत में नहीं दिए जा सकते थे। जबकि यह बात सही है कि अनेक फिल्मों में मुस्लिम पात्र को आपराधिक पृष्ठ भूमि का ही दिखाया जाता है। भारत के अल्पसंख्यक वर्ग के एक हिस्से में इस फिल्म को अपनी अस्मिता से जोड़ा। यहां तक कि मीडिया में भी फिल्म को लेकर ट्रोल चले और यह कहने की कोशिश की गई कि काबिल इस दशक की सबसे बड़ी फिल्म होने वाली है।
पेड न्यूज का कारोबार केवल कार्पोरेट घरानों और राजनैतिक पार्टियों के लिए ही नहीं किया जाता, फिल्मों के लिए भी किया जाता है। बॉलीवुड में शाहरुख खान का अपना एक समर्थक वर्ग है, जो हर बात पर शाहरुख खान की वाहवाही करता है। रईस के साथ ही काबिल के रिलीज होने पर मीडिया के उस वर्ग ने काबिल के रिलीज को लगातार अंडरप्ले किया। गणतंत्र दिवस के पहले फिल्म को रिलीज करने की बात पर दो फिल्म निर्माता कंपनियां आमने-सामने थी ही। इस तरह के मुहावरे चल पड़े कि जो काबिल होता है, वहीं रईस बन पाता है। यानि जो रईस है, वह काबिल तो होगा ही।
फिल्म कारोबार में बढ़ती एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों को दंगल फिल्म के रिलीज के वक्त देखा जा चुुका है, जब तीन हफ्ते तक कोई भी दूसरी बड़ी प्रमुख फिल्म रिलीज ही नहीं होने दी गई। कई शहरों में तो यह हाल था कि वहां के सभी के सभी थिएटर्स में केवल दंगल रिलीज हुई थी। ऐसे में दंगल का कारोबार तो शानदार होना ही था। क्योंकि त्यौहार के वक्त लोगों के पास मनोरंजन के लिए दूसरे सस्ते साधन उपलब्ध नहीं थे। रईस के वक्त भी यहीं कुछ हुआ। फिल्म क्रॉफ्ट वाले राकेश रोशन भी गणतंत्र दिवस के पहले अपनी फिल्म काबिल के रिलीज को लेकर अड़ गए। बड़ी मुश्किल से थिएटरों में फिल्म रिलीज करने का बंटवारा हुआ, जिसमें करीब 60 प्रतिशत सिनेमाघर रईस को मिले और बचे हुए में से काबिल और दूसरी फिल्म थी। जाहिर है इस बार दंगल जैसा एकाधिकारवादी प्रदर्शन नहीं हो पाया और एक साथ दो प्रमुख कलाकारों की बड़े बजट वाली फिल्में रिलीज हुई।
शाहरुख खान की फिल्म को ओवरसीज में भी अच्छा रिस्पांस मिला। वहां भी ज्यादा थिएटरों में रईस की रिलीज की गई थी। शाहरुख खान की एनआरआई लोगों के बीच खासी लोकप्रियता है, उसे भी भुनाने का कोई मौका नहीं छोड़ा गया। भारत में शुरूआत में रईस का कारोबार एकदम ज्यादा था, लेकिन धीरे-धीरे काबिल ने भी जोर पकड़ा और करीब दस दिन बाद ही यह हाल हो गया कि काबिल की रोजाना की कमाई रईस से आगे निकल गई। भारत में रईस करीब 150 करोड़ का कारोबार कर चुकी है और काबिल उससे पीछे है। रईस ने कुल मिलाकर पूरी दुनिया में करीब 275 करोड़ का कारोबार किया है, यह दावा शाहरुख खान ने अपनी ट्वीट में किया। काबिल ओवरसीज में उतना कारोबार नहीं कर पाई।
रईस को लेकर शाहरुख खान ने जिस तरह का माहौल बनाया था। फिल्म का कारोबार भी लगभग वैसा ही चला। अगर काबिल के निर्माता हिम्मत नहीं करते और रईस के सामने फिल्म का प्रदर्शन नहीं करते, तो रईस का कारोबार इससे भी ज्यादा होता। यहीं बात काबिल के बारे में भी कही जा सकती है कि अगर काबिल की रिलीज सोलो मूवी के रूप में होता, तो उसका कारोबार भी निश्चित ही बहुत ज्यादा होता। अब जिस तरह का माहौल है, उसमें किसी भी फिल्म के प्रदर्शन का पहला सप्ताह ही प्रमुख होता है और चतुर निर्माता पहले हफ्ते में ही फिल्म की अधिकांश कमाई करके शांत बैठ जाते है। रईस के लिए भी इसी तरह का प्रचार तंत्र अपनाया गया था और पहले हफ्ते में उसने काबिल से अच्छा कारोबार किया, लेकिन जैसे-जैसे लोगों ने आपस में अपने विचार शेयर किए और रईस की कहानी के बारे में दूसरे दर्शकों को बताया, फिल्म के दर्शकों की संख्या कम होती गई।
काबिल एक दृष्टिबाधित जोड़े की प्रेम कहानी है, जिसमें हिंसा का अतिरेक है। अन्याय के विरुद्ध न्याय की लड़ाई के नाम पर फिल्म में जिस तरह की हिंसा दिखाई गई है, वह कहीं से भी प्रशंसनीय नहीं है। फिल्म कहीं जगह अविश्वसनीय भी लगी और अंत में जब दर्शक फिल्म देखने के बाद बाहर निकलता है, तब उसका माथा भन्नाया हुआ रहता है। इसी तरह रईस में एक अपराधी को नायकत्व प्रदान करने की कोशिश अखरती है। फिल्म के कई संवाद सांप्रदायिक सौहार्द को बढ़ाने वाले नहीं है। कहीं-कहीं यह जरूर कोशिश की गई है कि फिल्म का हीरो एक ऐसा गुंडा है, जो मुस्लिम और हिन्दू सभी की मदद करता है। फिल्म में हीरो का मारा जाना भी बॉलीवुड के दर्शकों को ज्यादा पसंद नहीं आता। आज के दौर में बहुत अच्छी-अच्छी कहानियों पर अच्छी-अच्छी फिल्में बन रही है, लेकिन गणतंत्र दिवस के मौके पर बड़े बजट की जो बहुचर्चित फिल्में रिलीज हुई, उनसे फिल्म प्रेमियों को निराशा ही हुई। एक दौर ऐसा भी था, जब गणतंत्र दिवस के मौके पर राष्ट्रप्रेम की फिल्में खूब प्रदर्शित होती थी और पसंद भी की जाती थी।
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