डॉ. प्रकाश हिंदुस्तानी।
लघुकथा संग्रह 'हार्ट लैंप’ के लिए अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीतने वालीं बानू मुश्ताक़ को कर्णाटक सरकार ने बंगलुरु में आवासीय प्लॉट देने का फैसला लिया है। वे कन्नड़ की पहली साहित्यकार हैं जिन्हें बुकर सम्मान मिला है।
- वे 77 साल की हैं। हासन जिले में मुस्लिम परिवार में जन्म लेने वाली लेखिका हैं, जिनकी प्रारंभिक शिक्षा उर्दू में हुई, लेकिन आठ साल की उम्र में कन्नड़ स्कूल में पढ़ाई शुरू की, जिससे उनका कन्नड़ साहित्य के प्रति लगाव गहराया। उन्होंने मिडिल स्कूल में ही अपनी पहली लघुकथा लिखी थी और 26 वर्ष की उम्र में उनकी पहली कहानी प्रसिद्ध कन्नड़ पत्रिका ‘प्रजामता’ में प्रकाशित हुई।
- बानू केवल लेखिका ही नहीं, बल्कि एक वकील और सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं। उन्होंने मस्जिदों में महिलाओं के प्रवेश जैसे मुद्दों पर आवाज उठाई, जिसके कारण उन्हें सामाजिक बहिष्कार और यहाँ तक कि हिंसा का सामना करना पड़ा।
- उनकी कहानियाँ दक्षिण भारत, विशेष रूप से कर्नाटक की मुस्लिम महिलाओं के रोजमर्रा के जीवन, पितृसत्तात्मक समाज में उनके संघर्ष, लचीलापन, और बहनचारे को जीवंत रूप से दर्शाती हैं। उनकी लेखनी में मौखिक कहानी कहने की परंपरा का प्रभाव स्पष्ट है।
- बानू ने मिडिल स्कूल में ही लिखना शुरू कर दिया था। उनकी पहली कहानी 26 साल की उम्र में कन्नड़ पत्रिका प्रजामाता में प्रकाशित हुई, जिसने उन्हें पहचान दिलाई।
- एक रूढ़िवादी मुस्लिम परिवार में जन्मीं बानू को लेखन और शिक्षा के लिए सामाजिक विरोध का सामना करना पड़ा। रिश्तेदारों ने उनके पिता को चेतावनी दी थी कि उनकी बेटी "बदनामी" लाएगी, लेकिन उनके पिता ने उनका साथ दिया।
- 29 साल की उम्र में माँ बनने के बाद, एक प्रेम विवाह और सामाजिक दबावों के कारण बानू प्रसवोत्तर अवसाद से जूझीं। इसके बावजूद, उन्होंने अपनी लेखनी को जारी रखा और अपनी आवाज को मज़बूत किया.
- बानू का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ जहाँ कन्नड़ उनकी मातृभाषा नहीं थी। फिर भी, आठ साल की उम्र में कॉन्वेंट स्कूल में दाखिला लेने के बाद उन्होंने कन्नड़ में धाराप्रवाह लिखना सीखा और इसे अपनी साहित्यिक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।
- हार्ट लैंप का न केवल अंग्रेजी में अनुवाद हुआ, बल्कि यह हिंदी, उर्दू, तमिल और मलयालम में भी उपलब्ध है।
- बानू का मानना है कि "कोई भी कहानी छोटी नहीं होती" और मानवीय अनुभव का हर धागा महत्वपूर्ण है। उनकी कहानियाँ समाज के हाशिए पर रहने वालों के जीवन को गहराई से उजागर करती हैं।
- पुरस्कार जीतने पर बानू ने इसे "विविधता की जीत" बताया, जो उनकी लेखनी के समावेशी स्वरूप और सामाजिक बदलाव के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
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