
शन्नो अग्रवाल कोई पेशेवर आलोचक नहीं हैं। बल्कि एक दुर्लभ पाठिका हैं। कोई आलोचकीय चश्मा या किसी आलोचकीय शब्दावली, शिल्प और व्यंजना या किसी आलोचकीय पाठ से बहुत दूर उन की निश्छल टिप्पणियां पाठक और लेखक के रिश्ते को प्रगाढ़ बनाती हैं। शन्नो जी इस या उस खेमे से जुडी हुई भी नहीं हैं। यू के में रहती हैं, गृहिणी हैं और रचनाएं पढ़ कर अपनी भावुक और बेबाक टिप्पणियां अविकल भाव से लिखती हैं.
शन्नो अग्रवाल
नारी सदा निभाती आई घर की जिम्मेदारी
खिलती है उससे ही घर-आँगन की फुलवारी
पर चीत्कार करता रहता है उसका अंतर्मन
बनी हुई है पत्नी दासी पति बना अधिकारी ।
एक तरफ तो इतिहास तमाम शक्तिशाली नारियों के उदाहरण से भरा हुआ है फिर भी स्त्रियाँ युगों से अपने प्रति अन्याय सहती आई हैं । स्त्री में शक्ति होते हुये भी उसे अपने पूर्वजों के दिये संस्कारों से हमेशा पुरुषों से दबना पड़ा और वह हमेशा सहनशील रही । वे बेटियाँ बन कर पैदा होती हैं और बचपन से ही अन्याय सहती रहती हैं । अब तक कितना भी ज़माना बदल गया हो फिर भी वे जानती हैं कि उनकी पढ़ाई पूरी होते ही माता-पिता उनकी शादी करके उनसे छुटकारा पाना चाहते हैं । और शादी के बाद कई बार उन बेटियों को ससुराल में अन्याय सहना पड़ता है । वे पति व उसके परिवार वालों को खुश रखने की कोशिश करती हैं । ससुराल में कदम रखते ही कभी सास-ससुर, कभी जिठानी-देवरानी की ईर्ष्या और कभी ननद-देवर के ताने-तेवर सहती रहती है । अगर मियाँ-बीबी कहीं अलग घर लेकर रहते हैं तो पति अगर कंट्रोलिंग टाइप हुआ तो उसका दबाब और उसकी तानाशाही को सहना पड़ता है । और कई बार शादी के बाद पति के साथ विदेश में जाकर यदि बसने का मौका मिलता है तो घरवालों व सखी सहेलियों को दूर के ढोल सुहावने लगने लगते हैं । वे लोग सोचती हैं कि वहाँ की जिंदगी हर सुख-सुविधा से भरी होगी पर वहाँ के संघर्षों के बारे में कोई सोचना नहीं चाहता ।शादी के बाद वहाँ जाकर यदि उसका पति और स्त्रियों से तुलना करके नीचा दिखाने लगता है तो यह भी लड़की का दुर्भाग्य होता है । नारी के मन में दावालन सुलगता ही रहता है और जिंदगी तपिश से भरी रहती है । शादी के पहले बचपन में उसे संस्कार दिये जाते हैं कि पति को अपना सर्वस्व समझना व ससुराल के लोग जैसे रहते हैं उसी में ढल जाना । उन सबका काम और सेवा से मन खुश रखना आदि-आदि । उन सभी बातों पर अमल करके भी उसे जब मानसिक सुख नहीं मिलता तो मन में कचोट रहती है। कभी मायके वालों को लेकर तो कभी दहेज आदि को लेकर व्यंग्य सहते हुये कई औरतों की जिंदगी गुजरती है ।

सभी स्त्रियाँ मजबूत बनना चाहती है किन्तु क्या हर कोई ऐसा कर पाती है? उनके बिचारों और निर्णय को घर में अधिक महत्व नहीं मिलता और अपने को डिफेंड करते हुये वह अक्सर कमजोर पड़ जाती है । कभी-कभी ना चाहते हुये भी उसे सबके बिचारों से सहमत होना पड़ता है । दूसरों की खुशी, हित और शांति के लिये औरत न जाने क्या-क्या सहती है । उसमे धरती की तरह सहनशक्ति है और उसका करुनामय हृदय मोम की तरह पिघलना भी जानता है । लोग उसे समय-समय पर अहसास दिलाते रहते हैं कि 'जैसा हमारा समाज है उसी तरह तुम्हें भी रहना होगा'। क्योंकि वह औरत है इसलिये । नारी-शक्ति, उसकी महानता, समाज में उसका उत्थान आदि के मुद्दे लेखों में, बहसों में और बिचार-बिमर्ष की सभाओं में उठते रहे हैं । स्त्रियों को सजग करने की बातें करना आसान है किन्तु पानी में मगरमच्छ के साथ रहने वाली स्थिति क्या होती है इसको वही स्त्री जानती है जिसे किसी के साथ निर्वाह करना होता है । केवल कुछ ही ऐसी भाग्यशाली स्त्रियाँ होती हैं जो मनमानी कर पाती हैं ।
सोचती हूँ कि औरत की जिंदगी एक चूल्हे की तरह है । जिन लोगों के यहाँ मिट्टी के चूल्हे हैं वे लोग गैस कुकर के सपने देखते हैं कि उन्हें सुलगाना नहीं पड़ेगा, आँखों में धुआँ नहीं घुसेगा । और जब इन चूल्हों की जगह गैस कुकर ले लेते हैं तो कुछ समय बाद लोग मिट्टी के चूल्हों के सपने फिर से देखने लगते हैं । अक्सर फोटो में देखकर कहते हैं कि ''देखो ये कितने क्यूट लग रहे हैं । हमें अपना गाँव का बीता हुआ ज़माना याद आ रहा है । उन पर सिंकी हुई रोटियों में स्वाद ही अनोखा होता था'' आदि-आदि। असल में बात ये है कि जब कोई चीज पास है तो उसकी कदर नहीं, और जब वो ना हो तो उसकी याद करना इंसान की फितरत में होता है । तो औरतों की जिंदगी भी इन्हीं चूल्हों की तरह होती है । पत्नी अगर भोली है तो उसे वेवकूफ समझकर उसकी नाकदरी होती है और उसे नापसंद करते हैं कि उसमे अकल नहीं । उसकी जगह दूसरी स्मार्ट लड़की अच्छी लगने लगती है । और अगर वो चंट टाइप या होशियार हुई तो उसकी भी बुराई होती है और फिर भोली-भाली लड़की याद आने लगती है ।

शादी-शुदा औरतों का हृदय यातनाओं से जब रोता है अकेले में तो उसका कोई गवाह नहीं होता । ऎसी औरतें सोचती हैं कि पति के बिना कुछ अच्छी यादें शादी के उन तमाम सालों के जीने से बेहतर है जो पति की यातनायें सहते हुये गुजरे । इस पर एक फिल्म 'गंगूबाई' की याद आ जाती है । इस फिल्म में गंगूबाई का पति शादी के एक साल बाद स्वर्गवासी हो जाता है । लेकिन गंगूबाई के पास अपने पति के साथ बिताये दिनों की मधुर स्मृतियाँ हैं जिनके सहारे बाकी का जीवन वह मन में ही अपने स्वर्गवासी पति की पूजा करते हुये मेहनत-मजदूरी करके गुजार देती है । साथ में उसका एक अपना सपना भी है जिसे वह मेहनत करके अपने कमाये हुये पैसों को इकठ्ठा करके साकार करती है । पर उस सपने के जल जाने के बाद भी उसकी सरलता और उसके हृदय की महानता उसके आस-पास के लोगों का दिल जीत लेती है । ये तो रही फिल्म की बात लेकिन असल जीवन में सोचना पड़ता है कि हर औरत इस तरह की गंगूबाई नहीं हो सकती । जो पति जी रहे हैं उनकी पत्नियों को भी उनके जीते जी अपने अरमान पूरे करने का हक होना चाहिये l कोई भी औरत अपने अच्छेपन के बदले में किसी के ओछे व्यवहार की शिकार नहीं बनना चाहती । बड़े-बड़े सपनों की ख्वाहिश ना रखने वाली, सीधे-सरल जीवन में भी खुश रहने वाली और परिवार के प्रति निष्ठा से पेश आने वाली हर औरत अपने घर और बाहर सबसे सम्मान पाने