कीर्ति राणा।
दशकों पहले इंदौर के एमटी कपड़ा मार्केट सीतलामाता बाजार का वह भीड़ वाला मजदूर चौक….मजदूरी की उम्मीद में बीड़ी फूंकते…हंसी ठिठोली करते मजदूर…उस भीड़े में गूंजती आवाज ऐ छोटू दो कट भर दे….फटी सी कमीज….नेकर वाला पहनावा…एक हाथ में चाय की केतली और दूसरे हाथ की अंगुलियों में फंसे हुए चाय के कप…. आवाज की तरफ मुड़ कर चाय भरना और अगले आर्डर के लिये बढ़ जाना ।
उस दौर के ये दृश्य आज फिर आंखों में घूम गए जब इंटरनेशनल टी डे पर फेसबुक पर कई मित्रों की चाय वाली पोस्ट देख रहा था। सीतलामाता बाजार वाली सड़क से जब भी गुजरता हूं मुझे बचपन के वो दिन याद आ जाते हैं। अब जब यदाकदा अपने बच्चों को चाय वाले छोटू के वो किस्से सुनाता हूं तो उनकी हां हूं की प्रतिक्रिया से अहसास हो जाता है कि सुनने-जानने में कितना इंट्रेस्ट है।
पचास पैसे रोज यानी पंद्रह रु महीना…सुबह 6 बजे से दोपहर के पहले तक रोज का होटल पर चाय बनाना, केतली-कप लेकर बाजार की दुकानों, मजदूरों को कट पिलाना, पोहे बनाना, जूठे कप-प्लेट धोना और जब घड़ी के काटे 11.30 की तरफ बढ़ने लगे तो भागते-दौड़ते घर पहुंचना…स्कूल की ड्रेस सफेद कमीज, खाकी नेकर पहन कर हिमाविक्र 30, कृष्णपुरा के लिए रवाना हो जाना ।
स्कूल के सर महेशचंद गुप्ता के भाई माणकचंद गुप्ता जब होटल बंद कर नागपुर शिफ्ट हो गए तो अपन भी होटल से बाहर हो गए… गुप्ता सर ने फिर पंढरीनाथ पर सट्टे के पाने छापने वाले आरआर गुप्ता की प्रेस पर झाडू-पोछे के काम पर लगा दिया…प्रेस पर कंपोजिंग सीख ली…वहां से साप्ताहिक प्रभात किरण में मशीनों की सफाई, कंपोजिंग… ताराचंद अग्रवाल के विद्या प्रकाशन में विष्णु भैया की कुंवरमंडली वाले भवन के तलघर में कंपोजिंग…. वहां से स्वदेश में प्रूफ रीडिंग के बाद… गुजराती आर्टस कॉलेज में प्रो सरोज कुमार की सिफारिश पर बॉम्बे में करंट साप्ताहिक में करीब साढ़े चार साल के बाद इंदौर वापसी और फरवरी 1983 से दैनिक भास्कर में सिटी रिपोर्टर…चाय बेचने वाला संघर्षों की नर्मदा में बहते, थपेड़े खाते कंकर की तरह कहां से कहां पहुंच गया लेकिन अपने लिए खुद चाय बनाना शायद इसीलिये आदत में है कि बचपन का छोटू मरे नहीं।
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