लीडरशिप की कमी से जूझ रही कांग्रेस से बेनतीजा रही पीके की बात

राजनीति            Apr 26, 2022


मल्हार मीडिया ब्यूरो दिल्ली।
लंबे समय से चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के कांग्रेस के जाने की अटकलें थीं और इसे लेकर तीन राउंड की मीटिंग भी हुई। लेकिन अंत में बात बेनतीजा रही।

कांग्रेस और खुद पीके ने ही ऐलान कर दिया कि दोनों साथ नहीं आ रहे हैं।

इसके साथ ही लंबे समय से चुनावी पराजयों का दंश झेल रही कांग्रेस को प्रशांत किशोर के जरिए बूस्टर डोज मिलने की संभावनाएं भी समाप्त हो गईं।

कांग्रेस औैर प्रशांत किशोर के बीच बात बिगड़ने के पीछे मुख्य तौर तीन वजहें मानी जा रही हैं।

पहली बात यह कि कांग्रेस चाहती थी कि प्रशांत किशोर सिर्फ कांग्रेस के लिए काम करें, जबकि उनकी संस्था आईपैक हाल ही में तेलंगाना में केसीआर के साथ भी काम करने के लिए तैयार हो गई है।

इसके अलावा प्रशांत किशोर महासचिव का पद और अहमद पटेल जैसा दर्जा चाह रहे थे, जबकि कांग्रेस उन्हें Empowered Action Group 2024 में शामिल करने भर के लिए तैयार थी।

प्रशांत किशोर इस भूमिका में नहीं उतरना चाहते थे बल्कि कांग्रेस में अहम परिवर्तन करने और सुझाव देने के रोल में खुद को लाने की बात कर रहे थे।

तीसरा, कांग्रेस प्रशांत किशोर के सांगठनिक फेरबदल के प्रस्ताव को भी अपनाने के लिए तैयार नहीं थी।

प्रशांत किशोर का एक प्रस्ताव यह भी था कि 'गांधी' के बजाय किसी और को अध्यक्ष बनाया जाए। इस पर भी कांग्रेस में सहमति नहीं थी।

इसके अलावा एक समस्या कांग्रेस के नेताओं के एक गुट की ओर से प्रशांत किशोर पर सवाल खड़ा किया जाना था।

कांग्रेस के कई नेताओं ने प्रशांत किशोर की विश्वसनीयत पर सवाल उठाया था और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के उस बयान का हवाला भी दिया कि उन्होंने कहा था कि अमित शाह के कहने पर उन्हें जदयू का उपाध्यक्ष बनाया था।

हालांकि, सोनिया गांधी इन सवालों को दरकिनार करके प्रशांत किशोर को पार्टी में शामिल करने के लिए तैयार थीं, लेकिन कुछ दूसरे बड़े और सैद्धांतिक मुद्दे पर बात अटक गई।

भले ही प्रशांत किशोर कांग्रेस का हिस्सा नहीं बने हैं, लेकिन उन्होंने पार्टी की मुख्य समस्या जरूर सामने रख दी है।

पीके ने कांग्रेस से न जुड़ने की जानकारी देने वाला जो ट्वीट किया है, उसमें साफ बताया है कि कांग्रेस को मेरे से ज्यादा सामूहिक लीडरशिप की जरूरत है।

यह बात काफी हद तक सही है। दरअसल कांग्रेस इन दिनों राष्ट्रीय स्तर से लेकर तमाम राज्यों तक में लीडरशिप की कमी से जूझ रही है।

उसके पास फिलहाल ऐसे कद्दावर चेहरों का अभाव दिखता है, जो अपने दम पर मतदाताओं को लुभा सकें। ऐसे में बिना लीडरशिप के नैरेटिव तैयार करना आसान नहीं है।

 



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