पार्षद पत्नि सरपंच पत्नि,अधिकारों का डंडा पति के हाथ

वामा            Jun 10, 2016


hemant-palहेमंत पाल मध्यप्रदेश सरकार कई बार महिलाओं को राजनीति में हिस्सेदारी देने के अपने फैसले पर खुद अपनी पीठ थपथपाती नजर आई। इस बात से इंकार नहीं है कि इस मामले में सरकार के कुछ फैसले प्रशंसनीय हैं। लेकिन, इन फैसलों से क्या वाकई महिलाएं लाभान्वित हुई हैं? क्या वास्तव में महिलाओं को राजनीति में वो हिस्सेदारी मिली, जो दिखाई देती है? शायद नहीं। सबसे ख़राब स्थिति महिलाओं के लिए आरक्षित पंचायतों और महिला पार्षदों के मामले में है। दोनों स्थानों पर निर्वाचित महिलाओं के पति (या परिजन) उनके अधिकारों का उपयोग करते हैं और राजनीति करते हैं। सरकार के आदेश से त्रिस्तरीय पंचायतों में तो पतियों और परिजनों का दखल कुछ हद तक बंद सा हो गया। लेकिन, महिला पार्षदों के पतियों से अभी व्यवस्था मुक्त नहीं हुई। पत्नी को राजनीति में अक्षम दर्शाकर उनके पति पूरी तरह जनप्रतिनिधि बन बैठे हैं। ये उन मतदाताओं का भी अपमान है, जिन्होंने वोट तो किसी और को दिया, पर उनका प्रतिनिधित्व कोई और कर रहा है। आश्चर्य है कि पार्षद पतियों की ज्यादती की ढेरों ख़बरें सामने आने के बाद भी सरकारी स्तर पर इन्हें रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए। मध्यप्रदेश सरकार ने महिलाओं को उनके कई अधिकारों से नवाजा है। महिलाओं को उनकी शक्ति का अहसास करने के लिए और राजनीति में उनकी हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए त्रिस्तरीय पंचायतों में 50 फीसदी आरक्षण दिया। जबकि, नगर निगमों और नगर पालिकाओं में भी 33 फीसदी सीटें आरक्षित करके सदन में उनकी मौजूदगी सुनिश्चित की। कुछ हद तक इन कोशिशों के अच्छे नतीजे भी सामने आए। महिला सरपंचों और पार्षदों की संख्या बढ़ी और पुरुष प्रधान राजनीति में महिलाओं का दखल दिखाई देने लगा। लेकिन, क्या सरकार की महिलाओं को राजनीति में अधिकार दिलाने की ये कोशिशें पूरी तरह सफल हुई? क्या वास्तव में सरपंच और पार्षद बनकर महिलाएं अपने अधिकारों का उपयोग कर पा रही हैं? और क्या वे अपने पतियों को अपने अधिकार देकर खुश हैं? यदि इन सवालों के जवाब खोजे जाएँ तो जवाब नकारात्मक होगा। जब से महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण शुरू हुआ, कई पुरुषों को अपनी राजनीतिक इच्छाओं की तिलांजलि देना पड़ी! वे पार्टी के टिकट पर निर्वाचित होकर खुलकर राजनीति करना चाहते थे, पर आरक्षण के कारण उन्हें मन मसोसकर पीछे हटना पड़ा। लेकिन, इस व्यवस्था में भी उन्होंने राजनीति करने का आसान रास्ता निकाल लिया। महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों पर पत्नियों को चुनाव लड़वाया। जब वे जीत गईं, तो उनका राजनीतिक अधिकारों का डंडा लेकर खुद चलाने लगे। नतीजा ये हुआ कि निर्वाचित महिलाएं फिर चूल्हे-चौके में व्यस्त हो गईं और पतियों ने उनकी सरपंची या पार्षदी संभाल ली। बात यदि सरपंच या पार्षद द्वारा जाने वाली जनसेवा तक सीमित होती, तब तो ठीक था। लेकिन, ये पार्षद पति उससे भी कहीं आगे निकल गए! महिला पार्षद के पति की हैसियत से अधिकारियों को धमकाने लगे, आदेश देने लगे, आवंटित राशि की बंदरबांट करने लगे और कई स्थानों पर तो पार्षद पति निगम और पालिकाओं की बैठकों में भी शामिल होने लगे। ये सब खुलेआम हो रहा है, पर कहीं कोई विरोध होता नजर नहीं आया! न सरकारी स्तर पर न जनता द्वारा। लेकिन, जब कोई घटना होती है तो पार्षद पति की गुंडागर्दी, दबाव या धमकाने खबर जरूर जाती है। जैसे हाल ही में इंदौर की एक महिला पार्षद के पति ने बिजली कंपनी के एक कर्मचारी का मुँह काला करके अपनी ताकत बताई। आखिर, इस सबके पीछे जनता का क्या दोष जो वो सुरक्षित वार्डों से महिला पार्षदों को चुनकर भेजती है। शायद निर्वाचित महिला पार्षद भी अपने अधिकार के साथ काम करना चाहती होगी? फिर क्या कारण है कि उनके पति बेवजह अपनी पार्षद पत्नी के काम में हस्तक्षेप करते हैं? स्पष्ट है कि वे पत्नियों के माध्यम से अपने कई ऐसे काम कर लेते हैं, जो वे चाहते हैं! क्योंकि, पत्नी का रिमोट उन्हीं हाथ में होता है। सवाल है कि क्या महिला पार्षद नाममात्र की जनप्रतिनिधि