की इच्छा रखती है और इसकी हकदार होती है । और अच्छी बात ये है कि धीरे-धीरे समय की पुकार के साथ शहर या गाँव सभी जगह लड़कियों के जीवन में तमाम बदलाव आ चुके हैं या कहिये कि आने लगे हैं । उनमें आत्मविश्वास, प्रतिभा और निर्भीकता जाग रही है । नारी समय के हिसाब से जीना सीख रही है । वह समय बीत रहा है जब गाँव व शहर की लड़की इतनी पढ़ी-लिखी नहीं होती थी । उसे बस घर का काम आता था व उसका समय सास-ससुर की सेवा और मेहमानों के सत्कार, सिलाई, बुनाई, कढ़ाई व गप-शप आदि में व्यतीत होता था । फिर एक वह दौर आया जब लड़की अपनी ससुराल में डिग्री का लेबल लगा कर आने लगी ताकि ससुराल के लोगों को गर्व हो कि उनकी बहू खूब पढ़ी-लिखी है । पर ये बहुयें भी सर्विस नहीं करती थीं । ये भी पहले वाली बहुओं की तरह रहती थीं किन्तु इनकी बातचीत व पहनावे-उढ़ावे में जरा और सलीका व शालीनता होती थी । फिर धीरे-धीरे और परिवर्तन आये ।

कितने ही परिवारों में लड़कियाँ व बहुयें आर्थिक तंगी होने से सर्विस करने लगीं । या उनमे से कुछ महत्वाकांक्षी होकर भी ऐसा करने लगीं । नारी में और चेतना जगी । और आज की नारी एक ऐसी चिंगारी है जो अपने लिये अन्याय के विरुद्ध आवाज उठा सकती है । औरत को हर कार्यक्षेत्र में समान अधिकार मिलने लगे हैं । आजकल की औरत योग्यता में पुरुषों को चुनौती देती हुई उनसे कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है ।लेखन, राजनीति, स्पोर्ट, बिजिनेस, सर्विस और अभिनय की दुनिया में हर जगह उसके कदम पड़ चुके हैं । समाज ने भी उनकी कुछ बेझिझक बातों पर मान्यतायें देना शुरू कर दिया है । हर जगह उन पर पहरा नहीं होता । तमाम लड़कियाँ अपनी शादी और अपने कैरियर के बारे में खुद के फैसले करने लगी हैं । लेकिन अब भी कई बार एक शादी-शुदा औरत अपने किसी सपने को साकार करते हुये किसी ऊँचाई को छूना चाहती है तो उसके पति को उससे जलन व चिढ़ होने लगती है । उन्हें सहयोग देने की वजाय बदमिजाज हो जाते हैं । उन स्त्रियों का आत्मविश्वास टूटने लगता है व उनकी दशा शोचनीय हो जाती है । लेकिन मजबूत हृदय वाली स्त्रियाँ 'अगर वो डर गईं तो मर गईं' वाली बात सोचकर अपने निर्णय पर मजबूत रहती हैं । स्त्री एक कठपुतली की तरह हमेशा पति की हाँ में हाँ न मिलाकर अपने बिचारों के अनुरूप भी तमाम चीजों पर निर्णय करना चाहती है । इस पर औरत की सचेतना दिन व दिन बढ़ रही है । कई बुद्धिजीवी औरतें कुछ पुरुषों से भी आगे हैं । साथ में घर गृहस्थी भी चलाना जानती हैं । और अपने बूते पर आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होकर पारिवारिक जिम्मेवारियाँ और कर्तव्य सभी को अच्छी तरह से निभा रही हैं । औरत की हिम्मत क्या-क्या नहीं कर दिखाती । वह अपनी शक्ति से पाषाण भी बनना जानती है और हिम सी पिघलना भी ।
नारी शक्ति, नारी भक्ति, उससे है संसार
उसके बिन सूना है घर-आँगन और द्वार
ममता बनकर करती है अपने को कुर्बान
दुर्गा बनकर करती रहती दुष्टों का संहार ।
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