हैं? महिला पार्षदों के पति अपनी पत्नी के नाम पर कैसे स्थानीय प्रशासन के कामकाज में दखलंदाजी कर लेते हैं? सांसदों और विधायकों के कामकाज में उनकी ​पत्नियों का हस्तक्षेप कभी नजर नहीं आता, फिर यही व्यवस्था महिला पार्षदों पर लागू क्यों नहीं होती? जब किसी वार्ड से महिला को जनता ने अपना प्रतिनिधि चुनती है, तो उनके पति किस अधिकार से उसपर अतिक्रमण करते हैं? वे आरक्षित सीटों से चुनकर आई हैं, तो उन्हें निर्भीक होकर काम क्यों नहीं करने दिया जाता? मध्यप्रदेश सरकार ने त्रिस्तरीय पंचायतों में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के पतियों पर बैठकों में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया! इसके बाद भोपाल के महापौर आलोक शर्मा ने भी पार्षद पतियों पर बैठकों में भाग लेना प्रतिबंधित कर दिया। महापौर ने वार्डों के निरीक्षण के दौरान ली गई बैठकों में पाया था कि अधिकांश महिला पार्षदों के पति इन बैठकों में शामिल हुए। इसके बाद ही उन्होंने इस पर प्रतिबंध लगाया। महापौर का कहना था कि जब जनहित के मुद्दों पर जनप्रतिनिधि और अधिकारियों की बैठक हो रही हो, तो उसमें महिला जनप्रतिनिधि के पति को शामिल नहीं होना चाहिए। इस बैठक में कई अहम फैसले होते हैं। कई बार इन फैसलों पर महिला जनप्रतिनिधि तो आपत्ति नहीं उठाते, मगर उनकी पति इस पर आपत्ति जताते हैं। महिला पार्षदों और सरपंचों के पतियों का व्यवस्था में दखल स्थानीय मसला नहीं, बल्कि बड़ी समस्या है! राष्ट्रीय पंचायत राज दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पंचायती सम्मेलन को संबोधित करते हुए स्पष्ट रुप कहा था कि पंचायती राज व्यवस्था के तहत सरपंच के पति का दखल समाप्‍त होना चाहिए! इस बारे में बिलासपुर हाईकोर्ट में लगी एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने भी कहा कि पंचायती राज शासन व्यवस्था में सरपंच पतियों की दखलंदाजी और उनके द्वारा किए जा रहे शक्ति दुरुपयोग बंद होने चाहिए। राज्य सरकार को ऐसा सुनिश्चित करने के लिए नियम बनाने चाहिए! जस्टिस टीपी शर्मा और इंदर सिंह की डिवीजन बेंच ने सरकार को निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधि को अधिकार संपन्न बनाने के लिए क्या-क्या उपाय किए जा सकते हैं, इस बारे में ब्यौरा पेश करने के भी निर्देश दिए। राज्य सरकार ने भी प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायतों में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के पतियों पर बैठकों में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया। शासन के इस फैसले के बाद अब महिला जनप्रतिनिधियों की बैठक में इनके पति उपस्थित नहीं होते। सरकार ने आदेश में कहा है कि पंचायतों में महिला प्रतिनिधियों के सशक्तिकरण और ग्रामीण विकास में उनकी भूमिका को मजबूत बनाने के उद्देश्य से ग्राम सभाओं की बैठकों में महिला सरपंचों तथा पंचों की सक्रिय भागीदारी जरुरी है। इसके लिए राज्य शासन द्वारा पंचायतों की कार्यवाहियों में सरपंच पति के शामिल होने पर प्रतिबंध लगाया गया है। आदेश में कहा गया कि महिला आरक्षित पदों पर निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों की एवज में ग्राम पंचायत और ग्राम सभा की बैठकों में महिला प्रतिनिधि के पति या उनके परिजन भाग नहीं ले सकते। यदि निर्वाचित महिला प्रतिनिधि के अलावा ग्राम सभा की बैठकों में उनके किसी परिजन द्वारा भाग लिया जाता है, तो संबंधित महिला सरपंच एवं पंच के विरुद्ध पद से विधिवत हटाए जाने की कार्रवाई प्रारंभ की जाएगी। यह व्यवस्था नगर पालिकाओं और नगर निगमों में लागू क्यों नहीं की गई? यदि कोई पार्षद पति अधिकारियों को धमकाता है, पार्षद पत्नी के अधिकारों का खुद उपयोग करता है या निर्माण कार्यों में हिस्सेदारी करता है, तो महिला पार्षद को हटाने की भी कार्रवाई की जाना चाहिए। क्या सरकार ने इस दिशा में कभी सोचा है? यदि नहीं सोचा तो अब वक़्त गया है कि पार्षद पतियों लेकर कोई नीति बनाई जाए! क्योंकि, वैकल्पिक जनप्रतिनिधि को झेलना जनता की मज़बूरी नहीं है। (लेखक 'सुबह सवेरे' के राजनीतिक संपादक हैं)


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